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इस शिवलिंग को बाहों में भर लेने से पूर्ण होती है मनोकामना, जानिए इसका महत्व - मोटेश्वर महादेव का इतिहास

आगरा जिले में भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर स्थापित है, जहां शिवलिंग को बाहों में भरने से मनोकामना पूर्ण हो जाती है. मान्यता है कि मोटेश्वर महादेव (Moteshwar Mahadev) (मोटा शिवलिंग) की स्थापना सतयुग में भगवान कार्तिकेय ने की थी.

मोटेश्वर महादेव
मोटेश्वर महादेव
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Published : Sep 20, 2021, 10:49 AM IST

आगरा: जिले में भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर स्थापित है, जहां शिवलिंग को बाहों में भरने से मनोकामना पूर्ण हो जाती है. मान्यता है कि मोटेश्वर महादेव (Moteshwar Mahadev) (मोटा शिवलिंग) की स्थापना सतयुग में भगवान कार्तिकेय ने की थी. मंदिर में दर्शन करने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं. यह मंदिर सिकंदरा स्थित प्रशिद्ध कैलाश मंदिर से करीब 3 किलोमीटर अंदर घने जंगलों में स्थापित है.

इस मंदिर के बारे में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. ईटीवी भारत की टीम मोटेश्वर महादेव मंदिर के इतिहास को जानने पहुंची. कैलाश मंदिर के दक्षिण में घने जंगलों में विराजमान मोटेश्वर महादेव (मोटा महादेव) का रास्ता बेहद डरावना था. उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए ईटीवी भारत की टीम मोटेश्वर महादेव मंदिर तक पहुंची. यहां एक छोटी सी कुटिया में लाल पत्थर का एक विशाल शिवलिंग नजर आया. महंत महाकाल भारती से मंदिर की पौराणिक कथाओं के बारे में जाना. महाकाल भारती ने बताया कि मोटेश्वर महादेव की स्थापना सतयुग में भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने की थी. वे इस जगह तपस्या करने आए थे. वे अपने पिता शिव के परम भक्त थे. यह मंदिर अपने में अलौकिक है. शहर से दूर जंगलों में भगवान शिव विराजमान हैं. उनके भक्त दूर-दूर से यहां आते हैं.

मोटेश्वर महादेव का महत्व.

महंत महाकाल भारती ने भगवान मोटेश्वर महादेव की एक अद्भुत विशेषता भी बताई. उनका कहना था कि मोटेश्वर महादेव के शिवलिंग के आकार की कोई गणना नहीं है. लोग इन्हें अपनी ज्येठ (बाहों) में भरते हैं, जिससे उनकी मनोकामना पूर्ण हो सके, लेकिन मोटेश्वर महादेव की अनुमति के अनुसार शिवलिंग उन्हीं ज्येठ (बाहों) में पूर समाता है, जिनसे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं. वहीं, जिसकी पूजा भगवान को मंजूर नहीं होती मोटेश्वर शिवलिंग उनकी बाहों में नहीं समाता है.

महंत महाकाल भारती के अनुसार, सतयुग में मोटेश्वर महादेव मंदिर के पास से बहने वाली यमुना भगवान शिव के शिवलिंग को स्पर्श कर गुजरती थी, लेकिन समय के अनुसार कालिंदी विलुप्त होती जा रही है. यमुना के किनारे सतयुग में भगवान कार्तिकेय ने अपने हाथों से भगवान शिव के शिवलिंग का निर्माण किया था, जिसके निराकार आकार के अनुसार मोटेश्वर नाम दिया गया. बताया जाता है कि कार्तिकेय के बाद पांडव इस पवित्र स्थल पर आए थे. महाभारत के युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण ने पांडवों को किसी ऐसी नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी थी, जहां का बहाव उत्तरायण (घुमावदार) हो. आज भी मोटेश्वर महादेव के करीब से बहने वाली यमुना उत्तरायण (घुमावदार) अर्थात अपनी दिशा को छोड़कर पुनः घूम कर आगे की ओर बढ़ती है, जो अपने में एक चमत्कार है.

इसे भी पढ़ें: शारदीय नवरात्रि, विजयादशमी और चेहल्लुम पर एडवाइजरी जारी...अब अधिकतम 100 लोग शादियों में हो सकेंगे शामिल

1978 में था स्वामी बाग गांव

इन घने जंगलों के बीच 1978 में एक गांव बसा करता था, जिसका नाम स्वामी गांव था. नाहर सिंह निषाद बताते हैं कि वह इसी गांव के निवासी थे, वर्ष 1978 में आगरा में बाढ़ आई थी. इसके कारण यमुना का जलस्तर इतना बढ़ गया था कि लोगों को गांव छोड़ना पड़ा. हमारे पूर्वज मोटेश्वर महादेव की पूजा किया करते थे, लेकिन 1978 में जब गांव छोड़ना पड़ा तो यह पवित्र स्थल वीरान हो गया. आज तक यहां पक्की सड़क नहीं बन सकी है. श्रद्धालु दूर-दूर से यहां मोटेश्वर महादेव के दर्शन करने आते हैं. रास्ता इतना खराब ओर डरावना है कि शाम ढलने के बाद अकेले महंत महाकाल भारती के अलावा यहां कोई नहीं रहता. कई बार जंगली जानवर मंदिर के आस-पास देखे गए हैं.

