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वर्ल्ड वेटलैंड डे : गुम हो गए 80 फीसद तालाब, बढ़ा ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

2 फरवरी 1971 को ईरान के रमसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया था. इसलिए आज का दिन 'वर्ल्ड वेट लैंड डे' के तौर पर मनाया जाता है. नदियों, झीलों और तालाबों की स्थिति खराब होते देख वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया था.

लखीमपुर खीरी में स्थित तालाब.
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Published : Feb 2, 2019, 7:27 PM IST

लखीमपुर खीरी : 2 फरवरी को 'विश्व वेटलैंड डे' है. नदियों, झीलों और तालाबों आदि की स्थित खराब होते देख वर्ष 1971 में 2 फरवरी को ईरान के रमसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया. भारत में भी पिछले 20 वर्षों में 80 फीसदी तालाब गायब हो गए हैं. यहां कहां चले गए, इसका कोई पता आज तक नहीं चल सका है. तालाबों के गायब होने से मानव आबादी और खेती पर सबसे ज्यादा खतरा बढ़ा है और ग्लोबल वार्मिंग पर भी इसका काफी असर पड़ रहा है.

दरअसल, 2 फरवरी 1971 को ईरान के रमसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया था. इसलिए आज का दिन 'वर्ल्ड वेटलैंड डे' के तौर पर मनाया जाता है. इसका उद्देश्य कुदरती चीजों से खिलवाड़ नहीं करना है, क्योंकि अगर कुदरत ने इंसानों के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया तो आने वाली पीढ़ी झीलों, नदियों और तालाबों को सिर्फ किताबों में ही देख पाएंगी, लेकिन भारत में इसका उल्टा असर देखने को मिल रहा है. देश में पिछले 20 वर्षों में 80 फीसदी तालाब गायब हो गए हैं. यह तालाब कहां चले गए, इसका किसी को कोई पता नहीं है. तालाबों और झीलों का विकास की अंधी दौड़ में गायब होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है. वहीं मानव आबादी और खेती पर सबसे ज्यादा खतरा बढ़ा है. इससे पीने का पानी भी खतरे में है और जलीय जीव सबसे ज्यादा संकट में हैं.

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जानकारी देते तराई नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी के सचिव डॉ वीपी सिंह.
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खतरे में देशी मछलियों का अस्तित्व

भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आकड़ों को अगर देखें तो विकास की अंधी दौड़ में सबसे ज्यादा अगर किसी पर कहर बरपा है तो तालाबों और झीलों पर बरपा है. तालाबों और झीलों को ज्यादातर गरीबों को पट्टे दे दिए गए या इन पर प्लाटिंग करके कंक्रीट के जंगल उगा दिए गए. इससे प्राकृतिक तालाबों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. तालाबों-झीलों की पारिस्थितिकी बदल गई. प्राकृतिक जलस्रोत खत्म हो गए, जिससे भूजल पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. वहीं तालाबों में पलने-बढ़ने वाली तमाम देशी मछलियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. तालाबों से औषधीय महत्व की वनस्पतियां भी धीरे-धीरे गायब हो गईं.

देश में 7 लाख से ज्यादा तलााबों का अस्तित्व हुआ खत्म

तराई नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी के सचिव डॉ वीपी सिंह ने बताया कि तालाबों में पाए जाने वाले पौधों और वनस्पतियों में फोटो सिंथेसिस सबसे ज्यादा होता है. ये पादप सबसे ज्यादा कार्बन पदार्थों को कन्ज्यूम करके आक्सीजन बाहर छोड़ते थे, लेकिन तालाबों की वनस्पतियां गायब होने से यह क्रिया ही रुक जाती है. 2005 में सेकान यानी सलीम अली पक्षी संस्थान के अध्ययन में भारत से तीन लाख तालाबों का अस्तित्व खत्म हो चुका था. 2019 आते-आते यह तादात सात लाख से ऊपर पहुंच चुकी है.

