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काला सोना की खेती नहीं करना चाहते किसान, बिन मांगे पूरी हुई नारकोटिक्स विभाग की मुराद

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Published : Nov 14, 2022, 1:45 PM IST

बाराबंकी के किसान पोस्ते की खेती छोड़ मेंथा, आलू, केला और टमाटर जैसी नकदी फसलों की खेती पर जोर दे रहे हैं. महज 495 गांव के 2293 किसानों ने ही पोस्ता की खेती करने की हिम्मत जुटाई है. इसका सीधा फायदा नारकोटिक्स विभाग को हो रहा है. कैसे? देखिए ईटीवी भारत की यह रिपोर्ट...

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अफीम की खेती नहीं करना चाहते किसान

बाराबंकी: कभी बाराबंकी समेत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कई जिलों में अफीम यानी काला सोना की जबरदस्त खेती होती थी. इसमें अकेले बाराबंकी जिले में ही 90 फीसदी पोस्ते की खेती होती थी. लेकिन, इधर कुछ वर्षों से किसानों का पोस्ते की खेती से मोह भंग हो गया है. खेती में जबरदस्त मेहनत, रखवाली, हाई रिस्क और पॉलिसी में बदलाव के चलते किसान अब पोस्ते की खेती करने की बजाय मेंथा, आलू, केला और टमाटर जैसी नकदी फसलों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं.

इस सत्र में किसानों को ज्यादा से ज्यादा पट्टा देने के लिए विभाग ने तमाम जतन किए. एक महीने से ज्यादा समय तक लाइसेंस बांटने की समयसीमा रखी. बाद में समय बढ़ाया भी गया. लेकिन, लाइसेंस लेने के लिए उतने किसान नहीं आए जितने कि विभाग को उम्मीद थी. विभाग ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के 6 जिलों के 610 गांवों के किसानों को बुलाया था. लेकिन, महज 495 गांव के 2293 किसानों ने ही पोस्ता की खेती करने की हिम्मत जुटाई. उन्होंने नारकोटिक्स विभाग से लाइसेंस लिया. कई जिलों से तो किसान लाइसेंस लेने ही नहीं आए.

किसानों और जिला अफीम अधिकारी ने दी जानकारी

पोस्ते की खेती सूबे में महज 9 जिलों में की जाती है. इनमें 6 जिले पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं और बाकी 3 जिले पश्चिम के. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों को बाराबंकी यूनिट से लाइसेंस जारी किए जाते हैं. बीती 10 अक्टूबर से लाइसेंस देने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. लाइसेंस लेने आए ज्यादातर किसानों ने बताया कि पोस्ते की खेती में बहुत रिस्क है. फसल बोने से लेकर तैयार होने तक लगातार रखवाली करनी पड़ती है. चोरों से हर वक्त खतरा बना रहता है. विभाग को अफीम का परता देने का तनाव अलग रहता है. मौसम खराब हुआ तो फसल खराब होने का खतरा बढ़ जाता है. इधर कुछ वर्षों से छुट्टा जानवरों ने खतरा बढ़ा दिया है. किसानों की शिकायत है कि पॉलिसी के बदलाव के साथ साथ अफीम के सरकारी रेट में वक्त और महंगाई के साथ अपेक्षित वृद्धि न होना भी किसानों की बेरुखी एक कारण है.

