ETV Bharat / city

मायावती के लिए आसान नहीं होगा दोबारा अपने वोट बैंक को रिझाने का रास्ता

चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती (Bahujan Samaj Party chief Mayawati) पार्टी के सबसे बुरे दौर से बाहर निकलने को बेताब हैं. नौ अक्टूबर को कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर उन्होंने जिलास्तर पर अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को एकत्र होकर निकाय चुनाव की तैयारी में जुटने का आदेश दिया है.

मायावती
मायावती
author img

By

Published : Oct 8, 2022, 10:59 PM IST

Updated : Nov 4, 2022, 7:33 PM IST

लखनऊ : चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती (Bahujan Samaj Party chief Mayawati) पार्टी के सबसे बुरे दौर से बाहर निकलने को बेताब हैं. नौ अक्टूबर को कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर उन्होंने जिलास्तर पर अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को एकत्र होकर निकाय चुनाव की तैयारी में जुटने का आदेश दिया है. हालांकि जिस तरह से पार्टी कार्यालय और आस-पास के क्षेत्रों की सजावट और रंग-रोगन किया गया है, उससे लगता है कि बसपा नेत्री खोई ताकत पाने के लिए बेताब हैं. यह बात और है कि बसपा दोबारा पुराने रंग में लौट पाए यह आसान बात नहीं है और मायावती के सामने चुनौतियां मुंहबाए खड़ी हैं.


अपने स्थापना काल के बाद बहुजन समाज पार्टी 2007 में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी और पूर्ण बहुमत के साथ मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मायावती के शासनकाल में उनके कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगे. कुछ को लोकायुक्त जांच के बाद जेल की हवा भी खानी पड़ी. इस सब के बावजूद मायावती एक सख्त प्रशासक की छवि लेकर मजबूत मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहीं. यह बात और है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ब्राह्मण-दलित वोट बैंक का कार्ड दोबारा मायावती के काम नहीं आया. 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी और पूर्ण बहुमत के साथ अखिलेश यादव सरकार बनाने में कामयाब हुए. तब माना गया मायावती का फार्मूला लोगों को रास नहीं आया और सूबे की जनता एक युवा नेता को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी जिसकी वजह से अखिलेश यादव सत्ता तक पहुंच सके.


जनता ने जिस तरह 2012 में मायावती को सत्ता से बेदखल किया था ठीक उसी प्रकार 2017 के चुनाव में अखिलेश यादव को नकार दिया. इस बार बारी थी भारतीय जनता पार्टी और योगी आदित्यनाथ की. कट्टर हिंदुत्व की छवि लेकर आए योगी आदित्यनाथ सूबे की सत्ता पर काबिज हुए और अपने एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ाने लगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए कभी चिर प्रतिद्वंदी रहे बसपा और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन का फैसला किया. इस अनोखे गठबंधन से लोगों ने उम्मीद जताई कि जातीय समीकरण ऐसे हैं कि पुराने सारे रिकॉर्ड टूट सकते हैं. हालांकि चुनावी पंडित पिछले तीन चुनावों की तरह इस बार भी जनता का मूड भांपने में पूरी तरह सफल रहे. इस चुनाव में भी भाजपा को भारी बहुमत मिला. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी लोकसभा की 10 सीटें जीतने में कामयाब रही. बावजूद इसके मायावती ने हार का ठीकरा समाजवादी पार्टी के सिर पर फोड़ दिया और गठबंधन तोड़ने का एलान भी कर दिया.


सपा, बसपा गठबंधन टूटने के बाद बसपा पर अवसरवादी राजनीति करने का आरोप लगा. हालांकि यह पहली बार नहीं है. मायावती ने भाजपा के साथ प्रदेश में पहले भी इसी तरह से अवसर वाद की राजनीति की और सत्ता के शिखर तक पहुंचीं. मायावती के इन कदमों से बसपा की छवि धीरे-धीरे कमजोर हुई और उन्हें अवसरवादी राजनीति का प्रतीक समझा जाने लगा. वहीं दूसरी ओर भाजपा की सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं. केंद्र और राज्य की डबल इंजन की सरकार ने मुफ्त राशन योजना, जन धन योजना, किसान सम्मान निधि योजना, मुफ्त शौचालय योजना जैसी न जाने कितनी लोकलुभावन योजनाएं शुरू कीं. इन योजनाओं का लाभ गांव के गरीब गुरबा और कमजोर किसानों को सीधे तौर पर मिला. यही कारण है कि कभी बसपा का वोट बैंक कहे जाने वाले समुदाय पर भाजपा की मजबूत पकड़ बनती गई.

यह भी पढ़ें : सीएम योगी ने कहा, नए राजमार्गों व ग्रीनफील्ड सड़क परियोजनाओं के लिए निःशुल्क शासकीय भूमि देगी राज्य सरकार

इस वक्त बहुजन समाज पार्टी अपनी सबसे कमजोर स्थिति में दिखाई देती है. ऐसे में पार्टी को फिर से खड़ा करने का मायावती के पास क्या फार्मूला होगा कहना कठिन है. सत्ताधारी पार्टी से मुकाबिल बहुजन समाज पार्टी लोगों को क्या प्रलोभन देगी और लोग उसकी बातों में आएंगे भी यह कहना कठिन है. जो भी हो यदि मायावती दोबारा अपने वोट बैंक को रिझाना चाहती हैं तो उन्हें एसी कि आराम छोड़कर सड़कों पर संघर्ष का रास्ता चुनना होगा. हालांकि बहुजन समाज पार्टी लगभग एक दशक से आंदोलन और सड़कों पर संघर्ष का रास्ता भूल सा गई है. ऐसे में बसपा के लिए या रास्ता आसान दिखाई नहीं देता.

