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खतरे में है अभिव्यक्ति की आजादी!

सर्वोच्च न्यायालय ने आईटी एक्ट की धारा 66 ए को असंवैधानिक करार दिया था. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 11 राज्यों में इस धारा के तहत 1988 मामले दर्ज हैं. ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सवाल उठना लाजिमी है.

freedom of expression
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Published : Jan 19, 2021, 8:07 PM IST

हैदराबाद : भारत का संविधान मौलिक अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की आजादी और अभिव्यक्ति की गारंटी देता है. हालांकि, जो सरकारें थोड़ी सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं वह आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को छह साल पहले ही असंवैधानिक करार दिया था. बावजूद इसके अभी भी इसके तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 11 राज्यों में इस धारा के तहत 1988 मामले दर्ज किए गए हैं. ये आंकड़े खुद खुलासा कर रहे हैं कि मार्च 2015 में जिस धारा को न्यायपालिका ने रद्द कर दिया था उसके तहत पुलिस ने 1307 मामले दर्ज किए.

इंटरनेट फ्रीडम फेडरेशन का कहना है कि धारा 66 ए की घोषणा से पहले और बाद में दर्ज किए गए मामलों में से 799 अभी भी लंबित हैं. फाउंडेशन ने कहा कि पुलिसकर्मी अभी भी रद्द हो चुके प्रावधान लागू कर रहे हैं.

66 ए के खिलाफ पहली जनहित याचिका महाराष्ट्र में सामने आई थी. श्रेया सिंघल ने इसे दायर किया था. बाल ठाकरे की अंत्येष्टि के लिए मुंबई शहर के ऑनलाइन शटडाउन की आलोचना करने के लिए उनकी पीआईएल के लिए ट्रिगर मुंबई की दो लड़कियों की गिरफ्तारी थी.

महाराष्ट्र अभी भी उन राज्यों की सूची में शीर्ष पर है जहां आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत मामले लंबित हैं. यह स्पष्ट रूप से महाराष्ट्र की स्थिति दर्शा रहा है कि यहां अभिव्यक्ति की आजादी को किस तरह दबाया जा रहा है.

सरकार ने दिया था मजबूत दिशानिर्देश तैयार करने का आश्वासन

एनडीए सरकार ने धारा 66 ए के पक्ष में तर्क देते हुए सर्वोच्च न्यायालय को आश्वासन दिया था कि वह कानून के क्रियान्वयन के लिए मजबूत दिशानिर्देश तैयार करेगी. इसके दुरुपयोग की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ेगी. सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को खारिज करते हुए सवाल किया था कि सरकार 'भविष्य की सरकारों' के आचरण की गारंटी कैसे दे सकती है? शीर्ष अदालत ने फैसले को सभी उच्च न्यायालयों को प्रसारित करने का आदेश दिया था.

पुलिस अधिकारियों और राज्य सरकारों के बीच इसके बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने को कहा था. आदेश का अनुपालन न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2019 में चेतावनी देते हुए ऐसे अधिकारियों के जेल भेजने को कहा था. इस सबके बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी को जमीनी हकीकत ये है.

जैसा कि लोकप्रिय अमेरिकी वकील लुई ब्रैंडिस ने कहा था, 'जब तक रक्षा की गुंजाइश है, हमे प्रभावी रूप से विपक्षियों की बातों का मुकाबला करना चाहिए न कि उनकी बातों के कुचल देना चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का जीवन है. कठोर कानूनों से उनकी आवाज को दबाना तानाशाही है.'

केरल सरकार पुलिस अधिनियम में लाना चाहती थी प्रावधान

केरल में पी. विजयन के नेतृत्व वाली मार्क्सवादी सरकार ने केरल पुलिस अधिनियम में प्रावधान की मांग की हैं जिसके तहत आहत करने वाली टिप्पणियों को ऑनलाइन आपराध की श्रेणी में रखा गया है. हालांकि नए प्रावधान के खिलाफ सार्वजनिक आक्रोश बढ़ता देख सरकार इसे लाने से पीछे हट गई. केरल सरकार जो संशोधन लाना चाहती थी वह आईटी एक्ट की धारा 66 ए की तरह ही था. हालांकि केरल सरकार ने प्रस्तावित संशोधन को अलग रखा है. यह चिंता का विषय है कि हर जगह विपरीत दृष्टिकोण को दबाने की कोशिश की जा रही है.

हमारा पुलिस तंत्र शासकों को खुश करने के उत्साह में या खुद को ज्यादा वफादार दिखाने के लिए मूलभूत अधिकारों को अप्रभावी करने की कोशिश करता है. संविधान का अनुच्छेद 19 (2) आठ आधारों को सूचीबद्ध करता है, जिन पर राज्य भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकता है. अगर लगता है कि भाषण या अभिव्यक्ति हिंसा को उकसाती है तो उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 66ए के तहत लगाया जाने वाला देशद्रोह का आरोप सरकार की छवि को दर्शाता है. सरकार की निंदा करना असहिष्णुता नहीं है बल्कि सरकार के काम आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है.

वर्तमान में जो खेदजनक और अराजक स्थिति है वह सत्ताधारी दलों के राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए पुलिस तंत्र के इस्तेमाल का नतीजा है. मौलिक अधिकारों को उनका उचित सम्मान तभी मिलेगा जब पुलिसकर्मी राजनीतिक आकाओं की बात मानने के बजाय संविधान का पालन करेंगे.

