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दीपक और गणेश को गढ़ने वाले कुम्हारों से दूर होती लक्ष्मी - दीपक और गणेश को गढ़ने वाले कुम्हार

चित्रकूट में मिट्टी के दीपकों को बनाने वाले कुम्हार समाज के लोग आज उदास हैं. कारण आधुनिक समाज में घटती इनकी आमदनी है. आज पूरा परिवार मिलकर काम करता है, लेकिन इन्हें बमुश्किल 250 रुपये मात्र तक की ही कमाई हो पाती है.

दीये बनाने का काम करते कुम्हार.
दीये बनाने का काम करते कुम्हार.
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Published : Nov 14, 2020, 4:52 PM IST

चित्रकूटः भले ही लोग उजाले का त्योहार दिवाली पर दीपक जलाकर मनाने की तैयारी में जुटी हैं, लेकिन इन दीपकों को बनाने वाले कुम्हार समाज के लोग आज उदास हैं. क्योंकि इनके मिट्टी से गढ़े दीपकों की मांग आए दिन आधुनिक समाज में घटती जा रही है. आज पूरे परिवार मिलाकर काम करते हैं, लेकिन इनकी 1 दिन की आय मात्र 250 रुपये तक ही सीमित होकर रह जाती है. वजह आधुनिक समाज में बढ़ते प्लास्टिक और आर्टिफिशियल रोशनी के संसाधनों ने मिट्टी के दीपकों की जगह ले ली है.

कुम्हार के खस्ताहाल.

राम से जुड़ा है रामघाट
भगवान श्रीराम की तपोभूमि चित्रकूट में दिवाली का विशेष महत्व है. मान्यता के अनुसार राम लंका विजय के बाद सर्वप्रथम चित्रकूट आए थे और रामघाट पर भरत ने राम का स्वागत दिवाली मनाकर किया था. तब से लगातार रामघाट में लाखों श्रद्धालु दीपदान कर दिवाली मनाते आ रहे हैं. रोशनी और उजाले का पर्व दिवाली त्योहार को लेकर घरों में विशेष तैयारियां होती हैं. वहीं दीपक बनाने के कारोबार में जुड़े इन कुम्हारों के परिवार में मायूसी छाई है.

कुम्हारों के घर छाई मायूसी
दरअसल आधुनिकता के इस दौर में मिट्टी से बने दीपक की जगह आर्टिफिशियल लाइट्स और मोमबत्ती ने ले ली है. कुम्हार या प्रजापति कहलाने वाले इस समाज के ज्यादातर लोग मिट्टी के दीपक बनाने से लेकर तमाम तरह के बर्तन बनाने का कारोबार करते हैं. मिट्टी के काम से जुड़े प्रजापति समाज के लोगों को विशेष रूप से ध्यान में रखकर सरकार ने इन्हें जमीन के पट्टे से लेकर आधुनिक चाक की व्यवस्था की घोषणा के बाद कुम्हारों में इस व्यापार से कुछ उम्मीद जागी थी, लेकिन समय से योजना का लाभ न मिलने से इस रोजगार से जुड़े युवा अब पलायन कर महानगरों का रुख कर रहे हैं.

कुम्हारों से दूर हुईं लक्ष्मी
कुम्हारों के लिए दिवाली मात्र एक त्योहार न होकर जीवन यापन का एक बड़ा जरिया भी है. इसे विडंबना कहा जाए की दिवाली के दिन लोग अपने घरों में जिस लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों और दीपकों के जरिए लक्ष्मी के घर आगमन की कामना करते हैं. उन्हें गढ़ने वाले कुम्हारों से ही लक्ष्मी दूर हैं. प्रजापति समाज की महिला रम्मी ने बताया कि पूरे परिवार की हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता है. आधुनिक समाज में आर्टिफिशियल चीजों के आ जाने के बाद उनके कारोबार में खासा असर पहुंचा है.

मुश्किल से चलता है परिवार
वहीं सरकार के द्वारा कई घोषणाएं हुई पर उसका फायदा आज तक इन्हें नहीं मिला. मिट्टी के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है. वहीं जब किसी के खेतों से मिट्टी खोदने जाते हैं तो गाली सुननी पड़ती है. या फिर खोदी हुई मिट्टी वापस अपने खेतों में डलवा करके भगा देता है.

प्रजापति समाज के एक परिवार के मुखिया मईयादीन प्रजापति ने बताया कि उनके परिवार में 7 लोग हैं. सभी मिट्टी के काम से जुड़े हुए हैं. कोई मिट्टी खोद कर लाता है. कोई जंगल से लकड़ी तो कोई कंडे-उपले बीन कर लाता है. जिसमें पूरा दिन कुम्हार परिवार मेहनत करता रहता है. वहीं जब मिट्टी के बर्तन या दीये बाजार में बिकने जाते हैं तो मुश्किल से ही 200 से 250 रुपये तक ही मिल पाते हैं.

