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बहराइच: थारू जनजाति की विलुप्त होती पारम्परिक कला और सांस्कृतिक विरासत

उत्तर प्रदेश के बहराइच में रहने वाले थारू जनजाति के लोगों की पारंपरिक कला और सांस्कृतिक विरासत अब खत्म होने की कागार पर है. एक वक्त ऐसा था जब राष्ट्रीय स्तर पर युवा महोत्सव में थारू जनजाति की मंडली नृत्य और संगीत की प्रस्तुति देती थी, लेकिन अब ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेने लोग नहीं जाते.

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Published : Jun 23, 2020, 11:01 PM IST

tharu tribe
थारू जनजाति की महिलाएं.

बहराइच: जिले में आधुनिकता की दौड़ में थारू जनजाति की कला और सांस्कृतिक विरासत विलुप्त होने की कगार पर है. अपनी कला, संस्कृति और विशेष पहनावे के लिए जानी जाने वाली थारू जनजाति प्रगति के पथ पर अपनी पहचान खोती जा रही है. इस दिशा में सरकारी स्तर पर भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. थारू समाज में महिलाओं को विशिष्ट दर्जा प्राप्त है. थारू समाज महिला प्रधान समाज है, जहां महिलाएं धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ अन्य घरेलू कामकाज और परिवार को संभालती हैं. पितृ वंशीय समाज होने के बावजूद भी महिलाओं का संपत्ति पर अधिकार अन्य समाजों से अधिक है.

थारू जनजाति के लोगों में समय के साथ आया परिवर्तन.

थारु शब्द की उत्पत्ति ठहरे, तरहुवा, ठिठरवा और अठवारु शब्दों से हुई है. थारु जनजाति की कुछ वंशागत उपाधियां हैं. ये उपाधियां राणा, कथरिया और चौधरी हैं. बहराइच में चौधरी और राणा सरनेम वाले थारू जनजाति के लोग मिलते हैं और ये खुद को सिसोदिया वंश के राजपूत कहते हैं. हालांकि इनका एक तबका खुद को शाक्य वंश का मानता है.

इन क्षेत्रों में रहते हैं थारू जनजाति के लोग
बहराइच के मिहींपुरवा विकासखंड में 11 थारू जनजाति बहुल्य गांव हैं. यहां 2011 की जनगणना के अनुसार करीब 11 हजार लोग रहते हैं. ये गांव विशुनापुर, वर्दिया, फकीरपुरी, रमवापुर, रमपुरवा मटेही, लोहरा, भैसाही, धर्मापुर जैलिहा, हरैया, कोली मटेही और लौकाही हैं. इसके अलावा थारू जनजाति के लोग हिमालय की तलहटी और शिवालिक क्षेत्र नैनीताल, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर और नेपाल में रहते हैं.

अधिकतर लोग शाकाहारी
उत्तर प्रदेश सरकार ने 1961 में थारू समाज के लोगों को जनजाति का दर्जा दिया था. थारू जनजाति के लोग मूलतः खेती पशुपालन और वनोउपज जैसे कार्य करते हैं. बहराइच के कतरनिया घाट संरक्षित वन्यजीव प्रभाग के संरक्षित क्षेत्र घोषित किए जाने के बाद यहां की जनजातियां खेती और पशुपालन पर निर्भर है. यहां की थारू जनजाति में धर्म गुरुओं का बड़ा ही महत्व है. इस कारण अधिकतर लोग शाकाहारी हैं.

समय के साथ बदला पहनावा
थारू जनजाति की महिलाएं घाघरा और चोली पहनती थीं. घाघरा और चोली पर विभिन्न तरह की कढ़ाई की जाती थी. पुरुष वर्ग धोती और कुर्ता पहनता था, लेकिन अब वह पहनावा विशेष आयोजनों तक सिमट कर रह गया है. पुरुष वर्ग जहां जींस, ट्राउजर, शर्ट और टी शर्ट पहन रहा है, वहीं महिलाएं और लड़कियां सलवार सूट और साड़ी-ब्लाउज पहनती हैं.