आगरा: जिले में भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर स्थापित है, जहां शिवलिंग को बाहों में भरने से मनोकामना पूर्ण हो जाती है. मान्यता है कि मोटेश्वर महादेव (Moteshwar Mahadev) (मोटा शिवलिंग) की स्थापना सतयुग में भगवान कार्तिकेय ने की थी. मंदिर में दर्शन करने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं. यह मंदिर सिकंदरा स्थित प्रशिद्ध कैलाश मंदिर से करीब 3 किलोमीटर अंदर घने जंगलों में स्थापित है.

इस मंदिर के बारे में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. ईटीवी भारत की टीम मोटेश्वर महादेव मंदिर के इतिहास को जानने पहुंची. कैलाश मंदिर के दक्षिण में घने जंगलों में विराजमान मोटेश्वर महादेव (मोटा महादेव) का रास्ता बेहद डरावना था. उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए ईटीवी भारत की टीम मोटेश्वर महादेव मंदिर तक पहुंची. यहां एक छोटी सी कुटिया में लाल पत्थर का एक विशाल शिवलिंग नजर आया. महंत महाकाल भारती से मंदिर की पौराणिक कथाओं के बारे में जाना. महाकाल भारती ने बताया कि मोटेश्वर महादेव की स्थापना सतयुग में भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने की थी. वे इस जगह तपस्या करने आए थे. वे अपने पिता शिव के परम भक्त थे. यह मंदिर अपने में अलौकिक है. शहर से दूर जंगलों में भगवान शिव विराजमान हैं. उनके भक्त दूर-दूर से यहां आते हैं.

मोटेश्वर महादेव का महत्व.

महंत महाकाल भारती ने भगवान मोटेश्वर महादेव की एक अद्भुत विशेषता भी बताई. उनका कहना था कि मोटेश्वर महादेव के शिवलिंग के आकार की कोई गणना नहीं है. लोग इन्हें अपनी ज्येठ (बाहों) में भरते हैं, जिससे उनकी मनोकामना पूर्ण हो सके, लेकिन मोटेश्वर महादेव की अनुमति के अनुसार शिवलिंग उन्हीं ज्येठ (बाहों) में पूर समाता है, जिनसे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं. वहीं, जिसकी पूजा भगवान को मंजूर नहीं होती मोटेश्वर शिवलिंग उनकी बाहों में नहीं समाता है.

महंत महाकाल भारती के अनुसार, सतयुग में मोटेश्वर महादेव मंदिर के पास से बहने वाली यमुना भगवान शिव के शिवलिंग को स्पर्श कर गुजरती थी, लेकिन समय के अनुसार कालिंदी विलुप्त होती जा रही है. यमुना के किनारे सतयुग में भगवान कार्तिकेय ने अपने हाथों से भगवान शिव के शिवलिंग का निर्माण किया था, जिसके निराकार आकार के अनुसार मोटेश्वर नाम दिया गया. बताया जाता है कि कार्तिकेय के बाद पांडव इस पवित्र स्थल पर आए थे. महाभारत के युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण ने पांडवों को किसी ऐसी नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी थी, जहां का बहाव उत्तरायण (घुमावदार) हो. आज भी मोटेश्वर महादेव के करीब से बहने वाली यमुना उत्तरायण (घुमावदार) अर्थात अपनी दिशा को छोड़कर पुनः घूम कर आगे की ओर बढ़ती है, जो अपने में एक चमत्कार है.

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1978 में था स्वामी बाग गांव

इन घने जंगलों के बीच 1978 में एक गांव बसा करता था, जिसका नाम स्वामी गांव था. नाहर सिंह निषाद बताते हैं कि वह इसी गांव के निवासी थे, वर्ष 1978 में आगरा में बाढ़ आई थी. इसके कारण यमुना का जलस्तर इतना बढ़ गया था कि लोगों को गांव छोड़ना पड़ा. हमारे पूर्वज मोटेश्वर महादेव की पूजा किया करते थे, लेकिन 1978 में जब गांव छोड़ना पड़ा तो यह पवित्र स्थल वीरान हो गया. आज तक यहां पक्की सड़क नहीं बन सकी है. श्रद्धालु दूर-दूर से यहां मोटेश्वर महादेव के दर्शन करने आते हैं. रास्ता इतना खराब ओर डरावना है कि शाम ढलने के बाद अकेले महंत महाकाल भारती के अलावा यहां कोई नहीं रहता. कई बार जंगली जानवर मंदिर के आस-पास देखे गए हैं.

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