भारत सरकार ने पिछले वर्ष से पोस्ते की खेती की नीति में बड़ा बदलाव करते हुए एक नई योजना शुरू की है. इसके तहत विभाग ने दो प्रकार के लाइसेंस (license) देने शुरू किए हैं. पहले प्रकार के लाइसेंस के तहत किसानों को पोस्ता में चीरा लगाकर अफीम (opium gum) निकाल कर उसे सरकार को जमा करना होता है. वहीं, दूसरे प्रकार के लाइसेंस के तहत किसानों को बगैर रस निकाले सीधे डोडा (Concentrate of Poppy Straw) को जमा करना होता है. दूसरे प्रकार के लाइसेंस को सीपीएस (cps) लाइसेंस नाम दिया गया. पिछली बार जहां इसे प्रयोग के तौर पर अपनाया गया था. वहीं, इस बार इस प्रकार की खेती पर ज्यादा फोकस किया गया है. पिछली बार जहां 142 सीपीएस लाइसेंस जारी किए गए थे. वहीं, इस बार 11 सौ सीपीएस के लाइसेंस जारी किए गए. इस बार अफीम देने वाले काश्तकारों के लगभग बराबर डोडा यानी सीपीएस की खेती करने वाले किसानों को लाइसेंस दिए गए हैं.

विभाग दूसरे प्रकार के लाइसेंस यानी सीपीएस को बढ़ावा दे रहा है. विभाग का मानना है कि इससे न केवल किसानों को लाभ होगा, बल्कि अफीम और उससे बनने वाले उत्पादों की तस्करी पर भी लगाम लगेगी. सबसे बड़ा फायदा विभाग को होगा. क्योंकि, अफीम से एल्केलाइड निकालने का खर्च बचेगा.

इसे भी पढ़े-अपने ही खेत की फसल काटने के लिए डीएम कार्यलय का चक्कर काट रहा बुजुर्ग

दरअसल, पोस्ता के पौधे में निकले फल से निकलने वाला दूध जब जमकर पेस्ट बन जाता है तो उसे अफीम (opium) कहते हैं. अभी तक अफीम में कुछ रसायन मिलाकर उससे परंपरागत ढंग से एल्केलाइड्स (alkaloids) निकाले जाते हैं. इनसे जीवन रक्षक दवाइयां (life saving drugs) बनाई जाती हैं. अब नई तकनीक के आ जाने से सीधे तौर पर डोडा यानी पॉपीस्ट्रा (poppy straw) से एल्केलाइड्स निकाल लिए जाएंगे. इसके लिए अफीम की आवश्यकता नहीं होगी.

विभागीय अधिकारियों का कहना है कि इस नई सीपीएस की खेती से अफीम या उससे जुड़े उत्पादों जैसे हेरोइन (heroine), मार्फीन (morphine) और निकोटीन (nicotine) की तस्करी (smuggling) रुकेगी. साथ ही ये किसानों के लिए भी आसान होगा. उन्हें अफीम की रखवाली का जोखिम भी नहीं उठाना होगा. अधिकारियों का कहना है कि नई तकनीक के जरिए डोडा से एल्केलाइड्स निकालने में आसानी के साथ खर्च भी कम आएगा. इससे जीवन रक्षक दवाइयां सस्ती होंगी.

सूबे के केवल 9 जिलों में होती है अफीम की खेती

पोस्ता की खेती के लिए सूबे में 9 जिले प्रमुख हैं. इनमें पश्चिम के तीन जिलों के लाइसेंस बरेली यूनिट से जारी किए जाते हैं. जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 6 जिलों के लिए लाइसेंस बाराबंकी यूनिट से जारी होते हैं. उत्तर प्रदेश के 9 जिलों बरेली, बंदायू, शाहजहांपुर, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, रायबरेली, मऊ और गाजीपुर में ही पोस्ता की खेती की जाती है. इसमें बदायूं, बरेली और शाहजहांपुर जिलों के किसानों को बरेली यूनिट लाइसेंस जारी करती है. जबकि, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, रायबरेली, मऊ और गाजीपुर जिलों के किसानों को बाराबंकी कार्यालय लाइसेंस जारी करता है.

