लखनऊ: प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव की एआईएमआईएम (All India Majlis-e-Ittehadul Muslimeen) अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) के साथ दो बार मुलाकात हो चुकी है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर शिवपाल का और ओवैसी का गठबंधन होता है और इसके साथ संकल्प भागीदारी मोर्चा भी साथ जुड़ता है तो सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का पूरा चुनावी खेल बिगड़ सकता है. इससे मुसलमान वोट बैंक के साथ ही अति पिछड़े और पिछड़े वोट बैंक के साथ गैर यादव जातियों में भी अखिलेश यादव की पकड़ कमजोर हो सकती है. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह कई छोटी पार्टियों का संकल्प भागीदारी मोर्चे का साथ होना है. इसके साथ शिवपाल और ओवैसी का जुड़ना बड़ी बात होगी और इससे सपा जैसी पार्टियों का नुकसान होना तय माना जा है.
दरअसल उत्तर प्रदेश की सियासत में जातियों का गठजोड़ हमेशा से हावी रहा है. यादव-मुस्लिम समीकरण पर राजनीति करने वाले अखिलेश यादव नहीं चाहेंगे कि शिवपाल सिंह यादव, शंकर भागीदारी मोर्चा या फिर ओवैसी के साथ मिलकर चुनाव लड़े. पिछले दिनों अखिलेश यादव ने कुछ नरमी शिवपाल सिंह यादव के प्रति दिखाई थी. अब अगर शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच चुनावी गठबंधन नहीं हो पाता है तो इसका स्वाभाविक रूप से बड़ा सियासी नुकसान अखिलेश यादव को ही होगा. अखिलेश यादव 2022 के विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने की हर स्तर पर कोशिश कर रहे हैं.
बड़े स्तर पर जातियों के गठजोड़ और जातियों को लामबंद करने के लिए अलग-अलग जातियों के सम्मेलन पार्टी के नेताओं की तरफ से लगातार किए जा रहे हैं. अखिलेश यादव ने 2022 के विधानसभा चुनाव में 400 सीटें जीतने का बड़ा दावा भी किया है. ऐसे में अगर यादव मुस्लिम वोट बैंक पर ही राजनीति करने वाले उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव और मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय और उनके आइकॉन एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन होता है. तो यह बड़ा नुकसान अखिलेश यादव का होगा और उनकी बनी बनाई प्लानिंग भी फ्लॉप हो सकती है और उनका पूरा चुनावी खेल बिगड़ सकता है. देखना दिलचस्प होगा कि अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को किस प्रकार से आने वाले समय में मना पाते हैं. कितनी सीटों पर दोनों का गठबंधन होता है. जिसमें शिवपाल सिंह यादव ओवैसी और संकल्प भागीदारी मोर्चे के साथ में जाकर अपने परिवार के साथ चुनावी मैदान में उतरें और उसका फायदा समाजवादी पार्टी को मिल पाए.
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक रतन मणि लाल कहते हैं कि शिवपाल और ओवैसी की मुलाकात के घटनाक्रम में दो-तीन दिन बिंदु स्पष्ट हैं. उत्तर प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी की सरकार थी और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे, तब चुनाव होने थे तो उन्होंने ओवैसी को उत्तर प्रदेश में आकर जनसभाएं करने पर रोक लगाई थी. कानून व्यवस्था का हवाला देकर कार्यक्रम स्थल पर जाने से ओवैसी रोके गए थे. राजनीतिक तौर पर यह समझा जाता है कि जिस मुस्लिम यादव कंबीनेशन को अखिलेश यादव अपने साथ रखना चाहते हैं. उसमें कहीं ना कहीं ओवैसी के आने से उनका कंबीनेशन कमजोर होगा.
दूसरा पहलू यह है कि पिछले एक-दो साल में शिवपाल यादव की तरफ से कई बार यह कोशिश की गई है और मुलायम सिंह यादव ने भी मध्यस्थता की है कि परिवार एक साथ रहे और अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव एक साथ आ जाएं. ऐसा माना जाता है कि अखिलेश यादव के प्रति शिवपाल यादव की ज्यादा नाराजगी नहीं है. वह आना भी चाहते हैं जुड़ भी सकते हैं, लेकिन अखिलेश यादव शायद अभी मानसिक तौर पर उसके लिए तैयार नहीं नजर आ रहे हैं. ऐसे में जब चुनाव नजदीक आ गया है तो शिवपाल यादव को एक स्टैंड तो लेना ही होगा. वो या तो अखिलेश की तरफ से एक आमंत्रण आने पर उनके साथ जाएं और समाजवादी मूवमेंट को मजबूत करें. जैसी मुलायम सिंह यादव की इच्छा भी है, और अगर अखिलेश यादव ऐसा नहीं करते हैं तो शिवपाल सिंह यादव को अपना राजनीतिक विकल्प तलाशना होगा. भले ही उन विकल्पों से समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को नुकसान हो.
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राजनीतिक विश्लेषक रतन मणि लाल कहते हैं कि मुझे लगता है कि शिवपाल सिंह यादव की तरफ से एक बहुत सोची समझी पहल की गई है कि वह ओवैसी के साथ मिलकर संकल्प भागीदारी मोर्चा में शामिल हों. यही नहीं अगर शिवपाल सिंह यादव उस मोर्चे के साथ चुनाव लड़ते हैं तो निश्चित तौर पर अखिलेश यादव को एक बार फिर अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करनी होगी और अखिलेश यादव पर इसको लेकर एक बड़ा दबाव भी बनेगा कि 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद भी अगर कोई स्थिति आती है तो शिवपाल सिंह यादव को वह आमंत्रित करें, तभी अखिलेश यादव बेहतर राजनीति कर पाएंगे. नहीं तो इसका नुकसान उनको आगे उठाना पड़ सकता है.