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तालाब से गायब हो रहे जलीय जंतु

डॉ वीपी सिंह ने बताया कि तालाबों का अस्तित्व मनुष्य की जिंदगी से जुड़ा है. इसे बचाना उतना ही जरूरी जितना मनुष्य को. तालाब नहीं बचे तो ग्लोबल वार्मिंग से मनुष्यों को खतरा बढ़ जाएगा. तालाबों के नष्ट होने से सारस,ओपन बिल स्टार्क, बगुले, पेलिकन्स, बुलबुल समेत तमाम परिंदों की प्रजातियां खतरे में हैं. इसके अलावा जलीय जीव जैसे कछुए, केकड़े, मछलियां, जलीय सांप आदि तमाम जीवों का अस्तित्व भी खतरे में है.



लखीमपुर खीरी : 2 फरवरी को 'विश्व वेटलैंड डे' है. नदियों, झीलों और तालाबों आदि की स्थित खराब होते देख वर्ष 1971 में 2 फरवरी को ईरान के रमसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया. भारत में भी पिछले 20 वर्षों में 80 फीसदी तालाब गायब हो गए हैं. यहां कहां चले गए, इसका कोई पता आज तक नहीं चल सका है. तालाबों के गायब होने से मानव आबादी और खेती पर सबसे ज्यादा खतरा बढ़ा है और ग्लोबल वार्मिंग पर भी इसका काफी असर पड़ रहा है.

दरअसल, 2 फरवरी 1971 को ईरान के रमसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया था. इसलिए आज का दिन 'वर्ल्ड वेटलैंड डे' के तौर पर मनाया जाता है. इसका उद्देश्य कुदरती चीजों से खिलवाड़ नहीं करना है, क्योंकि अगर कुदरत ने इंसानों के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया तो आने वाली पीढ़ी झीलों, नदियों और तालाबों को सिर्फ किताबों में ही देख पाएंगी, लेकिन भारत में इसका उल्टा असर देखने को मिल रहा है. देश में पिछले 20 वर्षों में 80 फीसदी तालाब गायब हो गए हैं. यह तालाब कहां चले गए, इसका किसी को कोई पता नहीं है. तालाबों और झीलों का विकास की अंधी दौड़ में गायब होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है. वहीं मानव आबादी और खेती पर सबसे ज्यादा खतरा बढ़ा है. इससे पीने का पानी भी खतरे में है और जलीय जीव सबसे ज्यादा संकट में हैं.

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जानकारी देते तराई नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी के सचिव डॉ वीपी सिंह.
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खतरे में देशी मछलियों का अस्तित्व

भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आकड़ों को अगर देखें तो विकास की अंधी दौड़ में सबसे ज्यादा अगर किसी पर कहर बरपा है तो तालाबों और झीलों पर बरपा है. तालाबों और झीलों को ज्यादातर गरीबों को पट्टे दे दिए गए या इन पर प्लाटिंग करके कंक्रीट के जंगल उगा दिए गए. इससे प्राकृतिक तालाबों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. तालाबों-झीलों की पारिस्थितिकी बदल गई. प्राकृतिक जलस्रोत खत्म हो गए, जिससे भूजल पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. वहीं तालाबों में पलने-बढ़ने वाली तमाम देशी मछलियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. तालाबों से औषधीय महत्व की वनस्पतियां भी धीरे-धीरे गायब हो गईं.

देश में 7 लाख से ज्यादा तलााबों का अस्तित्व हुआ खत्म

तराई नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी के सचिव डॉ वीपी सिंह ने बताया कि तालाबों में पाए जाने वाले पौधों और वनस्पतियों में फोटो सिंथेसिस सबसे ज्यादा होता है. ये पादप सबसे ज्यादा कार्बन पदार्थों को कन्ज्यूम करके आक्सीजन बाहर छोड़ते थे, लेकिन तालाबों की वनस्पतियां गायब होने से यह क्रिया ही रुक जाती है. 2005 में सेकान यानी सलीम अली पक्षी संस्थान के अध्ययन में भारत से तीन लाख तालाबों का अस्तित्व खत्म हो चुका था. 2019 आते-आते यह तादात सात लाख से ऊपर पहुंच चुकी है.

