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स्पेशल रिपोर्ट : कभी देखा है 'खंडहर वाला दफ्तर'...

उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद नगरपालिका की बिल्डिंग मुंह चिढ़ा रही है. वह कहती है कि तुम्हारे विकास के सारे पैमाने झूठे हैं. अगर वह सच होते तो फिर इस बिल्डिंग की यह तस्वीर जरुर बदलती. लेकिन, बदलते हैं तो केवल कैलेंडर में साल के पन्ने और आश्वासन देने वाले अधिकारियों के चेहरे. नहीं बदलती है तो इस बिल्डिंग की तकदीर. देखिए यह खास रिपोर्ट...

स्पेशल रिपोर्ट
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Published : Jan 19, 2021, 10:29 PM IST

फर्रुखाबाद : हम आपको जिले के दो सरकारी दफ्तर की तस्वीरें दिखाते हैं. पहली तस्वीर जिले के डीएम साहब के दफ्तर का है. आलीशान दफ्तर. बाहर से भी और अंदर से भी. और अब दूसरी तस्वीर भी आपको दिखाते हैं. यह है फर्रुखाबाद जिले की नगर पालिका परिषद का दफ्तर. बिल्डिंग के नाम पर खंडहर और अंदर जान हथेली पर लेकर काम करते सरकारी मुलाजिम. दोनों तस्वीरों को देखकर यही लगता है कि पद और और हैसियत के हिसाब से दफ्तर की इमारत भी हुआ करती है. वेलकम लिखी यह दीवार हमें मुंह चिढ़ाती लगती है.

स्पेशल रिपोर्ट...

क्या करें डर लगता है साहेब. लेकिन, डर के आगे परिवार का सवाल भी है. रोजी-रोटी का सवाल भी है. पेट की खातिर डर को सिर पर बिठाकर रखना पड़ता है फिर रब ही मालिक. दफ्तर के कमरे की छत पर लगा सीमेंट टूट-टूट कर नीचे गिरता है. तब ऐसा लगता है मानो जिंदगी का लम्हा गिर रहा हो. डर और मजबूरी के बोझ तले दबे कर्मचारी यहां काम करने के लिए मजबूर हैं. ये उन वादों की घुट्टी पर ऐतबार कर लेते हैं जो अभी तक पूरे नहीं हुए. इनके इंतजार की इंतहा अभी नहीं हुई...

कब बदलेगी तस्वीर?
कब बदलेगी तस्वीर?

इस दफ्तर की हालत यह है कि जब बारिश होती है तो बाहर बरसता पानी थम जाता है लेकिन दफ्तर के अंदर बारिश का मौसम बना रहता है.

काम कराने आने वाले लोगों को भी खतरा
काम कराने आने वाले लोगों को भी खतरा

इस बारे में जब ईटीवी भारत की टीम ने अधिशासी अधिकारी रविंद्र कुमार जी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने इनकार कर दिया.

हादसे की जिम्मेदारी किसकी होगी ?
हादसे की जिम्मेदारी किसकी होगी ?

यह बिल्डिंग 1868 में बनी थी. बाद में इसे नगर पालिका को दे दिया गया और फिर यहां आज तक वैसे ही कामकाज चल रहा है. डर के साये में पेट की आग के लिए जान जोखिम में डालकर लोग काम कर रहे हैं. करें क्यों ना भाई इनकी भी मजबूरी है. अब हंस कर करें या रोकर करें.

कभी भी हो सकता है हादसा
कभी भी हो सकता है हादसा

इस जर्जर बिल्डिंग को देखने और दिखाने का दौर कई बार चला. आश्वासनों की घुट्टी भी बराबर पिलाई गई. लेकिन लगता है कि जिनके दफ्तर महलों जैसे हैं उन्हें इसकी परवाह नहीं. अगर होती तो तस्वीर कुछ और ही होती. साहेब इन्हें घर चलाना होता है और घर चलाने के लिए इन्हें नौकरी करनी पड़ती है. और नौकरी करने के लिए जान हथेली पर रखना पड़ता है. तस्वीर बदलनी चाहिए और डर का माहौल खत्म होना चाहिए. हाकिमों को कभी तो इन कर्मचारियों की हालत पर तरस आएगा और तब यह तस्वीर भी बदलेगी.

