कोलकाता : दो नवंबर, 1990 की घटना को याद कर कोलकाता के बड़ा बाजार की रहने वाली पूर्णिमा कोठारी बहुत ही भावुक हो जाती हैं. उन्होंने कहा कि मेरे दो भाइयों ने जिस वजह से अपनी जान दी थी, आज वह सफल हो रहा है. यह उनके लिए प्रसन्नता का विषय है. दरअसल, दो नवंबर, 1990 को अयोध्या में पुलिस की फायरिंग में उनके दो भाइयों की जान चली गई थी. आइए जानते हैं विस्तार से क्या हुआ था उन दोनों भाइयों के साथ.
सितंबर 1990 को क्या हुआ था
1990 के सितंबर का महीना था. राम मंदिर आंदोलन में भाग लेने के लिए विश्व हिंदू परिषद ने बंद का आह्वान कर रखा था. 15 सितंबर को गुजरात स्थित सोमनाथ मंदिर से रैली निकलने वाली थी. इसका नेतृत्व लाल कृष्ण आडवाणी करने वाले थे. इसे लेकर पूरे देश में बहस छिड़ी हुई थी. कोलकाता के कोठारी बंधु ने इस रैली में हिस्सा लेने का निर्णय लिया. तब राम कुमार कोठारी 22 साल के और उनके भाई शरद कुमार कोठारी 20 साल के थे. जाने से पहले उन्होंने अपने पिता हीरालाल से इजाजत मांगी. शुरुआत में उनके पिता अचरज में पड़ गए. क्योंकि उनकी बेटी पूर्णिमा की शादी अगले दो हफ्तों में ही होनी थी.
शादी की तैयारियां हो चुकी थीं. इसके बावजूद पिता अपने बेटों की इच्छा के आगे झुक गए. उन्होंने उन्हें जाने की इजाजत दे दी. 22 अक्टूबर को वे अपने घर से निकल पड़े. अयोध्या की ओर जाने वाले सारे प्रमुख मार्गों पर यूपी पुलिस नजर रख रही थी. लिहाजा, कार सेवकों ने वाराणसी से दूसरे कई रास्तों का सहारा लेना शुरू कर दिया. 30 अक्टूबर को राम कुमार और उनके भाई अयोध्या पहुंच गए. हनुमान गढ़ी के पास सारे कारसेवक एकत्रित हो रहे थे. उसके बाद वे धीरे-धीरे विवादास्पद ढांचे की ओर बढ़ने लगे. ये दोनों भाई आगे-आगे चल रहे थे. अंततः पुलिस ने इस भीड़ को रोक दिया. पूर्णिमा ने कहा कि दो नवंबर को जो कुछ हुआ, उसकी शुरुआत 30 अक्टूबर 1990 को हो चुकी थी.
पूर्णिमा की जुबानी
'मेरे भाई 30 अक्टूबर को भगवा झंडा लेकर आगे से भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे. वे तभी से पुलिस के निशाने पर आ गए थे. दो नवंबर को हनुमानगढ़ी के पास वे दोनों भजन गा रहे थे. तभी पुलिस वहां पहुंची और उसने भीड़ को हटने का हुक्म दिया. इस बीच अचानक ही पुलिस और भीड़ के बीच कहा-सुनी हो गई. पुलिस ने पहले लाठी चार्ज किया और उसके बाद फायरिंग का आदेश दे दिया. अन्य कार सेवकों के साथ मेरे भाई ने पास के एक मंदिर में शरण ले ली. वे वहीं छिपे हुए थे. तभी वहां पर किसी ने पानी मांगा. सबने सोचा कि किसी कार सेवक को पानी चाहिए. इसलिए शरद ने मंदिर का दरवाजा खोला.'
बकौल पूर्णिमा, 'शरद जैसे ही बाहर निकला, पुलिस ने जबरन उसे खींच लिया. उसके बाद उसको गोली मार दी. वे उन्हें घसीटकर ले गए. यह देखकर राम से रहा नहीं गया. वह बाहर निकला. लेकिन पुलिस ने उसे भी गोली मार दी. उस दिन 16 कार सेवक मारे गए थे... मेरा भाई उसी दिन हमसे सदा-सदा के लिए बिछुड़ गया. हनुमानगढ़ी से मेरे भाई का शव निकाला गया. अयोध्या की इस गली को आज भी शहीद की गली कहा जाता है.'
पूर्णिमा ने कहा कि उन्हें भी राम मंदिर ट्रस्ट की ओर से आमंत्रित किया गया है. मैं बहुत ही खुश हूं कि आखिर इतने सालों बाद मेरे भाई की 'शहादत' काम आई. मैं अयोध्या में अपने दोनों भाइयों का गर्व से प्रतिनिधित्व करूंगी.