थारू जनजाति में परंपरा और संस्कृति काफी अलग
थारू जनजाति में नृत्य और संगीत का विशेष महत्व था. उनके ढोल, मृदंग, हारमोनियम और विभिन्न तरह के वाद्यय यंत्रों की जगह अब डीजे और फिल्मी गीतों ने ले ली है. थारू जनजाति के आवास अपनी एक अलग पहचान रखते थे. इन घरों पर वन्यजीवों और भगवान की आकृतियां बनी होती थीं, लेकिन अब ऐसे इक्का-दुक्का मकान ही देखने को मिलते हैं. थारु जनजातियों की वैवाहिक रस्मों में भी बदलाव आया है. बताया जाता है कि पहले अधिकतर कबीलाई संस्कृति से वैवाहिक रस्में होती थी, जिसमें दुल्हन को उठाकर ले जाने की परंपरा थी. अब इसमें बदलाव आया है और हिंदू रीति-रिवाज से वैवाहिक रस्में निभाई जाती हैं.

पढ़ें: बलरामपुर: थारू जनजाति के छात्रों के लिए वरदान साबित हो रही ये आईटीआई

सामाजिक कार्यकर्ता ने साझा किया अपना अनुभव
थारू जनजातियों पर 15 सालों से कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. जितेन्द्र चतुर्वेदी का कहना है कि थारू जनजाति की कला संस्कृति में व्यापक परिवर्तन हुए हैं. उनका कहना है कि थारू जनजाति की कला और संस्कृति विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है. उनका कहना है कि विकास के पथ पर अग्रसर होने के कारण ही थारू जनजाति के लोगों ने अपनी वेशभूषा त्यागी. वे अब अपनी भाषा भी नहीं बोलना चाहते. उन्होंने कहा कि उनका प्रयास है कि थारू जनजाति की विलुप्त हो रही पारंपरिक कला, संस्कृति, नृत्य और संगीत को बचाने की दिशा में कार्य किया जाए. उनके संगीत के परम्परागत वाद्यय यंत्र उनके घरों के कूड़े के ढेर में मिलते है. वे बताते हैं कि कई साल पहले राष्ट्रीय स्तर पर युवा महोत्सव में थारू जनजाति की मंडली नृत्य और संगीत की प्रस्तुति देती थी, लेकिन अब ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेने लोग नहीं जाते.

बहराइच: जिले में आधुनिकता की दौड़ में थारू जनजाति की कला और सांस्कृतिक विरासत विलुप्त होने की कगार पर है. अपनी कला, संस्कृति और विशेष पहनावे के लिए जानी जाने वाली थारू जनजाति प्रगति के पथ पर अपनी पहचान खोती जा रही है. इस दिशा में सरकारी स्तर पर भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. थारू समाज में महिलाओं को विशिष्ट दर्जा प्राप्त है. थारू समाज महिला प्रधान समाज है, जहां महिलाएं धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ अन्य घरेलू कामकाज और परिवार को संभालती हैं. पितृ वंशीय समाज होने के बावजूद भी महिलाओं का संपत्ति पर अधिकार अन्य समाजों से अधिक है.

थारू जनजाति के लोगों में समय के साथ आया परिवर्तन.

थारु शब्द की उत्पत्ति ठहरे, तरहुवा, ठिठरवा और अठवारु शब्दों से हुई है. थारु जनजाति की कुछ वंशागत उपाधियां हैं. ये उपाधियां राणा, कथरिया और चौधरी हैं. बहराइच में चौधरी और राणा सरनेम वाले थारू जनजाति के लोग मिलते हैं और ये खुद को सिसोदिया वंश के राजपूत कहते हैं. हालांकि इनका एक तबका खुद को शाक्य वंश का मानता है.

