नई दिल्ली: एक पुरानी चीनी कहावत है, 'एक पहाड़ में दो बाघ साथ-साथ नहीं रह सकते हैं.' इसका मतलब है कि एक भूगोल में दो मजबूत राष्ट्र मौजूद नहीं हो सकते हैं. आज के भू-रणनीतिक परिप्रेक्ष्य में यह बताने की जरूरत नहीं है कि भूगोल का मतलब एशिया है और दो बाघ चीन और भारत हैं. चीन स्वंय को झोंगगौ या मध्य साम्राज्य के रूप में मानता है.
इसका अर्थ ये है कि वह अपने को दुनिया का केन्द्र बिंदु समझता है. चीन अपने को दूसरों के मुकाबेल सर्वश्रेष्ठ समझता है. यही वजह है कि वह दूसरे देशों के साथ बराबरी के स्तर से जुड़ नहीं पाता है.
भारत और चीन दुनिया की दो सबसे प्राचीन सभ्यताएं हैं. दोनों के बीच दुर्जेय हिमालय पर्वत है. चीन के नेता बार-बार यही कहते हैं कि 99 फीसदी समय दोनों देशों के बीच अच्छे से कटता है. पूर्व आधुनिक युग में यह सच था. लेकिन 1950 के दशक के उत्तरार्ध के बाद स्थिति बदली है. यानि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी बनने के बाद.
आर्थिक और सैन्य शक्ति के विकास के साथ-साथ चीन की मुखरता और महत्वाकांक्षा दोनों बढ़ी है. भारत के मुकाबले चीन की जीडीपी (2017 में $12 ट्रिलियन) कम से कम चार गुना अधिक है. रक्षा बजट में यही अनुपात है. चीनी सेना के आधुनिकीकरण की गति किसी भी देश से ज्यादा है. भारतीय नौसेना के प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा ने हाल ही में उल्लेख किया था कि चीन ने पिछले पांच वर्षों में 80 नए जहाज जोड़े हैं.
पिछले 200 सालों में किसी भी देश की नौसेना ने इतनी तेजी से विकास नहीं किया है. 2022 तक चीन के पास तीन एयरक्राफ्ट कैरियर का एक बेड़ा होगा, जो इसे ब्लू वाटर नेवी के सपने के करीब ला रहा है.
पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने कहा, 'भारत को आर्थिक, सैन्य और अब तकनीकी' लगभग सभी श्रेणियों में 'चीन की निराशाजनक वास्तविकता' को समझकर उस पर काम करने की जरूरत है. लंबे समय से चले आ रहे चीन-पाकिस्तान गठजोड़ का असर भारत के लिए और घातक होगा.
भारत के प्रति हमेशा शत्रुता का भाव रखने वाला पाकिस्तान चीन के बढ़ते पंजे को देखकर बहुत खुश है. बदले में चीन पाकिस्तान को परमाणु और बैलिस्टिक मिसाइल प्रौद्योगिकी समेत वित्तीय और सैन्य सहायता उपलब्ध करवा रहा है. पाक आश्वस्त है कि भारत के साथ युद्ध छिड़ने की स्थिति में चीन उसके साथ खड़ा होगा. चीन आतंकवाद की निंदा करता है लेकिन मसूद अजहर के नाम पर वह 10 साल तक टालमटोल करता रहा. उसे वैश्विक आतंकी घोषित करवाने से पीछे हटता रहा.
आतंक का वित्तपोषण करने के कारण अगले महीने पेरिस में होने वाली फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की बैठक में चीन फिर से पाक को ब्लैकलिस्ट करवाने से बचाएगा. चीन एकमात्र प्रमुख शक्ति है जो कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए पाकिस्तान के गुमराह करने के प्रयासों का समर्थन कर रही है, भारत की संसद ने अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त करने का संकल्प लिया, जिसने अस्थायी रूप से जम्मू-कश्मीर को एक विशेष स्वायत्तता का दर्जा दिया था.
आइए फिर हम भारत और चीन के बीच 4000 किमी लंबी (अनिर्धारित) सीमा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आते हैं. जिस तरह का यह इलाका है, लगभग हर साल यहां पर सौ से ज्यादा घुसपैठ की घटनाएं होती हैं. इसके बावजूद इसे जल्दी से हल कर लिया जाता है. इसके लिए बहुत हद तक 1993 में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को लेकर हुआ समझौता कारगर कहा जा सकता है. तनाव के बावजूद दोनों ओर से गोली नहीं चलती है. हालांकि, दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण और बड़ी यात्रा से पहले ऐसी घटनाएं आमतौर पर बढ़ जाती हैं. ऐसा कहा जा सकता है कि चीन बार-बार भारतीय सुरक्षा और उसके संकल्प की परीक्षा लेता रहता है.
