वाराणसी : साल 2022 में रिलीज हुई बिग बी अमिताभ बच्चन की फिल्म 'झुंड' ने काफी सुर्खियां बंटोरी थी. फिल्म में अभिनेता मलिन बस्तियों रहने वाले बच्चों को नेशनल फुटबॉल प्लेयर बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं, और उनके जीवन की दिशा बदल देते हैं. कुछ ऐसा ही प्रयास काशी के भैरव दत्त भी कर रहे हैं. एक गांव में बच्चों को जुआ खेलते देख उन्होंने उन्हें नेशनल लेवल का फुटबाल प्लेयर बनाने का फैसला कर लिया. इसके बाद उन्होंने फुटबाल की नर्सरी की शुरुआत की. करीब 15 सालों से वह बच्चियों को फुटबाल खेलना सिखा रहे हैं. उनकी सिखाई कई खिलाड़ी राज्य के साथ नेशनल में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी हैं.
70 से ज्यादा बेटियां बन चुकी हैं फुटबॉलर : 62 वर्षीय भैरव दत्त बनारस लोकोमोटिव वर्कशॉप यानी बनारस रेल इंजन कारखाना से सीनियर ऑफिस सुपरीटेंडेंट पद से रिटायर्ड हैं. वह रेलवे की टीम से फुटबाल खेल चुके हैं. रिटायरमेंट के बावजूद उन्होंने बच्चों को फुटबाल के गुर सिखाने शुरू कर दिए. उनकी फुटबॉल नर्सरी में कई मजदूरों की भी बेटियां हैं. लोकोमोटिव वर्कशॉप के मैदान में शुरू हुई फुटबॉल की नर्सरी में वह ऐसी प्रतिभाओं को तरासते हैं जिन्हें शायद उनके घर वाले भी किसी लायक नहीं मानते थे. फुटबॉल की इस नर्सरी में अब तक 70 से ज्यादा बेटियां नेशनल और स्टेट लेवल की फुटबॉलर बन चुकी हैं. वे अपने-अपने परिवार का नाम रोशन कर रहीं हैं. एक खिलाड़ी का चयन इंडियन फुटबॉल टीम में हुआ है. उसने बनारस से इंटरनेशनल लेवल पर कई मैच भी खेले हैं.
तीन बच्चों से की थी सफर की शुरुआत : फुटबॉल कोच भैरव दत्त लगभग 2 वर्ष पहले रिटायर हो गए थे. उनका फुटबॉल के प्रति बेइंतहा प्यार और नए फुटबॉलरों की टीम तैयार करने का जज्बा आज भी कायम है. वह 15 साल से गांव की पगडंडियों और घरों में कैद लड़कियों को बाहर निकाल कर उन्हें नेशनल फुटबॉलर बना रहे हैं. भैरव दत्त यूपी फुटबॉल टीम में बतौर कोच के अलावा इंडियन रेलवे में सिलेक्टर की भी भूमिका निभा चुके हैं. वह उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. बेहतरीन फुटबॉलर होने के बाद भी उन्हें नेशनल टीम में मौका नहीं मिल पाया. 2012 में उन्होंने खुद का ट्रेनिंग सेंटर बनाने का फैसला लिया. सरकारी नौकरी थी, लेकिन बिना किसी लालच के अपने घर के पास पहाड़ी गांव में उन्होंने खाली पड़ी जमीन पर तीन बच्चों को इकट्ठा कर फुटबॉल सिखाने की शुरुआत की. गांव में इधर-उधर घूमने वाले, जुआ खेलने वाले बच्चे को जोड़ना शुरू कर दिया.
