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लखनऊ की वो लड़ाई जिसमें अंग्रेजों को पहली बार मिली शिकस्त, जानिये पूरी कहानी

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि 29 मार्च 1857 को बंगाल के बैरकपुर में क्रांतिकारी मंगल पांडेय ने पहली गोली चलाई थी. उन्हें आठ अप्रैल 1857 को फांसी हुई. जिसके बाद 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ.

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Published : Jul 16, 2022, 11:19 PM IST

लखनऊ: मेरठ में 163 साल पहले रोज की तरह हिंदुस्तानी फौजी सुबह की परेड में अपने ब्रिटिश अफसर को सैल्यूट कर रहे थे. उतने में ही एक आवाज आती है. ऐसी आवाज जिसको ब्रिटिश सरकार ने वर्षों से नहीं सुना था. ये आवाज थी इंकलाब की. मेरठ में इंकलाब का बिगुल बज चुका था. वहीं लखनऊ के रेजीडेंसी में अंग्रेज अफसर और उनके परिवार की जिंदगी हमेशा की तरह आलीशान तरह से चल रही थी. तभी उनके पास एक ऐसा खत आता है जिसे पढ़कर अंग्रेजों के होश उड़ जाते हैं. यह पत्र मेरठ में मंगल पांडे की क्रांति का बिगुल बजाने की दास्तां बयां कर रहा था. मेरठ के बाद अब बारी थी लखनऊ में क्रांतिकारियों को बहादुरी दिखाने की. 30 जून 1857 को लखनऊ के चिनहट इलाके में स्थित कठौता झील के पास रणबाकुरों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेजी सेना के ऐसे दांत खट्टे किये कि उन्हें बैरंग वापस लौटना पड़ा. ये पहली बार था जब भारतीय क्रांतिकारियों ने फिरंगियों पर जीत दर्ज की थी.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि 29 मार्च 1857 को क्रांतिकारी मंगल पांडेय ने पहली गोली चलाई थी. उन्हें आठ अप्रैल 1857 को बंगाल के बैरकपुर में फांसी हुई. जिसके बाद 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ. 11 मई 1857 को दिल्ली में बहादुर शाह जफर को फिर से भारत का सम्राट घोषित कर अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का आंदोलन शुरू हुआ. लखनऊ में उस समय अंग्रेजों का कब्जा था. हेनरी लॉरेंस लखनऊ में फिरंगियों का चीफ था. इसी दौरान हेनरी लॉरेंस को यह खबर मिली कि कुछ विद्रोही सैनिक हैं वह इकट्ठे हो रहे हैं. वह बाराबंकी से चिनहट की ओर आ रहे हैं और लखनऊ की तरफ बढ़ रहे हैं.

जानकारी देते इतिहासकार रवि भट्ट

हेनरी लॉरेंस ने इनसे निपटने के लिये 700 सिपाहियों की ब्रिटिश फौज भेजी. इसमें कुछ सिख भी थे. हालांकि ऐसा करने से हेनरी को उसके ब्रिगेडियर ने मना किया था. बावजूद इसके हेनरी ने फोर्स को भेज दिया. 30 जून 1857 को चिनहट और इस्माइलगंज गांव के आस-पास दोनों सेनाएं आमने-सामने भिड़ीं. भारतीयों की ओर से फिरंगी सेना से विद्रोह कर चुके बरकत अहमद नेतृत्व कर रहे थे. इसमें क्रांतिकारियों की तरफ से पहली फायरिंग हुई. जिसमें कई फिरंगी जवान मारे गए. इसमें पहली बार भारतीय फौज को जीत मिली. रवि भट्ट बताते हैं कि सबसे मजे की बात उस लड़ाई में यह थी कि जिन 700 सिपाहियों को हेनरी लॉरेंस ने भारतीय क्रांतिकारियों से निपटने के लिए भेजा था वो जैसे ही इस्माइलगंज पहुंचे, उनमें से कुछ सिख फौजी युद्ध के दौरान ही क्रांतिकारियों की तरफ चले गए.

ये भी पढ़ें : भाषा विश्वविद्यालय में प्रवेश की अंतिम तिथि 24 जुलाई, जानिए कैसे करें आवेदन

रवि भट्ट बताते हैं कि चिनहट लड़ाई का ही नतीजा था कि क्रांतिकारियों ने रेजीडेंसी में भी कब्जा किया. वे बताते हैं कि चिनहट की लड़ाई हारने के बाद अब हेनरी को अपना रेजीडेंसी बचना था. इसके लिए उसने ब्रिगेडियर को आदेश दिया कि विद्रोहियों के हमले से डालीगंज पुल को बचाया जाए. अंग्रेजों ने तोपों और बंदूकों के सहारे पुल के पास क्रांतिकारियों को रोकने के लिए तीसरी बार भरपूर प्रयास किया, लेकिन क्रांतिकारियों ने इतनी फुर्ती से हमला किया कि गोमती नदी पार कर गोला-बारुद की बौछार रेजीडेंसी तक पहुंचने लगीं. इसके बाद दो जुलाई को निरीक्षण करने के बाद लॉरेंस अपने कक्ष में लौटा और बिस्तर पर बैठ गया. अचानक एक गोला उसके कमरे पर गिरा. इस हमले में हेनरी की मौत हो गयी थी.