हैदराबाद : भारत का संविधान मौलिक अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की आजादी और अभिव्यक्ति की गारंटी देता है. हालांकि, जो सरकारें थोड़ी सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं वह आईटी एक्ट की धारा 66 ए के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66A को छह साल पहले ही असंवैधानिक करार दिया था. बावजूद इसके अभी भी इसके तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 11 राज्यों में इस धारा के तहत 1988 मामले दर्ज किए गए हैं. ये आंकड़े खुद खुलासा कर रहे हैं कि मार्च 2015 में जिस धारा को न्यायपालिका ने रद्द कर दिया था उसके तहत पुलिस ने 1307 मामले दर्ज किए.

इंटरनेट फ्रीडम फेडरेशन का कहना है कि धारा 66 ए की घोषणा से पहले और बाद में दर्ज किए गए मामलों में से 799 अभी भी लंबित हैं. फाउंडेशन ने कहा कि पुलिसकर्मी अभी भी रद्द हो चुके प्रावधान लागू कर रहे हैं.

66 ए के खिलाफ पहली जनहित याचिका महाराष्ट्र में सामने आई थी. श्रेया सिंघल ने इसे दायर किया था. बाल ठाकरे की अंत्येष्टि के लिए मुंबई शहर के ऑनलाइन शटडाउन की आलोचना करने के लिए उनकी पीआईएल के लिए ट्रिगर मुंबई की दो लड़कियों की गिरफ्तारी थी.

महाराष्ट्र अभी भी उन राज्यों की सूची में शीर्ष पर है जहां आईटी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत मामले लंबित हैं. यह स्पष्ट रूप से महाराष्ट्र की स्थिति दर्शा रहा है कि यहां अभिव्यक्ति की आजादी को किस तरह दबाया जा रहा है.

सरकार ने दिया था मजबूत दिशानिर्देश तैयार करने का आश्वासन

एनडीए सरकार ने धारा 66 ए के पक्ष में तर्क देते हुए सर्वोच्च न्यायालय को आश्वासन दिया था कि वह कानून के क्रियान्वयन के लिए मजबूत दिशानिर्देश तैयार करेगी. इसके दुरुपयोग की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ेगी. सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को खारिज करते हुए सवाल किया था कि सरकार 'भविष्य की सरकारों' के आचरण की गारंटी कैसे दे सकती है? शीर्ष अदालत ने फैसले को सभी उच्च न्यायालयों को प्रसारित करने का आदेश दिया था.

पुलिस अधिकारियों और राज्य सरकारों के बीच इसके बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने को कहा था. आदेश का अनुपालन न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2019 में चेतावनी देते हुए ऐसे अधिकारियों के जेल भेजने को कहा था. इस सबके बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी को जमीनी हकीकत ये है.

जैसा कि लोकप्रिय अमेरिकी वकील लुई ब्रैंडिस ने कहा था, 'जब तक रक्षा की गुंजाइश है, हमे प्रभावी रूप से विपक्षियों की बातों का मुकाबला करना चाहिए न कि उनकी बातों के कुचल देना चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का जीवन है. कठोर कानूनों से उनकी आवाज को दबाना तानाशाही है.'

केरल सरकार पुलिस अधिनियम में लाना चाहती थी प्रावधान

केरल में पी. विजयन के नेतृत्व वाली मार्क्सवादी सरकार ने केरल पुलिस अधिनियम में प्रावधान की मांग की हैं जिसके तहत आहत करने वाली टिप्पणियों को ऑनलाइन आपराध की श्रेणी में रखा गया है. हालांकि नए प्रावधान के खिलाफ सार्वजनिक आक्रोश बढ़ता देख सरकार इसे लाने से पीछे हट गई. केरल सरकार जो संशोधन लाना चाहती थी वह आईटी एक्ट की धारा 66 ए की तरह ही था. हालांकि केरल सरकार ने प्रस्तावित संशोधन को अलग रखा है. यह चिंता का विषय है कि हर जगह विपरीत दृष्टिकोण को दबाने की कोशिश की जा रही है.

हमारा पुलिस तंत्र शासकों को खुश करने के उत्साह में या खुद को ज्यादा वफादार दिखाने के लिए मूलभूत अधिकारों को अप्रभावी करने की कोशिश करता है. संविधान का अनुच्छेद 19 (2) आठ आधारों को सूचीबद्ध करता है, जिन पर राज्य भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर सकता है. अगर लगता है कि भाषण या अभिव्यक्ति हिंसा को उकसाती है तो उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 66ए के तहत लगाया जाने वाला देशद्रोह का आरोप सरकार की छवि को दर्शाता है. सरकार की निंदा करना असहिष्णुता नहीं है बल्कि सरकार के काम आलोचनात्मक मूल्यांकन करना है.

वर्तमान में जो खेदजनक और अराजक स्थिति है वह सत्ताधारी दलों के राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए पुलिस तंत्र के इस्तेमाल का नतीजा है. मौलिक अधिकारों को उनका उचित सम्मान तभी मिलेगा जब पुलिसकर्मी राजनीतिक आकाओं की बात मानने के बजाय संविधान का पालन करेंगे.

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