इन क्षेत्रों में रहते हैं थारू जनजाति के लोग
बहराइच के मिहींपुरवा विकासखंड में 11 थारू जनजाति बहुल्य गांव हैं. यहां 2011 की जनगणना के अनुसार करीब 11 हजार लोग रहते हैं. ये गांव विशुनापुर, वर्दिया, फकीरपुरी, रमवापुर, रमपुरवा मटेही, लोहरा, भैसाही, धर्मापुर जैलिहा, हरैया, कोली मटेही और लौकाही हैं. इसके अलावा थारू जनजाति के लोग हिमालय की तलहटी और शिवालिक क्षेत्र नैनीताल, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर और नेपाल में रहते हैं.

अधिकतर लोग शाकाहारी
उत्तर प्रदेश सरकार ने 1961 में थारू समाज के लोगों को जनजाति का दर्जा दिया था. थारू जनजाति के लोग मूलतः खेती पशुपालन और वनोउपज जैसे कार्य करते हैं. बहराइच के कतरनिया घाट संरक्षित वन्यजीव प्रभाग के संरक्षित क्षेत्र घोषित किए जाने के बाद यहां की जनजातियां खेती और पशुपालन पर निर्भर है. यहां की थारू जनजाति में धर्म गुरुओं का बड़ा ही महत्व है. इस कारण अधिकतर लोग शाकाहारी हैं.

समय के साथ बदला पहनावा
थारू जनजाति की महिलाएं घाघरा और चोली पहनती थीं. घाघरा और चोली पर विभिन्न तरह की कढ़ाई की जाती थी. पुरुष वर्ग धोती और कुर्ता पहनता था, लेकिन अब वह पहनावा विशेष आयोजनों तक सिमट कर रह गया है. पुरुष वर्ग जहां जींस, ट्राउजर, शर्ट और टी शर्ट पहन रहा है, वहीं महिलाएं और लड़कियां सलवार सूट और साड़ी-ब्लाउज पहनती हैं.

थारू जनजाति में परंपरा और संस्कृति काफी अलग
थारू जनजाति में नृत्य और संगीत का विशेष महत्व था. उनके ढोल, मृदंग, हारमोनियम और विभिन्न तरह के वाद्यय यंत्रों की जगह अब डीजे और फिल्मी गीतों ने ले ली है. थारू जनजाति के आवास अपनी एक अलग पहचान रखते थे. इन घरों पर वन्यजीवों और भगवान की आकृतियां बनी होती थीं, लेकिन अब ऐसे इक्का-दुक्का मकान ही देखने को मिलते हैं. थारु जनजातियों की वैवाहिक रस्मों में भी बदलाव आया है. बताया जाता है कि पहले अधिकतर कबीलाई संस्कृति से वैवाहिक रस्में होती थी, जिसमें दुल्हन को उठाकर ले जाने की परंपरा थी. अब इसमें बदलाव आया है और हिंदू रीति-रिवाज से वैवाहिक रस्में निभाई जाती हैं.

पढ़ें: बलरामपुर: थारू जनजाति के छात्रों के लिए वरदान साबित हो रही ये आईटीआई

सामाजिक कार्यकर्ता ने साझा किया अपना अनुभव
थारू जनजातियों पर 15 सालों से कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. जितेन्द्र चतुर्वेदी का कहना है कि थारू जनजाति की कला संस्कृति में व्यापक परिवर्तन हुए हैं. उनका कहना है कि थारू जनजाति की कला और संस्कृति विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है. उनका कहना है कि विकास के पथ पर अग्रसर होने के कारण ही थारू जनजाति के लोगों ने अपनी वेशभूषा त्यागी. वे अब अपनी भाषा भी नहीं बोलना चाहते. उन्होंने कहा कि उनका प्रयास है कि थारू जनजाति की विलुप्त हो रही पारंपरिक कला, संस्कृति, नृत्य और संगीत को बचाने की दिशा में कार्य किया जाए. उनके संगीत के परम्परागत वाद्यय यंत्र उनके घरों के कूड़े के ढेर में मिलते है. वे बताते हैं कि कई साल पहले राष्ट्रीय स्तर पर युवा महोत्सव में थारू जनजाति की मंडली नृत्य और संगीत की प्रस्तुति देती थी, लेकिन अब ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेने लोग नहीं जाते.

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