पिछले वर्ष का आंकड़ा

  • लाइसेंस के लिए योग्य किसान - 2333
  • लाइसेंस नहीं लेने वाले किसान - 1334
  • अफीम देने वाले किसान - 297
  • डोडा (CPS) वाले किसान - 142
  • फसल नष्ट कराने वाले किसान - 523
  • फसल न बोने वाले किसान - 37

इस वर्ष का आंकड़ा

  • 610 गांव के किसान बुलाए गए थे
  • 495 गांव के किसान लाइसेंस लेने आए
  • 2293 किसानों ने लिया लाइसेंस
  • 1191 किसानों को सीपीएस का लाइसेंस

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बाराबंकी: कभी बाराबंकी समेत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के कई जिलों में अफीम यानी काला सोना की जबरदस्त खेती होती थी. इसमें अकेले बाराबंकी जिले में ही 90 फीसदी पोस्ते की खेती होती थी. लेकिन, इधर कुछ वर्षों से किसानों का पोस्ते की खेती से मोह भंग हो गया है. खेती में जबरदस्त मेहनत, रखवाली, हाई रिस्क और पॉलिसी में बदलाव के चलते किसान अब पोस्ते की खेती करने की बजाय मेंथा, आलू, केला और टमाटर जैसी नकदी फसलों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं.

इस सत्र में किसानों को ज्यादा से ज्यादा पट्टा देने के लिए विभाग ने तमाम जतन किए. एक महीने से ज्यादा समय तक लाइसेंस बांटने की समयसीमा रखी. बाद में समय बढ़ाया भी गया. लेकिन, लाइसेंस लेने के लिए उतने किसान नहीं आए जितने कि विभाग को उम्मीद थी. विभाग ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के 6 जिलों के 610 गांवों के किसानों को बुलाया था. लेकिन, महज 495 गांव के 2293 किसानों ने ही पोस्ता की खेती करने की हिम्मत जुटाई. उन्होंने नारकोटिक्स विभाग से लाइसेंस लिया. कई जिलों से तो किसान लाइसेंस लेने ही नहीं आए.

किसानों और जिला अफीम अधिकारी ने दी जानकारी

पोस्ते की खेती सूबे में महज 9 जिलों में की जाती है. इनमें 6 जिले पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं और बाकी 3 जिले पश्चिम के. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों को बाराबंकी यूनिट से लाइसेंस जारी किए जाते हैं. बीती 10 अक्टूबर से लाइसेंस देने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. लाइसेंस लेने आए ज्यादातर किसानों ने बताया कि पोस्ते की खेती में बहुत रिस्क है. फसल बोने से लेकर तैयार होने तक लगातार रखवाली करनी पड़ती है. चोरों से हर वक्त खतरा बना रहता है. विभाग को अफीम का परता देने का तनाव अलग रहता है. मौसम खराब हुआ तो फसल खराब होने का खतरा बढ़ जाता है. इधर कुछ वर्षों से छुट्टा जानवरों ने खतरा बढ़ा दिया है. किसानों की शिकायत है कि पॉलिसी के बदलाव के साथ साथ अफीम के सरकारी रेट में वक्त और महंगाई के साथ अपेक्षित वृद्धि न होना भी किसानों की बेरुखी एक कारण है.

भारत सरकार ने पिछले वर्ष से पोस्ते की खेती की नीति में बड़ा बदलाव करते हुए एक नई योजना शुरू की है. इसके तहत विभाग ने दो प्रकार के लाइसेंस (license) देने शुरू किए हैं. पहले प्रकार के लाइसेंस के तहत किसानों को पोस्ता में चीरा लगाकर अफीम (opium gum) निकाल कर उसे सरकार को जमा करना होता है. वहीं, दूसरे प्रकार के लाइसेंस के तहत किसानों को बगैर रस निकाले सीधे डोडा (Concentrate of Poppy Straw) को जमा करना होता है. दूसरे प्रकार के लाइसेंस को सीपीएस (cps) लाइसेंस नाम दिया गया. पिछली बार जहां इसे प्रयोग के तौर पर अपनाया गया था. वहीं, इस बार इस प्रकार की खेती पर ज्यादा फोकस किया गया है. पिछली बार जहां 142 सीपीएस लाइसेंस जारी किए गए थे. वहीं, इस बार 11 सौ सीपीएस के लाइसेंस जारी किए गए. इस बार अफीम देने वाले काश्तकारों के लगभग बराबर डोडा यानी सीपीएस की खेती करने वाले किसानों को लाइसेंस दिए गए हैं.

