प्रशासन का मतलब धमकी देना नहीं होता है. प्रजातंत्र वह नहीं है, जो लोगों की आवाज बंद कर दे. प्रजातंत्र में शासक को अपने विरोधियों की राजनीतिक स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए. उनका दायित्व बनता है कि वे ऐसा माहौल बनाएं, जहां पर हर कोई बिना किसी भय के सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना कर सकें. उन्हें ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जो लोगों की तकलीफों को तल्लीनता से सुने और फिर उसका उचित समय में समाधान भी करे. misuse of uapa.
पर हमारे यहां वास्तविक स्थिति कुछ और है. हमारे देश में प्रजातंत्र सिर्फ नेताओं के लच्छेदार भाषणों और किताबों में ही दिखाई देता है. और इसका उदाहरण देखना हो, तो गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) पर ही विचार कर लीजिए. विरोधियों की आवाज दबाने के लिए हर सरकारें इस कानून का दुरुपयोग करती रहीं हैं. पिछले महीने ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने आतंकी गतिविधियां और सरकार का विरोध करने के लिए अपने संवैधानिक अधिकारों के उपयोग करने के बीच कम हो रहे अंतर पर टिप्पणी की थी. यह टिप्पणी अपने आप में उस स्थिति की ओर इशारा करता है कि विपक्ष की आवाज पर नकेल कसा जा रहा है.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने खुद राज्यसभा में बताया कि 2018 से 2020 के बीच आतंकवाद विरोधी कानून 'यूएपीए' के तहत कुल 4,690 लोगों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन तीन साल की अवधि में सिर्फ 149 को दोषी ठहराया गया था. राय ने एक प्रश्न के लिखित जवाब में राज्यसभा को बताया कि 2020 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत 1,321 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जबकि उस वर्ष 80 लोगों को दोषी ठहराया गया था. 2014 से 2021 के बीच इसके तहत कुल 10552 लोगों को गिरफ्तार किया गया. लेकिन सजा मात्र 253 लोगों को हुई. ये आंकड़े बताते हैं कि आखिरकार किस तरह से पुलिस और नेताओं का गठजोड़ मानवाधिकार का खुलेआम उल्लंघन कर रहा है.
1996 में मो. अली भट, लतिफ अहमद वज और मिर्जा निसार हुसैन नाम के तीन कश्मीरी युवकों को गिरफ्तार किया गया था. उन पर आतंकी गतिविधि में शामिल होने का आरोप था. 26 साल बाद इन तीनों को इन आरोपों से मुक्त किया गया. दिल्ली और राजस्थान की कोर्ट ने उनके खिलाफ लगे आरोपों को खारिज कर दिया. पर, उनकी जिंदगी के बेशकीमती पलों को क्या कोई लौटा सकता है ? आतंक के खिलाफ लड़ाई का मतलब निर्दोषों का उत्पीड़न तो नहीं होता है. 2010 में यूएपीए के तहत कश्मीर के एजाज बाबा को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया था. 11 साल बाद स्थानीय अदालत ने उनकी रिहाई के आदेश दिए. अदालत ने अपने फैसले में कहा कि आतंकी गतिविधि में शामिल होने का उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है. अदालत ने यह भी कहा कि सरकारी पक्ष की दलीलें भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही थीं. 2012 में महाराष्ट्र एंटी टेरोरिस्ट स्कॉयड ने मो. इलियास और इरफान को गिरफ्तार किया था. उन पर नेताओं, पुलिस अधिकारियों और पत्रकारों की हत्या के षडयंत्र रचने का आरोप लगा था. आरोप यूएपीए के तहत लगे थे. बाद में यह मामला एनआईए को ट्रांसफर कर दिया गया. आखिरकार एनआईए अदालत ने उन्हें बरी कर दिया. पीड़ित ने पूछा, उसकी जिंदगी के बहुमूल्य नौ साल तो वापस नहीं आएंगे. इनके आंसूओं को कौन पोंछेगा. यूएपीए के तहत गिरफ्तार होने वाले आधे युवक 18 से 30 साल के हैं. आरोपी जहां एक ओर जेल में सड़ते रहते हैं. वहीं उनके परिवारों के सदस्यों की जिंदगियां तबाह हो जाती हैं. उन्हें खाने को भी मोहताज होना पड़ता है. बहुत सारे मामलों में जब तक वे बरी होते हैं, तब तक उनके अपने भी इस दुनिया को छोड़ चुके होते हैं.
यूएपीए आज से करीब 55 साल पहले लाया गया था. यूपीए और एनडीए, दोनों सरकारों ने अपने-अपने समय में इस कानून में संशोधन करवाए हैं. 2004, 2008, 2013 और 2019 में इनमें संशोधन हुए हैं. हर संशोधन इस कानून को सख्त बनाता रहा है. और आरोपी के लिए बेगुनाही साबित करना मुश्किल होता है. कानून के नाम पर यह भ्रम है. जब दूसरे कानूनों में गैरकानूनी गतिविधियों पर रोकथाम लगाने का प्रावधान पहले से मौजूद है, वह भी सांविधानिक रूप से, तो इस विशेष कानून की क्या जरूरत थी. वह भी, जो संविधान प्रदत्त जिंदगी जीने के अधिकार पर अंकुश लगाए, यह समझ के परे है.
दिल्ली पुलिस ने देवंगाना कालिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल को यूएपीए के तहत हिरासत में लिया था. उन पर सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने का आरोप था. दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में इस कानून के दुरुपयोग पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी. कोर्ट ने कहा कि इस तरह से कानून के दुरुपयोग से प्रजातंत्र पर ही संकट खड़े होंगे. सरकार द्वारा चुनी गई सरकारें समाज में अराजकता पैदा करने के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने पर लोगों का विश्वास खो देती हैं.
अन्य कानूनों के तहत बंद किए गए आरोपियों को सामान्यतः जमानत मिल जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में कहा था कि टाडा जैसे कानून जमानत प्रदान करने में अदालत के भी हाथों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं. यह अक्सर कहा जाता है कि पुलिस कानून का दुरुपयोग करती है. यूएपीए भी टाडा की राह पर चल पड़ा है. पिछले साल त्रिपुरा पुलिस ने यूएपीए के तहत पत्रकारों और वकीलों पर भी मुकदमा दर्ज कर दिया था. उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आवाजें उठाई थीं. एडिटर्स गिल्ड ने भी इस मामले में चिंता प्रकट की थी. यह निराशा की बात है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे नेताओं के बड़े-बड़े शब्द जमीनी हकीकत से मेल नहीं खा रहे हैं. यूएपीए के तहत दर्ज कराए गए अधिकांश मामले असम, झारखंड, मणिपुर, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश से हैं. सेवानिवृत्त नौकरशाहों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने कानून के बेधड़क दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की है. उनकी स्पष्ट राय रही है कि हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में इस तरह के कठोर कानून का कोई स्थान नहीं हो सकता. सरकारें उनके पत्रों को कूड़ेदान में भेजती रही हैं, ताकि कानून को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और आलोचकों के खिलाफ प्रतिशोध के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके. निजी स्वतंत्रता और विरोधी राय के खिलाफ सरकार की यह अवधारणा देश की एकता के लिए बहुत ही खतरनाक है.
ये भी पढे़ं : UAPA के तहत 2016-2020 के दौरान 24,134 लोगों के खिलाफ सुनवाई, 212 दोषी साबित
(लेखक- शैलेश निम्मागड्डा, Sailesh Nimmagadda)