पटना : ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दीवारों पर लिखी बातों को पढ़ने में नाकाम रहे हैं. पहले से ही भारी सत्ता विरोध का सामना कर रहे नीतीश एक और मुसीबत में फंस गए हैं. बिहार में 28 अक्टूबर से पहले चरण का मतदान शुरू हो वाला है. इस बीच नीतीश अब अपनी विधानसभा की रैलियों के दौरान विरोध से लगातार परिचित हो रहे हैं.
हाल ही में गया जिले में नीतीश विधानसभा की रैली के दौरान जब भीड़ को संबोधित कर रहे थे तब एक युवक ने डायस पर पथराव किया. हालांकि, पत्थर से किसी को चोट नहीं लगी. पुलिस ने बाद में युवक को गिरफ्तार कर लिया. यह घटना अतरी विधानसभा क्षेत्र में तब हुई जब मुख्यमंत्री जगदीश चंद्र उच्च विद्यालय मैदान में एक जनसभा कर रहे थे.
नीतीश के खिलाफ नारेबाजी, लगाए ये आरोप
इसी तरह की एक घटना सोमवार को औरंगाबाद जिले के रफीगंज में तब हुई जब एक बुजुर्ग ने नीतीश के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी और आरोप लगाया कि सीएम ने मनरेगा कोष से पैसा निकाल लिया है. पुलिस ने उसे मौके पर पकड़ लिया, लेकिन बाद में छोड़ दिया गया. एक अन्य घटना में गया जिले के टिकारी में नीतीश की जनसभा में राजद समर्थकों ने लालू प्रसाद के समर्थन में नारेबाजी की.
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कभी काफिले पर हमला, कभी पथराव
ये पहली बार नहीं है जब नीतीश अपनी ही जनसभा में विरोध का सामना कर रहे हैं. इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. अतीत में कई यात्राओं जैसे निश्चय यात्रा, विकास यात्रा, विकास समीक्षा यात्रा समेत कई और यात्राएं रहीं, जिनमें नीतीश ने लोगों के आक्रोश का सामना किया था. वास्तव में 2018 में नीतीश के काफिले पर हमला किया गया था. 2018 में बक्सर में लोगों ने उनकी यात्रा के दौरान पथराव किया था.
राजनीतिक विशेषज्ञों की राय
राजनीतिक विशेषज्ञों की राय है कि नीतीश के विरोध का मुख्य कारण सत्ता विरोधी रुझान और व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के बीच उनकी स्वीकार्यता है. विशेषज्ञों ने नीतीश के खिलाफ जमा हुए अन्य कारणों का भी हवाला दिया है.
सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे कार्यकर्ता
उन्होंने कहा कि सत्ता विरोधी फैक्टर के अलावा नीतीश कुमार ने जिस तरह कोरोना के दौरान लौटे प्रवासियों के मुद्दे को संभाला, वह एक कारण है. ऐसे कई प्रवासियों की अपने ही राज्य में पिटाई की गई थी. तीसरा कारण शिक्षकों को सामान काम के लिए सामान वेतन नहीं दिया जा रहा है और चौथा जिस तरह से भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार में नीतीश के साथ गठबंधन किया है, भाजपा कार्यकर्ता उससे खुश नहीं हैं. जमीनी स्तर के भाजपा कार्यकर्ता सत्ता विरोधी लहर का सामना करने के बजाय अकेले चुनाव लड़ने के पक्ष में थे.
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बीजेपी के पास सीएम का अपना चेहरा नहीं
बीजेपी के कार्यकर्ताओं की मांग के पीछे एक अच्छा तर्क है क्योंकि पार्टी पहले से ही आलोचना का सामना कर रही है कि बीजेपी के पास सीएम का अपना चेहरा नहीं है और वह हमेशा नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है. ये जमीन पर काम करने वाले लोग हैं, जिन्हें अधिकांश आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, शीर्ष नेताओं की नहीं. भाजपा कार्यकर्ता नीतीश के चंगुल से बाहर आना चाहते थे और कुछ हद तक भाजपा नेतृत्व ने इस मोर्चे पर व्यवस्था की है.
अमित शाह ने दिये इस बात के संकेत
बीजेपी के शीर्ष नेता अमित शाह ने इस बात के संकेत दिए हैं कि भले ही बीजेपी जदयू से ज्यादा सीटें हासिल करे, लेकिन नीतीश कुमार ही सीएम होंगे. इसका मतलब है कि बीजेपी पहले से ही मान रही है कि जेडीयू की तुलना में भगवा पार्टी को ज्यादा सीटें मिलेंगी. बयान को इस तरह से भी पढ़ा जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा जदयू के खिलाफ बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी.
राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणी
एक अन्य राजनीतिक पंडित ने जोर देकर कहा कि अगर कोई सत्ता विरोधी कारक है. लोगों ने किसी दूसरी जगह को हमला करने के लिए चुना. जमीन पर कई स्थानीय कारण हो सकते हैं. उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण किया जाता है तो आदमी यह दावा कर सकता है कि यह उसके घर से नहीं गुजरी है, अगर बिजली है, तो वह दावा कर सकता है कि यह उसके घर तक नहीं पहुंची है.