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तालाब से गायब हो रहे जलीय जंतु

डॉ वीपी सिंह ने बताया कि तालाबों का अस्तित्व मनुष्य की जिंदगी से जुड़ा है. इसे बचाना उतना ही जरूरी जितना मनुष्य को. तालाब नहीं बचे तो ग्लोबल वार्मिंग से मनुष्यों को खतरा बढ़ जाएगा. तालाबों के नष्ट होने से सारस,ओपन बिल स्टार्क, बगुले, पेलिकन्स, बुलबुल समेत तमाम परिंदों की प्रजातियां खतरे में हैं. इसके अलावा जलीय जीव जैसे कछुए, केकड़े, मछलियां, जलीय सांप आदि तमाम जीवों का अस्तित्व भी खतरे में है.



Intro:वर्ल्ड वेटलैंड डे पर विशेष
लखीमपुर- भारत से पिछले 20 सालों में 80 फ़ीसदी तालाब गायब हो गये। यह तालाब कहां चले गए इसका किसी को कोई पता नहीं,पर तालाबों और झीलों के विकास की अंधी दौड़ में गायब होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा तेजी से बढता जा रहा। वहीं मानव आबादी और खेती पर सबसे ज्यादा खतरा बढ़ता जा रहा। इससे पीने का पानी भी खतरे में है और जलीय जीव सबसे ज्यादा संकट में हैं।
भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के आँकणो को अगर देखें तो विकास की अंधी दौड़ में सबसे ज्यादा अगर किसी पर इन बीस वर्षों में कहर बरपा है तो तालाबों,झीलों और वेटलैंड पर। तालाबों झीलों को ज्यादातर गरीबों को पट्टे दे दिए गए। या इनपर प्लाटिंग करके कंक्रीट के जंगल उगा दिए गए। इससे प्राकृतिक तालाबों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा। तालाबों झीलों की पारिस्थितिकी बदल गई। प्राकृतिक जलस्रोत खत्म हुए। इससे भूजल पर सबसे ज्यादा असर पड़ा। वहीं तालाबों में पलने बढ़ने वाली तमाम देशी मछलियों का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ गया। तालाबों से औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ भी धीरे धीरे गायब हो गईं।



Body:तराई नेचर कन्जर्वेशन सोसाइटी के सचिव डॉ वीपी सिंह कहते हैं,तालाबों में पाए जाने वाले पौधों वनस्पतियो में फोटो सिंथेसिस सबसे ज्यादा होता। ये पादप सबसे ज्यादा कार्बन पदार्थो को कन्ज्यूम करके आक्सीजन बाहर छोड़ते थे। पर तालाबों की बनस्पतियाँ गायब होने से ये क्रिया ही रुक जाती है।
2005 में सेकान यानी सलीम अली पक्षी संस्थान के अध्ययन में भारत से तीन लाख तालाबों का अस्तित्व खत्म हो चुका था। 2019 आते आते ये तादात सात लाख से ऊपर पहुँच चुकी है।


Conclusion:डॉ वीपी सिंह कहते हैं तालाबों का अस्तित्व मनुष्य की जिंदगी से जुड़ा है। इसे बचाना उतना ही जरूरी जितना मनुष्य को। तालाब नहीं बचे तो ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों को भी नहीं बख्शेगी।
तालाबों के नष्ट होने से सारस,ओपन बिल स्टार्क,बगुले,पेलिकन्स,बुलबुल,समेत तमाम परिंदों की प्रजातियाँ खतरे में हैं। इसके अलावा जलीय जीव जैसे कछुए,केकड़े,कई मछलियाँ,जलीय साँप आदि तमाम जीवों का अस्तित्व भी खतरे में है। वर्ल्ड वेटलैंड डे पर आज स्कूली बच्चों को नई पीढ़ी को तालाबों झीलों वेटलैंड का महत्व भी बताया गया। और मनुष्य से इसका कोरिलेशन भी।
बाइट-डॉ वीपी सिंह1
बाइट-डॉ वीपी सिंह2
पीटीसी-प्रशान्त पाण्डेय
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प्रशान्त पाण्डेय
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