बलिया: बदलते वैश्विक परिवेश में लोगों के खानपान में जहां आधुनिकता के साथ पश्चिमी व्यंजनों का क्रेज बढ़ता जा रहा है तो वहीं बलिया का एक बाजार ऐसा भी है जहां मांस मछली तो दूर अंडे तक की बिक्री नहीं होती. यहां के लोग इसका सेवन भी नहीं करते. ऐसा नहीं कि किसी ने इन चीजों की बिक्री की कोशिश नहीं की, लेकिन उसे कहीं न कहीं व्यक्तिगत और आर्थिक रूप से क्षति ही उठानी पड़ी.
लक्ष्मण के पुत्र चित्रकेतु ने की थी स्थापना
जिले का चितबड़ा गांव मुख्यालय से महज 25 किलोमीटर दूर तमसा नदी के किनारे स्थित है. इस कस्बे की स्थापना लक्ष्मण के पुत्र चित्रकेतु द्वारा की गई थी. प्राचीन काल से ही यह स्थान साधु-संतों और ऋषि-मुनियों के लिए जाना जाता रहा है. यहां पर करीब 300 वर्ष पहले परम सिद्ध संत गुलाल साहब आए और लोगों को सनातन धर्म के प्रति जागरूक किया था. इसके बाद सन 1714 ई. में गुलाल साहब के ममेरे भाई हरलाल साहब को अपना शिष्य बनाकर चितबड़ा गांव में सतनामी परंपरा की शुरुआत कराई जो आज भी राम शाला के रूप में यहां विद्यमान है.
मुगलों ने किया था सतनामियों का कत्ल
जानकारों के अनुसार, 1723 ई. में मुगलों ने सतनामियों का कत्ल करने की योजना बनाया और हरलाल साहब का भी कत्ल कर दिया. मुगलों ने उनके सिर को धड़ से अलग कर दिया तब से आज तक उनकी समाधि इसी राम शाला में दो हिस्सों में बनाई गई है. इस्लाम शाला में अब तक कुल 10 महंत हुए हैं. यह सभी लोग पीढ़ी -दर- पीढ़ी यहां की गद्दी पर बैठे और इनके प्राण त्यागने के बाद सभी की समाधि यही एक ही परिसर में बनाई गई.
रामशाला में देते थे सनातन उपदेश
रामशाला में गुलाल साहेब का चबूतरा भी बना है, जहां बैठकर वह लोगों को सनातन का उपदेश देते थे. लोग उनके उपदेशों को सुनकर अपने जीवन में उतारने का कार्य करते रहे हैं. राम शाला परिसर में प्राचीन तालाब भी है, जिसे साधु-संतों ने ही निर्माण कराया था. ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति खाज खुजली रोग से पीड़ित है वह प्रत्येक मंगलवार और रविवार को इस कुंड में स्नान करे तो वह बीमारी से मुक्त हो जाएगा. राम शाला के उत्तराधिकारी हरिनारायण सिंह ने बताया कि लोग मांस-मदिरा का सेवन कर रहे थे और अपराध भी बढ़ रहा था. साथ ही गरीबी भी बढ़ रही थी, जिसके बाद लोगों को संत महात्माओं ने यहां आकर लोगों को उपदेश दिया.
चोरी से भी कोई नहीं खाता मांस-मछली
रामशाला की स्थापना के साथ ही लोगों को इन चीजों के सेवन से बचने की बात कही गई थी. तब से लेकर आज तक चितबड़ा गांव के बाजार में मांस-मदिरा की कोई भी दुकान नहीं है. लोग चोरी-छिपे इसका सेवन करते हैं तो उसकी खुद की व्यक्तिगत क्षति होती है.
इस गांव में मांस न खाने की परंपरा 100 साल पुरानी है
अयोध्या से पहुंचे संत राम दयाल दास ने बताया कि यहां की परंपरा 100 साल पुरानी है. हरलाल साहेब और गुलाल साहेब परम संत और तपस्वी थे. लोगों को इन संतों ने समझाया इनके प्रभाव से लोग प्रभावित हुए और लोगों ने उनके आदेशों को मानते हुए यहां पर शाकाहारी जीवन जीने का निश्चय किया था. यह परंपरा सालों से चली आ रही है. रामशाला में संतों के समाधि में प्रतिदिन आरती एवं पूजा-अर्चना की जाती है. लोग दूर-दूर से आकर अपनी मन्नत भी मांगते हैं. श्रद्धालु नंद जी ने बताया कि इसे गुलाल गढ़ी के नाम से लोग जानते हैं.
लोग चबूतरे की आकर करते हैं पूजा
लाल साहब बाबा की चबूतरे पर प्रतिदिन लोग आकर पूजा करते हैं. सिर्फ बलिया ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों से भी लोग आकर यहां पूजा करते हैं. साधु-संतों ने यहां के लोगों को समझाया था कि मांस मदिरा के सेवन और बिक्री से बचें तभी सभी धर्मों का भला होगा और लोगों ने ऐसा ही करना उचित समझा.
चितबड़ागांव के व्यापारी असगर अली ने बताया कि यह बरसों पुरानी परंपरा है. करीब 250 साल पहले से चितबड़ा गांव में मांस मछली नहीं बिकता है. यहां हिंदू और मुस्लिम दोनों में प्रेम और एकता है. इसलिए हिंदू इन चीजों से एतराज करता है तो मुस्लिम समुदाय भी उनका साथ देते हैं. यहां पर मीट-मांस, मछली और अंडा न बिकता है और न कभी बिकेगा.
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