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जब जमी हुई झील पर सैनिकों ने शीतकालीन युद्ध का लिया प्रशिक्षण

भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में वास्तिवक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव बना हुआ है. ऐसे में एक लाख से अधिक जवान एलएसी पर तैनात हैं. आने वाले महीनों में प्रकृति सैनिकों की सबसे जानलेवा दुश्मन होगी. ऐसा नहीं है कि भारतीय सैनिक पहली बार ऐसी स्थिति का सामना करेंगे. प्रसिद्ध डोगरा जनरल जोरावर सिंह ने अपने सैनिकों के साथ पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर डेरा डालकर अपने सैनिकों को जमी हुई झील पर प्रशिक्षण दिया था और शीतकालीन युद्ध के लिए तैयार किया था. उनकी प्रबल इच्छा तिब्बत पर जीत की थी. पढ़ें वरिष्ठ संवाददाता संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट...

पैंगोंग झील
पैंगोंग झील
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Published : Oct 10, 2020, 8:54 PM IST

Updated : Oct 11, 2020, 12:38 AM IST

नई दिल्ली : सर्दी तेजी से आ रही है और रात का तापमान पैंगोंग त्सो और पूर्वी लद्दाख के आसपास के क्षेत्रों में शून्य से नीचे 20 डिग्री को छू रहा है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास और अंदरूनी क्षेत्रों में एक लाख भारतीय और चीनी सैनिक डेरा डाले हुए हैं. ऐसे में बहुत चिंता की बात है कि अगले कुछ महीनों के लिए वहां निर्मम प्रकृति सबसे जानलेवा दुश्मन होगी.

ऐसा नहीं है कि भारतीय सैनिकों ने इससे पहले इस तरह की बहुत अधिक ऊंचाई पर कभी युद्ध लड़ा और जीता नहीं है. 1841 में प्रसिद्ध डोगरा जनरल जोरावर सिंह ने अपने सैनिकों के साथ पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर डेरा डालकर अपने सैनिकों को जमी हुई झील पर प्रशिक्षण दिया था और शीतकालीन युद्ध के लिए तैयार किया था. उनकी प्रबल इच्छा तिब्बत पर जीत की थी.

पैंगोंग त्सो भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच टकराव की जगहों में से एक है, वहां दोनों पक्षों की ओर से सैनिकों का भारी जमावड़ा है. चीन ने उत्तरी तट पर वर्चस्व वाली ऊंचाइयों पर कब्जा कर लिया था, जबकि दक्षिणी तट पर भारत को बढ़त हासिल हुई थी.

पूर्वी लद्दाख और तिब्बत की क्रूर सर्दियों में प्रकृति से निपटने के लिए जोरावर की सेना ने सर्वश्रेष्ठ तैयारियां की थीं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं थीं. वर्ष 1834 में लद्दाख को जीतने के बाद सैन्य अभियान की सफलता से उत्साहित उन्होंने 1839-40 में स्कर्दू (वर्तमान गिलगित-बाल्टिस्तान) पर कब्जा कर लिया. उसके बाद जोरावर सिंह ने तिब्बत की ओर अपना ध्यान मोड़ा, जहां लाभदायक शॉल व्यापार उनकी आंखों में बस गया था.

भारतीय इतिहासकारों ने जोरावर सिंह और उनके कारनामों के बारे में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि तिब्बती स्रोतों का क्या कहना है. तिब्बती विद्वान और तिब्बती सरकार के पूर्व वित्त मंत्री डब्ल्यूडी शाकबपा त्सेपन (1907-1989) के अनुसार, जोरावर सिंह की सेना में सिख और लद्दाखी दोनों शामिल थे. तिब्बत की सेना के साथ लड़ाई पश्चिमी तिब्बत के गुहारी कोर्सुम में हुई, जिसके बाद जोरावर सिंह की सेना टकलाखार (भारत-नेपाल-चीन तीनों देशों की सीमा के पास बुरान प्रांत में है, जिसे अब तकलाकोट कहा जाता है) तक आगे बढ़ गई.

हालांकि, तिब्बती सेना के पास युद्ध के लिए अच्छे साजो-सामान नहीं थे, लेकिन उसने अपने हित में परिचित मौसम का उपयोग किया और कुछ महीनों तक लड़ने के बाद वह लोग तकलाकोट से जोरावर सिंह और उनके लोगों को बाहर निकालने में सफल रहे. यह वही सर्दियों का समय था, जिसके आगमन की तिब्बती प्रतीक्षा कर रहे थे.

