बलिया: 1857 की क्रांति की आग ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव को हिला दिया था. इसके बाद क्रांतिकारियों ने लगातार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ आंदोलन किया. 1942 में बम्बई में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की, तो पूरे देश में लोगों का आक्रोश उबल पड़ा. जगह-जगह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों ने प्रदर्शन किया. पुलिस चौकी, थाने, रेलवे स्टेशन, डाकघर और सरकारी कार्यालयों को आग लगा दी गई. यह आग बलिया तक पहुंच चुकी थी. 19 अगस्त 1942 को बलिया में क्रांतिकारियों के विद्रोह के आगे अंग्रेजी हुकूमत ने घुटने टेक दिए थे.
इस दिन बलिया के तत्कालीन जिलाधिकारी ने जेल में बंद चित्तू पांडे और उनके सहयोगियों को जेल से रिहा किया. इसके बाद क्रांतिकारियों ने बलिया एक राष्ट्र घोषित किया और अंग्रेजी हुकूमत के समानांतर एक सरकार भी बनाई. हालांकि महज 3 दिन बाद अंग्रेजी हुकूमत ने एक बार फिर बलिया पर अपना आधिपत्य कर लिया और बलिया फिर पराधीन हो गया. बताया जाता है कि मुंबई में महात्मा गांधी के करो या मरो के आह्वान के बाद संपूर्ण देश में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया. चारों तरफ थानों पर तिरंगे फहराए जाने लगे. बलिया ने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. अंग्रेजी हुकूमत ने अनेकों विद्रोहियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, जिनमें चित्तू पांडे, राधामोहन सिंह, महानंद मिश्रा, विश्वनाथ चौबे समेत अनेक लोग जेल में बंद हो गए.
हजारों की संख्या में लोग 19 अगस्त को बलिया जिला कारागार के सामने जुट गए. लोगों ने अपने हाथों में कुदाल, फावड़ा, मेटा, मुसल, हल लेकर जेल की दीवारों को तोड़ने की कोशिश शुरू कर दिया. हजारों लोग अपने नेता चित्तू पांडे और उनके साथियों की रिहाई की मांग करने लगे. हालात बेकाबू होता देख तत्कालीन जिलाधिकारी जे निगम और पुलिस अधीक्षक रियाजुद्दीन ने मोर्चा संभाला. उनके लाख समझाने के बावजूद भी लोग प्रदर्शन करने को उतारू हो गए. देखते ही देखते लोगों ने रसड़ा, रतसर, चितबड़ागांव, नगरा, बलिया, बैरिया, दुबहर आदि इलाकों में उपद्रव शुरू कर दिया. थानों पर तोड़फोड़ और आगजनी की गई. रेल की पटरियां तक उखाड़ दी गईं.
डीएम और एसपी ने खोला था जेल का फाटक
डीएम और एसपी खुद को बेबस महसूस करने लगे और अंत में जेल में पहुंचकर चित्तू पांडे, राधा मोहन सिंह, विश्वनाथ चौबे, महानंद मिश्रा सहित अनेक लोगों को जेल का फाटक खोलकर रिहा किया. इसके बाद लोगों ने जिलाधिकारी कार्यालय सहित तमाम सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा फहरा दिया. चित्तू पांडे के नेतृत्व में लोगों ने टाउन हॉल बापू भवन पहुंचकर एक सभा की. सभी ने मिलकर बलिया को राष्ट्र घोषित किया और अंग्रेजी हुकूमत के समानांतर एक सरकार की शुरुआत की.
19 अगस्त को मनाया जाता है बलिया बलिदान दिवस
चित्तू पांडे के प्रपौत्र विनय पांडे ने बताया कि यह सारी बातें उन्हें अपने पिता से सुनने को मिलीं. आज भी प्रत्येक 19 अगस्त को बलिया बलिदान दिवस के रूप में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, जिसमें जिला प्रशासन जेल का फाटक खोलता है. वहां से लोगों का एक हुजूम शहर के विभिन्न चौराहों पर स्थापित क्रांतिकारियों के मूर्तियों को माल्यार्पण करता हुआ टाउन हॉल पहुंचता है. जहां एक सभा का आयोजन होता है. उन्होंने बताया कि चित्तू पांडे के लिए कलेक्टर शब्द प्रयोग ही नहीं है. उस समय बलिया एक राष्ट्र था और वह राष्ट्राध्यक्ष हुए थे. बलिया एक स्वतंत्र राष्ट्र हुआ और अंग्रेजी हुकूमत के समानांतर एक सरकार बनाई गई, लेकिन 22 अगस्त को फिर से अंग्रेजी हुकूमत ने बलिया पर कब्जा कर लिया.
इतिहास के जानकार डॉ. जनार्दन राय ने बताया कि चित्तू पांडे की रहनुमाई में बलिया में लोकतंत्र स्थापित हुआ. बलिया में शासन और शासक दोनों देश के लोगों के हाथ में थी. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उस दौरान कहा था कि बलिया एक शहर नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में देखा जाता है. इस प्रकार बलिया एक देश बनकर आजाद हुआ.
बलिया, सतारा और मेदनीपुर हुए थे आजाद
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बागी बलिया ही नहीं, बल्कि सातारा और मेदनीपुर भी आजादी से पहले आजाद हो गए थे. डॉ. जनार्दन राय ने बताया कि जेल से रिहा होने के बाद कलेक्टर की कुर्सी पर चित्तू पांडे को बैठाया गया. कप्तान रियाजुद्दीन की कुर्सी को महानंद मिश्रा को सौंपी गई. इन दोनों के देखरेख में जिला चलने लगा, लेकिन 3 दिन के बाद ही फिर फिरंगियों ने एक बार फिर बलिया पर कब्जा कर लिया. इसी के साथ बलिया रिकॉल की घोषणा हुई, लेकिन देश के क्रांतिकारी ने लगातार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे. अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटिश हुकूमत से स्वतंत्र हुआ.