फर्रुखाबाद : हम आपको जिले के दो सरकारी दफ्तर की तस्वीरें दिखाते हैं. पहली तस्वीर जिले के डीएम साहब के दफ्तर का है. आलीशान दफ्तर. बाहर से भी और अंदर से भी. और अब दूसरी तस्वीर भी आपको दिखाते हैं. यह है फर्रुखाबाद जिले की नगर पालिका परिषद का दफ्तर. बिल्डिंग के नाम पर खंडहर और अंदर जान हथेली पर लेकर काम करते सरकारी मुलाजिम. दोनों तस्वीरों को देखकर यही लगता है कि पद और और हैसियत के हिसाब से दफ्तर की इमारत भी हुआ करती है. वेलकम लिखी यह दीवार हमें मुंह चिढ़ाती लगती है.

स्पेशल रिपोर्ट...

क्या करें डर लगता है साहेब. लेकिन, डर के आगे परिवार का सवाल भी है. रोजी-रोटी का सवाल भी है. पेट की खातिर डर को सिर पर बिठाकर रखना पड़ता है फिर रब ही मालिक. दफ्तर के कमरे की छत पर लगा सीमेंट टूट-टूट कर नीचे गिरता है. तब ऐसा लगता है मानो जिंदगी का लम्हा गिर रहा हो. डर और मजबूरी के बोझ तले दबे कर्मचारी यहां काम करने के लिए मजबूर हैं. ये उन वादों की घुट्टी पर ऐतबार कर लेते हैं जो अभी तक पूरे नहीं हुए. इनके इंतजार की इंतहा अभी नहीं हुई...

कब बदलेगी तस्वीर?
कब बदलेगी तस्वीर?

इस दफ्तर की हालत यह है कि जब बारिश होती है तो बाहर बरसता पानी थम जाता है लेकिन दफ्तर के अंदर बारिश का मौसम बना रहता है.

काम कराने आने वाले लोगों को भी खतरा
काम कराने आने वाले लोगों को भी खतरा

इस बारे में जब ईटीवी भारत की टीम ने अधिशासी अधिकारी रविंद्र कुमार जी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने इनकार कर दिया.

हादसे की जिम्मेदारी किसकी होगी ?
हादसे की जिम्मेदारी किसकी होगी ?

यह बिल्डिंग 1868 में बनी थी. बाद में इसे नगर पालिका को दे दिया गया और फिर यहां आज तक वैसे ही कामकाज चल रहा है. डर के साये में पेट की आग के लिए जान जोखिम में डालकर लोग काम कर रहे हैं. करें क्यों ना भाई इनकी भी मजबूरी है. अब हंस कर करें या रोकर करें.

कभी भी हो सकता है हादसा
कभी भी हो सकता है हादसा

इस जर्जर बिल्डिंग को देखने और दिखाने का दौर कई बार चला. आश्वासनों की घुट्टी भी बराबर पिलाई गई. लेकिन लगता है कि जिनके दफ्तर महलों जैसे हैं उन्हें इसकी परवाह नहीं. अगर होती तो तस्वीर कुछ और ही होती. साहेब इन्हें घर चलाना होता है और घर चलाने के लिए इन्हें नौकरी करनी पड़ती है. और नौकरी करने के लिए जान हथेली पर रखना पड़ता है. तस्वीर बदलनी चाहिए और डर का माहौल खत्म होना चाहिए. हाकिमों को कभी तो इन कर्मचारियों की हालत पर तरस आएगा और तब यह तस्वीर भी बदलेगी.

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