तिब्बतियों ने जोरावर और उनके सैनिकों को घेर लिया, क्योंकि भारी बर्फ के कारण पहाड़ के रास्ते बंद हो गए थे और वह वापस जम्मू नहीं जा सकते थे. बर्फबारी ने कहर बरपा दिया. अपरिचित मौसम की स्थिति में आधे जम चुके सिख सैनिक तिब्बती इलाके में लड़ते रहे. शहीद जनरल जोरावर सिंह को तकलाकोट से कुछ किलोमीटर दूर एक पत्थर से बनी कब्र में दफना दिया गया था. त्सेपन के अनुसार, तिब्बतियों ने अपनी जीत के लिए भारी बर्फबारी का अहसानमंद होना स्वीकार किया है.

15 हजार फीट ऊंचे युद्ध के मैदान में बगैर अच्छे हथियारों से लैस हुए (जोरावर के सैनिकों के पास बंदूकें थीं जबकि तिब्बती तलवार, धनुष और भाले के साथ लड़े थे) तिब्बतियों ने खुद को भेड़ों की मोटी चमड़ी से ढंक रखा था.

यह भी पढ़ें- एलएसी विवाद : चीनी सेना ने ठंड से बचने के लिए बनाए थर्मल शेल्टर

प्रसिद्ध पुरातत्वविद सर अलेक्जेंडर कनिंघम तब गढ़वाल में तैनात थे. उनका कहना है कि कई भारतीय सैनिकों के हाथों और पैरों की अंगुलियों ने काम करना बंद कर दिया था और सभी कमोबेश ठंड के मारे थे. एकमात्र ईंधन जो पाया जा सकता था वह तिब्बती 'फर्ज़ी' (एक झाड़ी) था, जो आग की तुलना में धुआं बहुत अधिक पैदा करता था.

भारतीय सेना के कई सैनिकों ने थोड़ी सी गर्मी के लिए अपनी बंदूकों में लगी लकड़ी को जला दिया था. कनिंघम लिखते हैं कि लड़ाई के अंतिम दिन 12 दिसंबर, 1841 को आधे जवान भी अपनी बाहों का इस्तेमाल नहीं कर सके.

ऐसा माना जाता है कि जोरावर सिंह संभवतः अपने भयानक भाग्य से बच गए थे. वह यारलुंग त्संग्पो (भारत में ब्रह्मपुत्र नदी) की घाटी में पूर्व की ओर चले गए थे, जो इलाका थोड़ा अधिक गर्म और अनुकूल था. लेकिन इतिहास हमेशा से एक समान रहा है. अंतिम शब्द हमेशा प्रकृति माता के पास होता है.

नई दिल्ली : सर्दी तेजी से आ रही है और रात का तापमान पैंगोंग त्सो और पूर्वी लद्दाख के आसपास के क्षेत्रों में शून्य से नीचे 20 डिग्री को छू रहा है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास और अंदरूनी क्षेत्रों में एक लाख भारतीय और चीनी सैनिक डेरा डाले हुए हैं. ऐसे में बहुत चिंता की बात है कि अगले कुछ महीनों के लिए वहां निर्मम प्रकृति सबसे जानलेवा दुश्मन होगी.

ऐसा नहीं है कि भारतीय सैनिकों ने इससे पहले इस तरह की बहुत अधिक ऊंचाई पर कभी युद्ध लड़ा और जीता नहीं है. 1841 में प्रसिद्ध डोगरा जनरल जोरावर सिंह ने अपने सैनिकों के साथ पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर डेरा डालकर अपने सैनिकों को जमी हुई झील पर प्रशिक्षण दिया था और शीतकालीन युद्ध के लिए तैयार किया था. उनकी प्रबल इच्छा तिब्बत पर जीत की थी.

पैंगोंग त्सो भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच टकराव की जगहों में से एक है, वहां दोनों पक्षों की ओर से सैनिकों का भारी जमावड़ा है. चीन ने उत्तरी तट पर वर्चस्व वाली ऊंचाइयों पर कब्जा कर लिया था, जबकि दक्षिणी तट पर भारत को बढ़त हासिल हुई थी.