जून - अगस्त 2017 के दौरान डोकलाम पठार को लेकर विवाद हो गया था. यह 73 दिनों तक चला था. जियामेन में ब्रिक्स सम्मेलन से ठीक पहले इस विवाद पर विराम लगा था. वहीं पर अनौपचारिक शिखर सम्मेलन को लेकर बातचीत हुई. इसके बाद वुहान में 2018 में मोदी और जिनपिंग के बीच अनौपचारिक बातचीत हुई थी. दो दिनों में दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडलों के बीच छह बार बैठक हुई.
बीजिंग में रह चुके पूर्व भारतीय दूत ने इसका वर्णन किया - 'दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण, उसके सपने, उसके लक्ष्यों और उद्देश्यों, उसके आकलन और उसकी रणनीतियों को समझने के लिए एक अभ्यास'. इस पर भारत में एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने पर सहमति हुई, जो 11-12 अक्टूबर को वाराणसी में होने की संभावना है.
हालांकि, ये भी सच्चाई है कि अभूतपूर्व जुड़ाव का यह माहौल ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका. वुहान की भावना धीमी पड़ गई. चीन के साथ हमेशा विरोधी संबंध रखना भारत के लिए भी अच्छा नहीं होगा. अमेरिका जैसे प्रमुख वार्ताकारों के साथ बातचीत में यह फैक्टर हमें हमेशा महत्वपूर्ण रहता है. वैसे भारत हमेशा द्विपक्षीय अभिसरणों का निर्माण करने और मतभेदों को कम करने का प्रयास करत रहता है.
दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ रहा है. लेकिन चीन में गैर-टैरिफ अवरोधों को जारी रखने के लिए व्यापार घाटा (2018 में $ 57.86 बिलियन, 2017 में 51.72 बिलियन डॉलर) है, भारत से अधिक संख्या में छात्र चीन जा रहे हैं.
करीब 21,000 भारतीय छात्र चीन के 100 विश्वविद्यालयों में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे हैं. चीन में दंगल जैसी फिल्में खूब पसंद की जा रही हैं. इससे बॉलीवुड की भी धाक जम रही है.
हालांकि, चीन भारत की मुख्य चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाता है, फिर चाहे वह सीमा का मसला हो या आतंकवाद के मुद्दे हों. भारत की एनएसजी और यूएनएससी की सदस्यता का मामला हो या पाकिस्तान का मुद्दा हो.
दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलिया के पूर्व विदेश सचिव पीटर वर्गीस का मानना है कि चीन चाहता है कि दुनिया अपने मूल हितों के लिए आत्मसमर्पण करे. वह आगे कहते हैं कि चीन को नियंत्रित करना संभव है, लेकिन उसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है.
क्वैड (ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और भारत) जैसे समूह चीन को संकेत दे चुके हैं कि उनका आक्रामक रवैया उनके हित में नहीं है. इसकी कीमत चुकानी होगी. चीन के ऊपर जब बाहरी दबाव बनता है, तो वह थोड़ा नरम रवैया अपना लेता है. जैसे कि वर्तमान में है. अमेरिका के साथ व्यापार विवाद, बीआरआई पर दुनिया के दूसरे देशों की प्रतिक्रिया, और द. चीन सागर में सैन्यकरण का मुद्दा.
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इस तरह की पृष्ठभूमि में वाराणसी शिखर सम्मेलन होगा. चीन अल्पावधि में भी भारत के साथ बाड़ लगाने के लिए खुला हो सकता है. लोगों को विशेष रूप से युवाओं और खेल के आदान-प्रदान को बढ़ावा मिल सकता है. व्यापार के मुद्दों पर कुछ प्रमुख संभावना है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण परिणाम बैठक ही है ! उच्चतम स्तर पर हमेशा लगे रहने से घने कोहरे छटते हैं.
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भारतीय कूटनीति के सामने बड़ी चुनौती चीन के साथ प्रतिकूल संबंधों का उचित प्रबंधन करना और उन्हें निर्णायक मोड़ से रोकना है. भारत को अमेरिका, जापान, इंडोनेशिया जैसे प्रजातांत्रिक देशों के साथ संबंध प्रगाढ़ रखने होंगे. अपनी अर्थव्यवस्था और सैन्य क्षमताओं को मजबूत रखना होगा. साथ ही चीन से मिलने वाले सरप्राइजेज के लिए भी हमेशा तैयार रहना होगा.
(लेखक- विष्णु प्रकाश पूर्व राजनयिक हैं)