फुटबॉल नर्सरी में 400 बच्चे ले रहे ट्रेनिंग : भैरव दत्त की मेहनत रंग लाई तो कारवां बनता गया. उन्होंने लड़कों की जगह लड़कियों को ट्रेंड करने की ठानी. घर-घर जाकर 5 से 10 साल की बच्चियों को उनके घरों से बाहर निकाला. शुरुआत में बहुत से माता-पिता ने विरोध किया, लेकिन उनको समझा-बुझाकर लड़कियों को फुटबॉल की ट्रेनिंग देने में जुट गए. आज लगभग 400 बच्चे उनके इस ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेनिंग ले रहे हैं. इनमें से 85 लड़कियां अपने परिवार से लड़कर फुटबॉल जैसे खेल में अपना करियर तलाश रहीं हैं. इनकी सिखाई ज्योति इंटरनेशनल लेवल पर अंडर 17 इंडियन फुटबॉल टीम का हिस्सा रह चुकी है. ज्योति अंडर 17 वर्ल्ड कप की तैयारियों में जुटी है. भूटान, मंगोलिया जैसे देशों में खेलकर उसने अपने गुरु का मान बढ़ाया. ज्योति के अलावा बहुत से बच्चे ऐसे हैं, जो लगातार नेशनल लेवल पर खेलकरअपने परिवार की इच्छाओं को पूरा कर रहे हैं.
संघर्षों में बीता भैरव दत्त का बचपन : भैरव दत्त बताते हैं कि 7 साल की उम्र में पिता की मौत के बाद उनकी मां ने उन्हें संघर्षों से पाला. 13 साल की उम्र में होटल में काम करना शुरू किया. इसी दौरान कपड़े से फुटबॉल बनाकर उसे पहाड़ों पर खेलता था. 10 साल तक संतोष ट्रॉफी में हिस्सा लेता रहा. 1980 में डीएलडब्ल्यू में नौकरी मिल गई तो घरवालों की उम्मीदें बढ़ गईं. घर वालों ने सोचा कि सरकारी नौकरी है, अब इसका ध्यान इस फुटबॉल से हट जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नौकरी के दौरान भैरव दत्त को पहले सुब्रतो कप, फिर डूरंड कप में खेलने का मौका मिला, लेकिन नेशनल टीम में मौका नहीं मिल पाया. 1990 में पटियाला से कोचिंग का कोर्स पूरा करने के बाद 5 साल तक उत्तर प्रदेश में कोच रहे. उन्होंने बताया कि इस बीच 2010 में घर बनवाया और पहाड़ी गांव में शिफ्ट हो गया. बस यहीं से शुरू हुआ फुटबॉल की नर्सरी को शुरू करने का का सफर.
इस तरह आया फुटबॉल नर्सरी का आइडिया : भैरव दत्त बताते हैं कि साल 2012 में मकान के बाहर टहलते हुए खाली मैदान में बच्चों को गलत आदतों में लिप्त पाया, तो इनकी जिंदगी बदलने की ठानी. अपने खेल के बल पर इनको उससे जोड़ने की कोशिश शुरू की और धीरे-धीरे बच्चे जुड़ते गए. सैलरी के पैसों से इक्विपमेंट्स खरीदें और 2 साल तक उसकी ईएमआई खुद से चुकाई. भैरव दत्त का कहना है कि जब तक वह तनख्वाह पाते थे, तब तक अपने तनख्वाह के पैसे में से ही 7 हजार प्रति माह इन बच्चों को सीखने के लिए अलग से निकाल कर खर्च करते थे और अब रिटायरमेंट के बाद जो पेंशन मिलती है, उसमें से 5 हजार हर महीने वह बच्चों को आगे बढ़ाने पर खर्च कर रहे हैं. यहां पर सीखने वाला कोई भी बच्चा किसी तरह की कोई फीस नहीं देता है. सबके लिए यहां निशुल्क व्यवस्था है. यही वजह है कि लोकोमोटिव वर्कशॉप के अधिकारियों ने भी ग्राउंड पूरी तरह से भैरव दत्त को दे रखा है, ताकि यहां से प्रतिभाएं निकले और देश विदेश में बनारस का नाम रोशन हो.
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