जिला उद्योग विभाग के उपायुक्त के अनुसार विभाग द्वारा कुम्हार या प्रजापति समाज के लोगों का चयन करके उन्हें विभाग द्वारा ट्रेनिंग दी जाती है. उन्हें मिट्टी के बर्तन बनाने के नए-नए तरीके भी सिखाए जाते हैं. वहीं 25 ऐसे कामगारों को चयनित किया गया है, जिन्हें जल्द ही स्वचालित चाक भी उपलब्ध कराए जाएंगे.

चित्रकूटः भले ही लोग उजाले का त्योहार दिवाली पर दीपक जलाकर मनाने की तैयारी में जुटी हैं, लेकिन इन दीपकों को बनाने वाले कुम्हार समाज के लोग आज उदास हैं. क्योंकि इनके मिट्टी से गढ़े दीपकों की मांग आए दिन आधुनिक समाज में घटती जा रही है. आज पूरे परिवार मिलाकर काम करते हैं, लेकिन इनकी 1 दिन की आय मात्र 250 रुपये तक ही सीमित होकर रह जाती है. वजह आधुनिक समाज में बढ़ते प्लास्टिक और आर्टिफिशियल रोशनी के संसाधनों ने मिट्टी के दीपकों की जगह ले ली है.

कुम्हार के खस्ताहाल.

राम से जुड़ा है रामघाट
भगवान श्रीराम की तपोभूमि चित्रकूट में दिवाली का विशेष महत्व है. मान्यता के अनुसार राम लंका विजय के बाद सर्वप्रथम चित्रकूट आए थे और रामघाट पर भरत ने राम का स्वागत दिवाली मनाकर किया था. तब से लगातार रामघाट में लाखों श्रद्धालु दीपदान कर दिवाली मनाते आ रहे हैं. रोशनी और उजाले का पर्व दिवाली त्योहार को लेकर घरों में विशेष तैयारियां होती हैं. वहीं दीपक बनाने के कारोबार में जुड़े इन कुम्हारों के परिवार में मायूसी छाई है.

कुम्हारों के घर छाई मायूसी
दरअसल आधुनिकता के इस दौर में मिट्टी से बने दीपक की जगह आर्टिफिशियल लाइट्स और मोमबत्ती ने ले ली है. कुम्हार या प्रजापति कहलाने वाले इस समाज के ज्यादातर लोग मिट्टी के दीपक बनाने से लेकर तमाम तरह के बर्तन बनाने का कारोबार करते हैं. मिट्टी के काम से जुड़े प्रजापति समाज के लोगों को विशेष रूप से ध्यान में रखकर सरकार ने इन्हें जमीन के पट्टे से लेकर आधुनिक चाक की व्यवस्था की घोषणा के बाद कुम्हारों में इस व्यापार से कुछ उम्मीद जागी थी, लेकिन समय से योजना का लाभ न मिलने से इस रोजगार से जुड़े युवा अब पलायन कर महानगरों का रुख कर रहे हैं.

कुम्हारों से दूर हुईं लक्ष्मी
कुम्हारों के लिए दिवाली मात्र एक त्योहार न होकर जीवन यापन का एक बड़ा जरिया भी है. इसे विडंबना कहा जाए की दिवाली के दिन लोग अपने घरों में जिस लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों और दीपकों के जरिए लक्ष्मी के घर आगमन की कामना करते हैं. उन्हें गढ़ने वाले कुम्हारों से ही लक्ष्मी दूर हैं. प्रजापति समाज की महिला रम्मी ने बताया कि पूरे परिवार की हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता है. आधुनिक समाज में आर्टिफिशियल चीजों के आ जाने के बाद उनके कारोबार में खासा असर पहुंचा है.

मुश्किल से चलता है परिवार
वहीं सरकार के द्वारा कई घोषणाएं हुई पर उसका फायदा आज तक इन्हें नहीं मिला. मिट्टी के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है. वहीं जब किसी के खेतों से मिट्टी खोदने जाते हैं तो गाली सुननी पड़ती है. या फिर खोदी हुई मिट्टी वापस अपने खेतों में डलवा करके भगा देता है.

प्रजापति समाज के एक परिवार के मुखिया मईयादीन प्रजापति ने बताया कि उनके परिवार में 7 लोग हैं. सभी मिट्टी के काम से जुड़े हुए हैं. कोई मिट्टी खोद कर लाता है. कोई जंगल से लकड़ी तो कोई कंडे-उपले बीन कर लाता है. जिसमें पूरा दिन कुम्हार परिवार मेहनत करता रहता है. वहीं जब मिट्टी के बर्तन या दीये बाजार में बिकने जाते हैं तो मुश्किल से ही 200 से 250 रुपये तक ही मिल पाते हैं.

जिला उद्योग विभाग के उपायुक्त के अनुसार विभाग द्वारा कुम्हार या प्रजापति समाज के लोगों का चयन करके उन्हें विभाग द्वारा ट्रेनिंग दी जाती है. उन्हें मिट्टी के बर्तन बनाने के नए-नए तरीके भी सिखाए जाते हैं. वहीं 25 ऐसे कामगारों को चयनित किया गया है, जिन्हें जल्द ही स्वचालित चाक भी उपलब्ध कराए जाएंगे.

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