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15 साल के काम की तुलना
उन्होंने कहा, नीतीश के खिलाफ नाराजगी बहुत अधिक है और यह एक दिन में नहीं बनी है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के काम की तुलना लालू प्रसाद के 15 सालों से कर रहे हैं. आपको बता दें कि लोग इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. 2005 से लालू की तस्वीर नहीं है और पिछले 15 वर्षों में बड़ा नाटक हुआ है. नाटक 2009 में शुरू हुआ और 2017 में समाप्त हुआ.
'कड़वे रिश्ते की शुरुआत'
विशेषज्ञ ने कहा कि ये राजनीतिक नाटक अचानक नहीं हुआ. यह सब जब लुधियाना में राजग की एक बैठक हुई, जिसमें नीतीश और पीएम नरेंद्र मोदी मौजूद थे, जिस फोटो में पीएम नरेंद्र मोदी ने नीतीश का हाथ पकड़ा था, उसने दोनों नेताओं के बीच कड़वे रिश्ते की शुरुआत की.
'17 साल पुराने रिश्ते तोड़े'
उन्होंने आगे कहा कि उसी तस्वीर ने उन्हें तब परेशान किया जब 2009 में बिहार में आई बाढ़ के लिए पीएम मोदी की ओर से पांच करोड़ रुपए दान देने के लिए पांच करोड़ रुपए का विज्ञापन देकर धन्यवाद दिया. नीतीश बहुत परेशान थे और उन्होंने न केवल पैसा लौटा दिया बल्कि राजग नेताओं के लिए उनके आधिकारिक आवास एक, अणे मार्ग में डिनर पार्टी भी रद्द कर दी. नीतीश ने हमेशा से पीएम नरेंद्र मोदी को एक सांप्रदायिक व्यक्ति और विभाजनकारी राजनीति में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के रूप में देखा था. उन्हीं पीएम मोदी के मुद्दे पर नीतीश भी बीजेपी के साथ अपने 17 साल पुराने रिश्ते को तोड़ कर चले गए.
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इन बातों पर नीतीश कुमार ने साधी चुप्पी
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में अपमानजनक हार मिलने के बाद नीतीश ने इस्तीफा दे दिया था, हालांकि यह विधानसभा चुनाव नहीं था. जीतन राम मांजी को सीएम बनाया और जिनके खिलाफ वह हमेशा जहर उगलते थे उस समय लालू प्रसाद से फिर से हाथ मिला लिया. एक बार फिर उन्होंने राजद से नाता तोड़ लिया और पीएम नरेंद्र मोदी से हाथ मिला लिया तो ये राजनीतिक नाटक हैं, जो पिछले 15 वर्षों में हुए थे, जिनके बारे में नीतीश बात नहीं कर रहे हैं.
2009 से 2017 के बीच का सफर
विशेषज्ञ ने कहा कि इसलिए बिहार के लोग मूर्ख नहीं हैं. अगर नीतीश कुमार लालू के 15 साल के बारे में बात कर रहे हैं, तो उन्हें अपने पहले कार्यकाल के बारे में भी बात करनी चाहिए, जो उन्होंने 2009 से 2017 के बीच में और आज तक जारी रखा है. इसलिए ये बातें लोगों के दिमाग में भी हैं जो अब विरोध और आंदोलन का रूप ले चुकी हैं. इस तरह की चीजें लोगों को आवेगी भी बनाती हैं. नीतीश के सीएम के रूप में कार्यकाल को याद करने के बाद मन में विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं. नीतीश एक पार्टी से दूसरे पार्टी में वफादारी को बदलने में गर्व महसूस करते हैं.
'रोजगार के अवसर पैदा करने में विफल'
बिहार में बेरोजगारी का सामना कर रहे युवाओं में आक्रोश है. यह विरोध का दूसरा कारण है. नीतीश ने राज्य में शानदार काम करने का दावा किया, लेकिन कहीं न कहीं वह रोजगार के अवसर पैदा करने में विफल रहे हैं जिसकी वजह से 'बिहारी' दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर हैं.
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परियोजनाओं पर हजारों करोड़ रुपये का खर्च
सीएम नौकरियों का सृजन करने के लिए धन की अनुपलब्धता का उदाहरण देते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का सुझाव है कि ऐसी कई परियोजनाएं हैं, जिन पर नीतीश ने हजारों करोड़ रुपये खर्च किए हैं और युवाओं के लिए रोजगार सृजन के लिए धन का उपयोग आसानी से किया जा सकता है.
22 करोड़ रुपए का भुगतान
एक उदाहरण पटना अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय का था, जिस पर पटना उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि सार्वजनिक धन को पारदर्शी तरीके से और औचित्य के साथ खर्च किया जाना चाहिए. एक जनहित याचिका के जवाब में अदालत ने बिहार सरकार से संग्रहालय पर खर्च को उचित ठहराने के लिए कहा था. बिहार सरकार ने कनाडा की एक फर्म को परामर्श शुल्क के रूप में 22 करोड़ रुपए का भुगतान किया है.
बिहार में चुनाव का हाल
आने वाले दिनों में जब बिहार में चुनाव अपने शिखर पर पहुंच जाएगा तो नीतीश को अपनी रैलियों के दौरान अधिक विरोध और आंदोलन का सामना करना पड़ सकता है. जब 10 नवंबर 2020 को परिणाम घोषित किए जाएंगे तब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि विरोध वास्तव में नीतीश को नुकसान पहुंचाता है या नहीं.