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लखनऊ: मेरठ में 163 साल पहले रोज की तरह हिंदुस्तानी फौजी सुबह की परेड में अपने ब्रिटिश अफसर को सैल्यूट कर रहे थे. उतने में ही एक आवाज आती है. ऐसी आवाज जिसको ब्रिटिश सरकार ने वर्षों से नहीं सुना था. ये आवाज थी इंकलाब की. मेरठ में इंकलाब का बिगुल बज चुका था. वहीं लखनऊ के रेजीडेंसी में अंग्रेज अफसर और उनके परिवार की जिंदगी हमेशा की तरह आलीशान तरह से चल रही थी. तभी उनके पास एक ऐसा खत आता है जिसे पढ़कर अंग्रेजों के होश उड़ जाते हैं. यह पत्र मेरठ में मंगल पांडे की क्रांति का बिगुल बजाने की दास्तां बयां कर रहा था. मेरठ के बाद अब बारी थी लखनऊ में क्रांतिकारियों को बहादुरी दिखाने की. 30 जून 1857 को लखनऊ के चिनहट इलाके में स्थित कठौता झील के पास रणबाकुरों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेजी सेना के ऐसे दांत खट्टे किये कि उन्हें बैरंग वापस लौटना पड़ा. ये पहली बार था जब भारतीय क्रांतिकारियों ने फिरंगियों पर जीत दर्ज की थी.

इतिहासकार रवि भट्ट बताते हैं कि 29 मार्च 1857 को क्रांतिकारी मंगल पांडेय ने पहली गोली चलाई थी. उन्हें आठ अप्रैल 1857 को बंगाल के बैरकपुर में फांसी हुई. जिसके बाद 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ. 11 मई 1857 को दिल्ली में बहादुर शाह जफर को फिर से भारत का सम्राट घोषित कर अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का आंदोलन शुरू हुआ. लखनऊ में उस समय अंग्रेजों का कब्जा था. हेनरी लॉरेंस लखनऊ में फिरंगियों का चीफ था. इसी दौरान हेनरी लॉरेंस को यह खबर मिली कि कुछ विद्रोही सैनिक हैं वह इकट्ठे हो रहे हैं. वह बाराबंकी से चिनहट की ओर आ रहे हैं और लखनऊ की तरफ बढ़ रहे हैं.

जानकारी देते इतिहासकार रवि भट्ट

हेनरी लॉरेंस ने इनसे निपटने के लिये 700 सिपाहियों की ब्रिटिश फौज भेजी. इसमें कुछ सिख भी थे. हालांकि ऐसा करने से हेनरी को उसके ब्रिगेडियर ने मना किया था. बावजूद इसके हेनरी ने फोर्स को भेज दिया. 30 जून 1857 को चिनहट और इस्माइलगंज गांव के आस-पास दोनों सेनाएं आमने-सामने भिड़ीं. भारतीयों की ओर से फिरंगी सेना से विद्रोह कर चुके बरकत अहमद नेतृत्व कर रहे थे. इसमें क्रांतिकारियों की तरफ से पहली फायरिंग हुई. जिसमें कई फिरंगी जवान मारे गए. इसमें पहली बार भारतीय फौज को जीत मिली. रवि भट्ट बताते हैं कि सबसे मजे की बात उस लड़ाई में यह थी कि जिन 700 सिपाहियों को हेनरी लॉरेंस ने भारतीय क्रांतिकारियों से निपटने के लिए भेजा था वो जैसे ही इस्माइलगंज पहुंचे, उनमें से कुछ सिख फौजी युद्ध के दौरान ही क्रांतिकारियों की तरफ चले गए.

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रवि भट्ट बताते हैं कि चिनहट लड़ाई का ही नतीजा था कि क्रांतिकारियों ने रेजीडेंसी में भी कब्जा किया. वे बताते हैं कि चिनहट की लड़ाई हारने के बाद अब हेनरी को अपना रेजीडेंसी बचना था. इसके लिए उसने ब्रिगेडियर को आदेश दिया कि विद्रोहियों के हमले से डालीगंज पुल को बचाया जाए. अंग्रेजों ने तोपों और बंदूकों के सहारे पुल के पास क्रांतिकारियों को रोकने के लिए तीसरी बार भरपूर प्रयास किया, लेकिन क्रांतिकारियों ने इतनी फुर्ती से हमला किया कि गोमती नदी पार कर गोला-बारुद की बौछार रेजीडेंसी तक पहुंचने लगीं. इसके बाद दो जुलाई को निरीक्षण करने के बाद लॉरेंस अपने कक्ष में लौटा और बिस्तर पर बैठ गया. अचानक एक गोला उसके कमरे पर गिरा. इस हमले में हेनरी की मौत हो गयी थी.

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