हैदराबाद : दुर्लभ बीमारियों के निदान और उपचार के संबंध में शीर्ष अदालत के साथ-साथ कई उच्च न्यायालयों ने भी समय-समय पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. अदालत ने इससे निपटने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता पर जोर देने को कहा.
लंबे इंतजार के बाद केंद्र सरकार दुर्लभ बीमारियों पर एक राष्ट्रीय नीति लेकर आई है. पांच हजार की आबादी पर दो या दो से अधिक लोगों को यदि एक ही बीमारी होती है, तो उसे दुर्लभ श्रेणी में रखा जाता है. भारत में 7000-8000 बीमारियों को इस श्रेणी में रखा गया है. लगभग सात करोड़ लोग इससे पीड़ित हैं. दुर्लभ बीमारियों की श्रेणी में आने वाले 80 फीसदी से अधिक रोग आनुवांशिक दोष की वजह से होते हैं. इनमें से 5 फीसदी से भी कम बीमारियों के उपचार की सही व्यवस्था है.
लंबे समय तक दुर्लभ बीमारियों से ग्रसित होने की स्थिति में परिवार को बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है. उसका उचित इलाज उपलब्ध नहीं होता है. अगर दवाएं उपलब्ध हैं, तो वह बहुत महंगी हैं. सुधारात्मक उपायों की योजना 2017 में ही बन गई थी, लेकिन अब वह फलीभूत हो रहीं हैं.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने दुर्लभ बीमारियों पर राष्ट्रीय नीति 2021 को मंजूरी दिए जाने की पुष्टि कर दी है. उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य दुर्लभ बीमारियों के इलाज पर होने वाले खर्च में कमी लाना है. स्वदेशी अनुसंधान और दवाओं के स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देना है.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इस योजना के तहत लाभार्थियों की वित्तीय सहायता केवल बीपीएल परिवारों तक सीमित नहीं होगी, बल्कि लगभग 40 प्रतिशत आबादी तक पहुंचाया जाएगा, यानि वे जो प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत पात्र हैं, उन्हें यह सुविधा मिलेगी.
अभी इस तरह की सुविधा सिर्फ कर्नाटक ही उपलब्ध करवाता है. राष्ट्रीय आरोग्य निधि के तहत 20 लाख रुपये तक की आर्थिक सहायता दी जाएगी. हालांकि, इस पर अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.
विश्व के जेनेरिक दवा बाजार में भारत की हिस्सेदारी 20 फीसदी और वैक्सीन बाजार में 62 फीसदी है. यही वजह है कि भारत को विश्व की फार्मेसी कहा जाता है. ऐसे में दुर्लभ बीमारियों के इलाज में इतनी देरी क्यों होती है. भारत की दवा कंपनियों की क्षमता पर सबको भरोसा है. अनुसंधान और निवेश भी खूब हो रहा है. लेकिन आम बीमारियों के लिए दवाओं की तुलना में ऐसी बीमारियों की दवाओं को बनाने पर जोर नहीं दिया जाता है. परिणामस्वरूप हमें दुर्लभ बीमारियों की दवाओं के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है. ऐसे में सबसे अच्छा तरीका यही है कि आप घरेलू संगठनों द्वारा अनुसंधान को प्रोत्साहित करें और विदेश पर निर्भरता कम करें.
निश्चित तौर पर सरकार ने 20 लाख की जो सीमा तय की है, इलाज के लिए वह पर्याप्त नहीं है. अगर कोई 10 साल का बच्चा दुर्लभ बीमारियों से ग्रसित है, तो उसके इलाज में एक करोड़ रूपये खर्च हो सकते हैं. उम्र और वजन बढ़ने के साथ खर्च बढ़ता जाता है. क्या एक आम परिवार पूरा खर्च वहन करने की क्षमता रखता है. राष्ट्रीय नीति इस बात पर कुछ भी नहीं कहता है कि किसी को आजीवन इलाज की जरूरत हुई, तो वह किस तरह से इलाज करवा पाएगा. सरकार ने ये जरूर कहा है कि कॉरपोरेट और व्यक्तिगत स्तर पर सहायता की जा सकती है. सरकार को चाहिए कि केस दर केस वह निर्णय ले, ताकि जरूरत मंदों की मदद की जा सके.
आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों की कुल संख्या अमेरिका की कुल आबादी से अधिक है. फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा, बुल्गारिया और अर्जेंटीना जैसे देशों ने दुर्लभ बीमारियों से लड़ने के लिए कारगर नीति अपनाई है. भारत को भी इससे सीखने की जरूरत है.