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बाराबंकी: ऐतिहासिक देवा मेले का हुआ समापन, 10 दिनों तक चला आयोजन

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में ऐतिहासिक देवा मेले का समापन 24 अक्टूबर को हुआ. इस मेला का आयोजन पहली बार हजरत वारिस अली शाह ने 1897 में किया था, जिस दिन हिंदू महिलाएं करवा चौथ का व्रत रखती हैं उसी दिन से देवा मेला शुरू होकर 10 दिनों तक चलता है.

ऐतिहासिक देवा मेला.
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Published : Oct 25, 2019, 8:52 PM IST

बाराबंकी: 15 अक्टूबर से चल रहे ऐतिहासिक देवा मेले का 24 अक्टूबर को समापन हो गया. देश और दुनिया भर से 10 लाख से ज्यादा लोग इस मेले में आते हैं. हजरत वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह के उर्स पर यह मेला आयोजित किया जाता है. इस मेले का आयोजन पहली बार हजरत वारिस अली शाह ने 1897 में किया था. उसी समय से लगातार अभी तक यह मेला आयोजित हो रहा है. इस मेले में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक सामाजिक और खेलकूद से संबंधित आयोजन होते है. देवा शरीफ में आयोजित यह मेला सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल का निर्माण करता है. इस मेले में विदेश से कलाकार अपनी प्रस्तुति देने के लिए आते हैं. वहीं अपनी माटी की खुशबू अपने में समेटे हुए कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. यह मेला अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साथ आपसी भाईचारे के स्वरूप को उजागर करता है.

ऐतिहासिक देवा मेले का समापन.

बाराबंकी है हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली
हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली देवा बाराबंकी है. यहीं से उन्होंने सार्वभौमिक प्रेम के संदेश के द्वारा लोगों को एकजुट होने और साथ रहने का आवाहन किया था. हाजी वारिस अली शाह का जन्म 19वीं शताब्दी में हुआ था. उन्होंने अप्रैल 1905 में प्राण त्याग दिया. उन्हीं की स्मृति में हिंदू, मुस्लिम, सिख , ईसाईं सभी अनुयायियों ने मिलकर उनके इंतकाल वाले स्थान पर ही उन्हें दफनाया और वहां पर भव्य स्मारक बना दिया.

हाजी वारिस अली शाह की कब्र पर होता है उर्स का आयोजन
हर साल 'सफर' जो चंद्र आधारित पवित्र महीना होता है, उसमें हाजी वारिस अली शाह की कब्र पर 'उर्स' का आयोजन होता है. वर्ष 1897 से लगातार हाजी वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह की याद में पवित्र कार्तिक महीने अर्थात अक्टूबर-नवंबर में भी उर्स का आयोजन होता है. जिसे देवा मेले के नाम से जाना जाता है. सूफी परंपरा के इस महान संत की मजार पूरे भारत में प्रसिद्ध है और यहां पर सभी धर्मों के अनुयायी आते ही रहते हैं.

यहां मिलता है केवल मोहब्बत, प्रेम और सौहार्द्र का पैगाम
अनुयायियों ने बताया कि यहां से केवल मोहब्बत, प्रेम और सौहार्द्र का पैगाम मिलता है. यहां आने पर उन्हें कौमी एकता का एहसास होता है, जहां सभी बराबर हैं. सभी पर वारिस अली शाह एवं अपने-अपने धर्मों के ईश्वर की कृपा होती है. लोग दूर-दूर से यहां पर आते हैं और भाईचारे, आपसी तालमेल एवं मोहब्बत का संदेश लेकर यहां से जाते हैं.

'जो रब है वही राम है'
हाजी वारिस अली शाह का संदेश 'जो रब है वहीं राम है ' सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं. सबको अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने का अधिकार है. मोहब्बत और प्रेम के साथ रहना ही है ईश्वर और अल्लाह का संदेश है. आज भी सभी धर्मों के लोग देवा शरीफ में अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर को याद करते हैं. हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर सभी धर्मों के लोगों को सुकून मिलता है. होली के त्योहार में भी सभी धर्मों के अनुयायी मजार के परिसर में होली खेलते हैं, जिससे सांप्रदायिक सौहार्द के वातावरण को नया आयाम मिलता है.