लखनऊ : चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती (Bahujan Samaj Party chief Mayawati) पार्टी के सबसे बुरे दौर से बाहर निकलने को बेताब हैं. नौ अक्टूबर को कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर उन्होंने जिलास्तर पर अपने संगठन और कार्यकर्ताओं को एकत्र होकर निकाय चुनाव की तैयारी में जुटने का आदेश दिया है. हालांकि जिस तरह से पार्टी कार्यालय और आस-पास के क्षेत्रों की सजावट और रंग-रोगन किया गया है, उससे लगता है कि बसपा नेत्री खोई ताकत पाने के लिए बेताब हैं. यह बात और है कि बसपा दोबारा पुराने रंग में लौट पाए यह आसान बात नहीं है और मायावती के सामने चुनौतियां मुंहबाए खड़ी हैं.


अपने स्थापना काल के बाद बहुजन समाज पार्टी 2007 में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी और पूर्ण बहुमत के साथ मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मायावती के शासनकाल में उनके कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगे. कुछ को लोकायुक्त जांच के बाद जेल की हवा भी खानी पड़ी. इस सब के बावजूद मायावती एक सख्त प्रशासक की छवि लेकर मजबूत मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहीं. यह बात और है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ब्राह्मण-दलित वोट बैंक का कार्ड दोबारा मायावती के काम नहीं आया. 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी और पूर्ण बहुमत के साथ अखिलेश यादव सरकार बनाने में कामयाब हुए. तब माना गया मायावती का फार्मूला लोगों को रास नहीं आया और सूबे की जनता एक युवा नेता को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती थी जिसकी वजह से अखिलेश यादव सत्ता तक पहुंच सके.


जनता ने जिस तरह 2012 में मायावती को सत्ता से बेदखल किया था ठीक उसी प्रकार 2017 के चुनाव में अखिलेश यादव को नकार दिया. इस बार बारी थी भारतीय जनता पार्टी और योगी आदित्यनाथ की. कट्टर हिंदुत्व की छवि लेकर आए योगी आदित्यनाथ सूबे की सत्ता पर काबिज हुए और अपने एजेंडे को तेजी से आगे बढ़ाने लगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए कभी चिर प्रतिद्वंदी रहे बसपा और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन का फैसला किया. इस अनोखे गठबंधन से लोगों ने उम्मीद जताई कि जातीय समीकरण ऐसे हैं कि पुराने सारे रिकॉर्ड टूट सकते हैं. हालांकि चुनावी पंडित पिछले तीन चुनावों की तरह इस बार भी जनता का मूड भांपने में पूरी तरह सफल रहे. इस चुनाव में भी भाजपा को भारी बहुमत मिला. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी लोकसभा की 10 सीटें जीतने में कामयाब रही. बावजूद इसके मायावती ने हार का ठीकरा समाजवादी पार्टी के सिर पर फोड़ दिया और गठबंधन तोड़ने का एलान भी कर दिया.


सपा, बसपा गठबंधन टूटने के बाद बसपा पर अवसरवादी राजनीति करने का आरोप लगा. हालांकि यह पहली बार नहीं है. मायावती ने भाजपा के साथ प्रदेश में पहले भी इसी तरह से अवसर वाद की राजनीति की और सत्ता के शिखर तक पहुंचीं. मायावती के इन कदमों से बसपा की छवि धीरे-धीरे कमजोर हुई और उन्हें अवसरवादी राजनीति का प्रतीक समझा जाने लगा. वहीं दूसरी ओर भाजपा की सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं. केंद्र और राज्य की डबल इंजन की सरकार ने मुफ्त राशन योजना, जन धन योजना, किसान सम्मान निधि योजना, मुफ्त शौचालय योजना जैसी न जाने कितनी लोकलुभावन योजनाएं शुरू कीं. इन योजनाओं का लाभ गांव के गरीब गुरबा और कमजोर किसानों को सीधे तौर पर मिला. यही कारण है कि कभी बसपा का वोट बैंक कहे जाने वाले समुदाय पर भाजपा की मजबूत पकड़ बनती गई.

यह भी पढ़ें : सीएम योगी ने कहा, नए राजमार्गों व ग्रीनफील्ड सड़क परियोजनाओं के लिए निःशुल्क शासकीय भूमि देगी राज्य सरकार

इस वक्त बहुजन समाज पार्टी अपनी सबसे कमजोर स्थिति में दिखाई देती है. ऐसे में पार्टी को फिर से खड़ा करने का मायावती के पास क्या फार्मूला होगा कहना कठिन है. सत्ताधारी पार्टी से मुकाबिल बहुजन समाज पार्टी लोगों को क्या प्रलोभन देगी और लोग उसकी बातों में आएंगे भी यह कहना कठिन है. जो भी हो यदि मायावती दोबारा अपने वोट बैंक को रिझाना चाहती हैं तो उन्हें एसी कि आराम छोड़कर सड़कों पर संघर्ष का रास्ता चुनना होगा. हालांकि बहुजन समाज पार्टी लगभग एक दशक से आंदोलन और सड़कों पर संघर्ष का रास्ता भूल सा गई है. ऐसे में बसपा के लिए या रास्ता आसान दिखाई नहीं देता.

यह भी पढ़ें : निकाय चुनाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने तेज की तैयारियां, 14 अक्टूबर से शुरू होंगी बैठकें

Last Updated : Nov 4, 2022, 7:33 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.