कानपुर : 'मै अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल, मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया' यह शेर कानपुर के कृष्णा नगर में रहने वाले मदन लाल भाटिया पर बिलकुल सटीक बैठता है. 1947 में भारत-पाक के विभाजन के बाद कृष्णा नगर में आकर बसे मदन लाल भाटिया के पिता ने लोगों को नेत्र दान करने के प्रति जागरूक करना शुरू किया था, लेकिन उस वक्त उनकी मुहीम को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी, लेकिन सन 2006 में मदन लाल भाटिया ने बेरंग लोगों में खुशियों के रंग भरने का बीड़ा उठाया, जिसको मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने युग दधीचि देह दान संस्था के संस्थापक मनोज सेंगर से मिलकर कृष्णा नगर मोहल्ले के लोगों को नेत्र दान के प्रति जागरूक करना शुरू कर दिया, जिसका नतीजा यह निकला कि कृष्णा नगर मोहल्ले के 179 लोगों ने अपने नेत्रों का दान करके 358 लोगों के जीवन के अंधियारे को रोशनी से गुलजार कर दिया.
नेत्र दान की मुहीम से लोगों की जिंदगी रोशन कर रहा यह परिवार
कानपुर का भाटिया परिवार 'नेत्र दान, महादान' की अलख जगा रहा है. इस परिवार ने अपने मोहल्ले के लोगों से नेत्र दान करने का आह्वान किया, जिससे बेरंग लोगों में खुशी के रंग भरे जा सके. उनकी मुहीम धीर-धीरे रंग लाने लगी और उनके पूरे मोहल्ले के लोगों ने अपने नेत्रों को दान करने का संकल्प ले लिया. इसके साथ ही अब वे देह दान करके चिकित्सा के छात्रों की मदद के लिए भी आगे आ रहे हैं.
कानपुर : 'मै अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल, मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया' यह शेर कानपुर के कृष्णा नगर में रहने वाले मदन लाल भाटिया पर बिलकुल सटीक बैठता है. 1947 में भारत-पाक के विभाजन के बाद कृष्णा नगर में आकर बसे मदन लाल भाटिया के पिता ने लोगों को नेत्र दान करने के प्रति जागरूक करना शुरू किया था, लेकिन उस वक्त उनकी मुहीम को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी, लेकिन सन 2006 में मदन लाल भाटिया ने बेरंग लोगों में खुशियों के रंग भरने का बीड़ा उठाया, जिसको मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने युग दधीचि देह दान संस्था के संस्थापक मनोज सेंगर से मिलकर कृष्णा नगर मोहल्ले के लोगों को नेत्र दान के प्रति जागरूक करना शुरू कर दिया, जिसका नतीजा यह निकला कि कृष्णा नगर मोहल्ले के 179 लोगों ने अपने नेत्रों का दान करके 358 लोगों के जीवन के अंधियारे को रोशनी से गुलजार कर दिया.