लखनऊ : पानी का सर्वाधिक 70 से 80 फीसद उपयोग खेती में होता है. कहा भी गया है कि खेती पानी को छोड़ हर चीज की प्रतीक्षा कर सकती है. मसलन फसल को उसकी जरूरत के अनुसार पानी चाहिए ही चाहिए. पानी की इसी अहमियत के नाते कहा गया है, 'का बरसा जब कृषि सुखानी'. चूंकि खेती में पानी की सर्वाधिक जरूरत होती है, लिहाजा इसी क्षेत्र में पानी बचाने की सबसे अधिक गुंजाइश भी है. खासकर अधिक पानी चाहने वाली धान जैसी फसलों की जगह कम पानी और अधिक लाभ वाली फसलों का उत्पादन करके. फसल विविधीकरण इसका सबसे प्रभावी तरीका है. अधिक पानी चाहने वाली फसलों की जगह कम पानी में होने वाली फसलों की प्रतिस्थापना (रीप्लेसमेंट) के जरिए. वहीं कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि हरित क्रांति के पहले 'फसल चक्र' हमारी परंपरा हुआ करती थी.
सरकार इसके लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के फसल विविधीकरण योजना के तहत वर्ष 2014-2015 से प्रमुख धान उत्पादक ग्यारह जिलों को केंद्र में रखकर धान की जगह अपेक्षाकृत कम पानी लेने वाली लाभकारी फसलें लेने के लिए जागरूकता कार्यक्रम चला रही है. पिछले पांच साल में इसके नतीजे भी अच्छे रहे हैं. संबंधित जिलों के 90 हजार हेक्टेयर रकबे में किसानों ने धान की जगह उड़द, मूंग, तिल, बाजरा, मूंगफली, सोयाबीन और सब्जियों की खेती से प्रतिस्थापित (रिप्लेस) किया.
इनमें से अधिकांश फसलें दलहन संवर्ग की हैं. अपने नाइट्रोजन फिक्सेशन गुण के कारण यह भूमि के लिए संजीवनी हैं. साथ ही आम भारतीय के लिए प्रोटीन का स्रोत भी. इस तरह यह जन एवं जमीन दोनों की सेहत के लिए भी मुफीद. उड़द और मूंग जैसी फसलें तो कम समय में हो जाती हैं. इस तरह इनके बाद किसान बाजार की मांग के अनुसार तीसरी फसल भी ले सकते हैं. इसी तरह अपने पौष्टिकता के लिए चमत्कारिक माना जाने वाला बाजरा एक मात्र ऐसी फसल है, जिसका परागण 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी हो जाता है. धान की तुलना में पानी तो इन सभी फसलों में कम लगता है.
हाल के वर्षों में खासकर पिछले तीन दशकों के दौरान मौसम अप्रत्याशित हुआ है. औसत बारिश घटने के साथ बारिश की समयावधि भी घटी है. एक अध्ययन के अनुसार उप्र के बुंदेलखंड क्षेत्र में पिछले 80 वर्ष के दौरान औसत बारिश में करीब 320 मिली मीटर की कमी आई है. विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के जिन आठ देशों में आने वाले वर्षों में कृषि उत्पादन में गिरावट आनी है, उसमें भारत सर्वोपरि है. भारत में यह कमी करीब 29 फीसद की होगी. मैक्सिको में 26, आस्ट्रेलिया में 16, अमेरिका में 8, अर्जेंटीना में 2, दक्षिण पूर्व के देशों में 18 और रूस में 6 फीसद कृषि उत्पादन घटने का अनुमान है. यदि भारत के संदर्भ में देखें तो कई फसलों, फलों और सब्जियों के उत्पादन में अग्रणी होने की वजह से उत्तर प्रदेश पर इसका सबसे अधिक असर पड़ सकता है.
बारिश के घटते औसत, कम समय में अधिक पानी, भूगर्भ जल के स्तर में लगातार कमीं के मद्देजर योगी सरकार के लिए जलसंरक्षण प्राथमिकता भी है. इसके कई योजनाएं चल रहीं हैं. इसमें बहुउद्देशीय तालाब, बुंदेलखंड और विंध्यक्षेत्र को केंद्र में रखकर खेत-तालाब योजना, अमृत सरोवर, अपेक्षाकृत सिंचाई की दक्ष विधाओं ड्रिप एवं स्प्रिंकलर को प्रोत्साहन आदि प्रमुख हैं. नहरों और नलकूपों को इन्हीं विधाओं से जोड़ने की प्रक्रिया प्रस्तावित है. साथ ही इन योजनाओं के प्रति जागरूकता कार्यक्रम भी समय-समय पर चल रहे हैं. मसलन भूगर्भ जल दिवस, भूगर्भ जल सप्ताह, भूगर्भ जल पखवाड़ा आदि. इन योजनाओं एवं जागरूकता कार्यक्रमों के पीछे मकसद यह है कि लोग खासकर बच्चे, संस्थाएं और किसान जल संरक्षण के प्रति जागरूक हों.
कृषि विशेषज्ञ डॉक्टर आनंद त्रिपाठी के अनुसार, हरित क्रांति के पहले 'फसल चक्र' हमारी परंपरा थी. इसके तीन मूलभूत सिद्धांत हैं. अधिक पानी के बाद कम पानी चाहने वाली फसलें. झकड़ादार जड़ों वाली फसलों (गेंहू एवं धान) के बाद मुसलादार जड़ों वाली दलहन की फसलें. अधिक पोषक तत्व चाहने वाली फसलों के बाद कम पोषक तत्व चाहने वाली फसलें. गेंहू-धान पर सारा फोकस होने के कारण फसल चक्र प्रभावित हुआ है. इसका जमीन पर जो दुष्प्रभाव हुआ है, उसे रोकने के लिए परंपरा की ओर लौटना होगा. साथ ही खेत का पानी खेत में रहे इसके लिये साल में एक बार गहरी जोताई और मेड़बंदी भी अनिवार्य रूप से करनी होगी.
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इसी क्रम में पर्यावरण विद् प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता के मुताबिक, फसल जितना कम पानी चाहेगी, उसमें उतना ही अधिक पोषक तत्व होगा. इन फसलों की खूबी के प्रति अभियान चलाकर लोगों को जागरूक करना होगा. साथ ही इनके लिए बाजार भी विकसित करना होगा.
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