आज के दौर में इस प्रकार के सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाने में, हाजी वारिस अली शाह की मजार से निकलने वाला यह संदेश , वास्तव में इंसान को इंसान से जोड़ने का काम कर रहा है, जो सचमुच दिल को छू लेने वाला होता है.


बाराबंकी: 15 अक्टूबर से चल रहे ऐतिहासिक देवा मेले का 24 अक्टूबर को समापन हो गया. देश और दुनिया भर से 10 लाख से ज्यादा लोग इस मेले में आते हैं. हजरत वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह के उर्स पर यह मेला आयोजित किया जाता है. इस मेले का आयोजन पहली बार हजरत वारिस अली शाह ने 1897 में किया था. उसी समय से लगातार अभी तक यह मेला आयोजित हो रहा है. इस मेले में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक सामाजिक और खेलकूद से संबंधित आयोजन होते है. देवा शरीफ में आयोजित यह मेला सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल का निर्माण करता है. इस मेले में विदेश से कलाकार अपनी प्रस्तुति देने के लिए आते हैं. वहीं अपनी माटी की खुशबू अपने में समेटे हुए कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. यह मेला अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साथ आपसी भाईचारे के स्वरूप को उजागर करता है.

ऐतिहासिक देवा मेले का समापन.

बाराबंकी है हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली
हाजी वारिस अली शाह की जन्मस्थली देवा बाराबंकी है. यहीं से उन्होंने सार्वभौमिक प्रेम के संदेश के द्वारा लोगों को एकजुट होने और साथ रहने का आवाहन किया था. हाजी वारिस अली शाह का जन्म 19वीं शताब्दी में हुआ था. उन्होंने अप्रैल 1905 में प्राण त्याग दिया. उन्हीं की स्मृति में हिंदू, मुस्लिम, सिख , ईसाईं सभी अनुयायियों ने मिलकर उनके इंतकाल वाले स्थान पर ही उन्हें दफनाया और वहां पर भव्य स्मारक बना दिया.

हाजी वारिस अली शाह की कब्र पर होता है उर्स का आयोजन
हर साल 'सफर' जो चंद्र आधारित पवित्र महीना होता है, उसमें हाजी वारिस अली शाह की कब्र पर 'उर्स' का आयोजन होता है. वर्ष 1897 से लगातार हाजी वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह की याद में पवित्र कार्तिक महीने अर्थात अक्टूबर-नवंबर में भी उर्स का आयोजन होता है. जिसे देवा मेले के नाम से जाना जाता है. सूफी परंपरा के इस महान संत की मजार पूरे भारत में प्रसिद्ध है और यहां पर सभी धर्मों के अनुयायी आते ही रहते हैं.

यहां मिलता है केवल मोहब्बत, प्रेम और सौहार्द्र का पैगाम
अनुयायियों ने बताया कि यहां से केवल मोहब्बत, प्रेम और सौहार्द्र का पैगाम मिलता है. यहां आने पर उन्हें कौमी एकता का एहसास होता है, जहां सभी बराबर हैं. सभी पर वारिस अली शाह एवं अपने-अपने धर्मों के ईश्वर की कृपा होती है. लोग दूर-दूर से यहां पर आते हैं और भाईचारे, आपसी तालमेल एवं मोहब्बत का संदेश लेकर यहां से जाते हैं.

'जो रब है वही राम है'
हाजी वारिस अली शाह का संदेश 'जो रब है वहीं राम है ' सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं. सबको अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने का अधिकार है. मोहब्बत और प्रेम के साथ रहना ही है ईश्वर और अल्लाह का संदेश है. आज भी सभी धर्मों के लोग देवा शरीफ में अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर को याद करते हैं. हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर सभी धर्मों के लोगों को सुकून मिलता है. होली के त्योहार में भी सभी धर्मों के अनुयायी मजार के परिसर में होली खेलते हैं, जिससे सांप्रदायिक सौहार्द के वातावरण को नया आयाम मिलता है.

आज के दौर में इस प्रकार के सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाने में, हाजी वारिस अली शाह की मजार से निकलने वाला यह संदेश , वास्तव में इंसान को इंसान से जोड़ने का काम कर रहा है, जो सचमुच दिल को छू लेने वाला होता है.