विभाग दूसरे प्रकार के लाइसेंस यानी सीपीएस को बढ़ावा दे रहा है. विभाग का मानना है कि इससे न केवल किसानों को लाभ होगा, बल्कि अफीम और उससे बनने वाले उत्पादों की तस्करी पर भी लगाम लगेगी. सबसे बड़ा फायदा विभाग को होगा. क्योंकि, अफीम से एल्केलाइड निकालने का खर्च बचेगा.

इसे भी पढ़े-अपने ही खेत की फसल काटने के लिए डीएम कार्यलय का चक्कर काट रहा बुजुर्ग

दरअसल, पोस्ता के पौधे में निकले फल से निकलने वाला दूध जब जमकर पेस्ट बन जाता है तो उसे अफीम (opium) कहते हैं. अभी तक अफीम में कुछ रसायन मिलाकर उससे परंपरागत ढंग से एल्केलाइड्स (alkaloids) निकाले जाते हैं. इनसे जीवन रक्षक दवाइयां (life saving drugs) बनाई जाती हैं. अब नई तकनीक के आ जाने से सीधे तौर पर डोडा यानी पॉपीस्ट्रा (poppy straw) से एल्केलाइड्स निकाल लिए जाएंगे. इसके लिए अफीम की आवश्यकता नहीं होगी.

विभागीय अधिकारियों का कहना है कि इस नई सीपीएस की खेती से अफीम या उससे जुड़े उत्पादों जैसे हेरोइन (heroine), मार्फीन (morphine) और निकोटीन (nicotine) की तस्करी (smuggling) रुकेगी. साथ ही ये किसानों के लिए भी आसान होगा. उन्हें अफीम की रखवाली का जोखिम भी नहीं उठाना होगा. अधिकारियों का कहना है कि नई तकनीक के जरिए डोडा से एल्केलाइड्स निकालने में आसानी के साथ खर्च भी कम आएगा. इससे जीवन रक्षक दवाइयां सस्ती होंगी.

सूबे के केवल 9 जिलों में होती है अफीम की खेती

पोस्ता की खेती के लिए सूबे में 9 जिले प्रमुख हैं. इनमें पश्चिम के तीन जिलों के लाइसेंस बरेली यूनिट से जारी किए जाते हैं. जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के 6 जिलों के लिए लाइसेंस बाराबंकी यूनिट से जारी होते हैं. उत्तर प्रदेश के 9 जिलों बरेली, बंदायू, शाहजहांपुर, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, रायबरेली, मऊ और गाजीपुर में ही पोस्ता की खेती की जाती है. इसमें बदायूं, बरेली और शाहजहांपुर जिलों के किसानों को बरेली यूनिट लाइसेंस जारी करती है. जबकि, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, रायबरेली, मऊ और गाजीपुर जिलों के किसानों को बाराबंकी कार्यालय लाइसेंस जारी करता है.

पिछले वर्ष का आंकड़ा

  • लाइसेंस के लिए योग्य किसान - 2333
  • लाइसेंस नहीं लेने वाले किसान - 1334
  • अफीम देने वाले किसान - 297
  • डोडा (CPS) वाले किसान - 142
  • फसल नष्ट कराने वाले किसान - 523
  • फसल न बोने वाले किसान - 37

इस वर्ष का आंकड़ा

  • 610 गांव के किसान बुलाए गए थे
  • 495 गांव के किसान लाइसेंस लेने आए
  • 2293 किसानों ने लिया लाइसेंस
  • 1191 किसानों को सीपीएस का लाइसेंस

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