पूर्वी लद्दाख और तिब्बत की क्रूर सर्दियों में प्रकृति से निपटने के लिए जोरावर की सेना ने सर्वश्रेष्ठ तैयारियां की थीं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं थीं. वर्ष 1834 में लद्दाख को जीतने के बाद सैन्य अभियान की सफलता से उत्साहित उन्होंने 1839-40 में स्कर्दू (वर्तमान गिलगित-बाल्टिस्तान) पर कब्जा कर लिया. उसके बाद जोरावर सिंह ने तिब्बत की ओर अपना ध्यान मोड़ा, जहां लाभदायक शॉल व्यापार उनकी आंखों में बस गया था.

भारतीय इतिहासकारों ने जोरावर सिंह और उनके कारनामों के बारे में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि तिब्बती स्रोतों का क्या कहना है. तिब्बती विद्वान और तिब्बती सरकार के पूर्व वित्त मंत्री डब्ल्यूडी शाकबपा त्सेपन (1907-1989) के अनुसार, जोरावर सिंह की सेना में सिख और लद्दाखी दोनों शामिल थे. तिब्बत की सेना के साथ लड़ाई पश्चिमी तिब्बत के गुहारी कोर्सुम में हुई, जिसके बाद जोरावर सिंह की सेना टकलाखार (भारत-नेपाल-चीन तीनों देशों की सीमा के पास बुरान प्रांत में है, जिसे अब तकलाकोट कहा जाता है) तक आगे बढ़ गई.

हालांकि, तिब्बती सेना के पास युद्ध के लिए अच्छे साजो-सामान नहीं थे, लेकिन उसने अपने हित में परिचित मौसम का उपयोग किया और कुछ महीनों तक लड़ने के बाद वह लोग तकलाकोट से जोरावर सिंह और उनके लोगों को बाहर निकालने में सफल रहे. यह वही सर्दियों का समय था, जिसके आगमन की तिब्बती प्रतीक्षा कर रहे थे.

तिब्बतियों ने जोरावर और उनके सैनिकों को घेर लिया, क्योंकि भारी बर्फ के कारण पहाड़ के रास्ते बंद हो गए थे और वह वापस जम्मू नहीं जा सकते थे. बर्फबारी ने कहर बरपा दिया. अपरिचित मौसम की स्थिति में आधे जम चुके सिख सैनिक तिब्बती इलाके में लड़ते रहे. शहीद जनरल जोरावर सिंह को तकलाकोट से कुछ किलोमीटर दूर एक पत्थर से बनी कब्र में दफना दिया गया था. त्सेपन के अनुसार, तिब्बतियों ने अपनी जीत के लिए भारी बर्फबारी का अहसानमंद होना स्वीकार किया है.

15 हजार फीट ऊंचे युद्ध के मैदान में बगैर अच्छे हथियारों से लैस हुए (जोरावर के सैनिकों के पास बंदूकें थीं जबकि तिब्बती तलवार, धनुष और भाले के साथ लड़े थे) तिब्बतियों ने खुद को भेड़ों की मोटी चमड़ी से ढंक रखा था.

यह भी पढ़ें- एलएसी विवाद : चीनी सेना ने ठंड से बचने के लिए बनाए थर्मल शेल्टर

प्रसिद्ध पुरातत्वविद सर अलेक्जेंडर कनिंघम तब गढ़वाल में तैनात थे. उनका कहना है कि कई भारतीय सैनिकों के हाथों और पैरों की अंगुलियों ने काम करना बंद कर दिया था और सभी कमोबेश ठंड के मारे थे. एकमात्र ईंधन जो पाया जा सकता था वह तिब्बती 'फर्ज़ी' (एक झाड़ी) था, जो आग की तुलना में धुआं बहुत अधिक पैदा करता था.

भारतीय सेना के कई सैनिकों ने थोड़ी सी गर्मी के लिए अपनी बंदूकों में लगी लकड़ी को जला दिया था. कनिंघम लिखते हैं कि लड़ाई के अंतिम दिन 12 दिसंबर, 1841 को आधे जवान भी अपनी बाहों का इस्तेमाल नहीं कर सके.

ऐसा माना जाता है कि जोरावर सिंह संभवतः अपने भयानक भाग्य से बच गए थे. वह यारलुंग त्संग्पो (भारत में ब्रह्मपुत्र नदी) की घाटी में पूर्व की ओर चले गए थे, जो इलाका थोड़ा अधिक गर्म और अनुकूल था. लेकिन इतिहास हमेशा से एक समान रहा है. अंतिम शब्द हमेशा प्रकृति माता के पास होता है.

Last Updated : Oct 11, 2020, 12:38 AM IST
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