Intro: बाराबंकी 24 अक्टूबर। 15 अक्टूबर से चल रहे ऐतिहासिक देवा मेले का आज 24 अक्टूबर को समापन है. देश और दुनिया भर से 10 लाख से भी ज्यादा लोग इस मेले में आते हैं. हजरत वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह के उर्स पर आयोजित होता है यह मेला. इस मेले का आयोजन पहली बार हजरत वारिस अली शाह ने 1897 में किया था. उसी समय से लगातार अभी तक यह मेला आयोजित हो रहा है. इस मेले में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक सामाजिक और खेलकूद से संबंधित आयोजन होते हैं. देवा शरीफ में आयोजित यह मेला सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल का निर्माण करता है. जिस दिन हिंदू महिलाएं करवा चौथ का व्रत रखती हैं उसी दिन से शुरू होता है देवा मेला. तब से शुरू होकर 10 दिन तक चलता है यह मेला. विदेश से कलाकार यहां अपनी प्रस्तुति देने के लिए आते हैं तो वहीं अपनी माटी की खुशबू अपने में समेटे हुए कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. यह मेला अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साथ आपसी भाईचारे के स्वरूप को प्रतिबंधित करता है.


Body:हाजी वारिस अली शाह की जन्म स्थली देवा बाराबंकी है , और यहीं से उन्होंने सार्वभौमिक प्रेम के संदेश के द्वारा लोगों को एकजुट होने और साथ रहने का आवाहन किया था. हाजी वारिस अली शाह का जन्म 19वीं शताब्दी में हुआ था और उन्होंने अप्रैल 1905 में प्राण त्याग दिया . उन्हीं की स्मृति में उनके हिंदू, मुस्लिम, सिख , ईसाई सभी अनुयायियों ने मिलकर, उनके स्वर्गवास वाले स्थान पर ही उन्हें दफनाया, और वहां पर भव्य स्मारक बना दिया . यहीं से उनके द्वारा दिए गए संदेशों को लोगों तक पहुंचाने का काम किया , जो अब भी अनवरत जारी है.

हर साल "सफर" जो चंद्र आधारित पवित्र महीना होता है, उसमें हाजी वारिस अली शाह की कब्र पर "उर्स" का आयोजन होता है.
वर्ष 1897 से लगातार हाजी वारिस अली शाह के पिता कुर्बान अली शाह की याद में पवित्र कार्तिक महीने अर्थात अक्टूबर-नवंबर में भी उर्स का आयोजन होता है जिसे "देवां मेले" के नाम से जाना जाता है.

सूफी परंपरा के इस महान संत की मजार पूरे भारत में प्रसिद्ध है और यहां पर सभी धर्मों के अनुयाई आते ही रहते हैं.
जब ईटीवी भारत ने यहां पहुंचे अनुयायियों से बात की तो उन सभी ने बताया कि, यहां से केवल मोहब्बत, प्रेम और सौहार्द्र का पैगाम मिलता है . यहां आने पर उन्हें कौमी एकता का एहसास होता है, जहां सभी बराबर है . सभी पर वारिस अली शाह एवं अपने-अपने धर्मों के ईश्वर की कृपा होती है.
लोग दूर-दूर से यहां पर आते हैं और भाईचारे , आपसी तालमेल एवं मोहब्बत का संदेश लेकर यहां से जाते हैं.


हाजी वारिस अली शाह का संदेश " जो रब है वही राम है " . सभी एक ही ईश्वर की है संतान , सबको अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने का है अधिकार. मोहब्बत और प्रेम के साथ रहना ही है ईश्वर भगवान और अल्लाह का संदेश. आज भी सभी धर्मों के लोग देवां शरीफ में अपनी मान्यता के अनुसार करते हैं ईश्वर को याद. हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर सभी धर्मों के लोगों को मिलता है सुकून. दूर-दूर से लोग आते हैं चादर चढ़ाने. मोहब्बत के पैगाम के साथ एक दूसरे से मिलजुल कर रहते हैं लोग. होली के त्यौहार में भी सभी धर्मों के अनुयाई मजार के परिसर में खेलते हैं होली. सांप्रदायिक सौहार्द के वातावरण को यहां से मिलता है नया आयाम.

आज के दौर में इस प्रकार के सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाने में, हाजी वारिस अली शाह की मजार से निकलने वाला यह संदेश , वास्तव में इंसान को इंसान से जोड़ने का काम कर रहा है, जो सचमुच दिल को छू लेने वाला होता है.



Conclusion:रिपोर्ट-  आलोक कुमार शुक्ला , रिपोर्टर बाराबंकी, 96284 76907
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