बस्ती: विकास के नाम पर सरकारी धन की किस तरह से बर्बादी होती है, यह आज हम आपको उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में चल रहे एक योजना की पड़ताल में समझाएंगे. लखनऊ में बैठे अफसरों ने योजना की शुरुआत तो कर दी, लेकिन उसके निर्माण के बाद होने वाले परिणाम के बारे में किसी ने सोचा तक नहीं, जिस वजह से अरबों को लागत की यह महत्वाकांक्षी योजना अब अधर में लटक गई है.
स्वच्छ भारत मिशन के तहत गांव-गांव में शौचालय का निर्माण तो पिछले कई सालों से हो ही रहा है, लेकिन इस योजना के तहत हर गांव में अब नए तरीके से सार्वजनिक शौचालय बनाने की शुरुआत हुई, मुख्यमंत्री योगी की टीम बैठी, योजना बनी और हर जिले में अरबों रुपये बजट के तौर पर भेज भी दिए गए.
बस्ती में भी 1200 गांव में सार्वजनिक शौचालय बनाने की योजना की शुरुआत हुई, लेकिन इस योजना में सबसे बड़ी जो कमी थी, वह थी कि सार्वजनिक शौचालय प्राइमरी या परिषदीय स्कूलों में ही बनाए जाने थे. अब सवाल यह उठता है कि आखिर गांव के लोगों के प्रयोग के लिए सार्वजनिक शौचालय को सरकार के प्राइमरी स्कूलों में बनाने के पीछे क्या मंशा थी.
गांव में बजट भी पहुंचा और प्रधान जी लाव लश्कर के साथ परिषदीय स्कूलों में सार्वजनिक शौचालय बनाने की शुरुआत भी कर दी, लेकिन धीरे-धीरे जब निर्माण बढ़ता गया, तो इन स्कूलों के अध्यापकों ने विरोध शुरू कर दिया और अपनी बात को शासन तक भी पहुंचाया, जिसके बाद सरकार बैकफुट पर आई और परिषदीय स्कूलों में बनाए जा रहे सार्वजनिक शौचालय के निर्माण पर तत्काल रोक लगा दी गई. बावजूद इसके अभी भी बस्ती के कई स्कूलों में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हो रहा है.
ईटीवी भारत के संवाददाता ने जब इस योजना की पड़ताल की तो पता चला कि कई परिषदीय स्कूलों में सार्वजनिक शौचालय के निर्माण की शुरुआत हुई, लेकिन विरोध के बाद उसे अधर में छोड़ दिया गया है. मतलब सरकार ने अरबों रुपये खुले में शौच करने वाले ग्रामीणों के प्रयोग के लिए बनाए, लेकिन योजना को ठीक तरीके से बनाने में लापरवाही की गई, जिस वजह से सरकार का करोड़ों रुपये डूबकर अब बर्बाद हो गया है.
सदर ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय डारी डीहा और प्राथमिक विद्यालय भवन निरंजनपुर में अधूरे पड़े सार्वजनिक शौचालय की तस्वीरें महज एक बानगी हैं. जिले में ऐसे सैकड़ों स्कूल हैं, जहां बेमतलब ही सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हो रहा है.
बहरहाल इस पूरे मामले को लेकर जिले के पंचायत राज अधिकारी विनय सिंह ने बताया कि सरकार की रोक के बाद भी अगर कहीं सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हो रहा है, तो उस पर कार्रवाई की जाएगी. उन्होंने कुछ रिपोर्ट भी मंगवाई है. अधिकारियों से बात करके निर्णय लिया जाएगा कि जिन परिषदीय स्कूलों में सार्वजनिक शौचालय का अधूरा निर्माण हो गया है, उसको कैसे उसी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के उपयोग में लाया जा सकता है.
सवाल ये उठता है कि सरकार ने बिना सोचे समझे इस योजना की शुरुआत कैसे कर दी. आखिर जब सरकारी परिषदीय स्कूलों में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है, तो क्या सोचकर सार्वजनिक शौचालय का निर्माण स्कूलों के अंदर कराए जाने का आदेश दिया गया. अधिकारियों के दिमाग में यह क्यों नहीं आया कि प्राइमरी या परिषदीय स्कूलों में पढ़ने वाली बेटियां या छोटे बच्चे सार्वजनिक शौचालय में ग्रामीणों के आने जाने से प्रभावित होंगे.