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डीडीसी चुनाव : चुनाव कराना एक विधि सम्मत लोकतांत्रिक प्रक्रिया है

केंद्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में चल रहे जिला विकास चुनाव (डीडीसी) ने पूरे राजनीतिक कथा को बदल दिया है. इस प्रकार इस चुनाव प्रक्रिया ने एक ऐसी समस्या के राजनीतिक समाधान तलाशने का एक वैध तरीका बना दिया है जो दशकों से खून खराबे का गवाह रहा है. पढ़ें ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट की यह रिपोर्ट...

डीडीसी चुनाव : चुनाव कराना एक विधि सम्मत लोकतांत्रिक प्रक्रिया है
डीडीसी चुनाव : चुनाव कराना एक विधि सम्मत लोकतांत्रिक प्रक्रिया है
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Published : Dec 1, 2020, 10:15 AM IST

कश्मीर जैसे स्थान पर अशांति की वजह से हर जगह मताधिकार का इस्तेमाल करना एक चुनौती रही है. कश्मीर में चुनाव एक अमान्य बात रही है, लेकिन डीडीसी (जिला विकास परिषद) के चुनावों से समाज में चुनावी राजनीति के लिए स्वीकार्यता बढ़ी है.

चुनावी राजनीति की वैधता सामान्य दिनचर्या में खलल के अलावा 1987 से ही जारी कश्मीर संघर्ष की पहली आकस्मिक घटना है. विभिन्न आतंकवादी समूह चुने हुए प्रतिनिधियों को निशाना बनाते रहे. उनमें से ज्यादातर पर भारतीय बयान ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ का लेबल लगा होता था. जम्मू और कश्मीर में लगभग 5 हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या देखी गई है. इनमें अधिकतर मुख्यधारा के विभिन्न दलों के थे और हिंसा में विश्वास करने के साथ-साथ मत-पत्र के माध्यम से भी समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे.

केंद्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में चल रहे जिला विकास चुनाव (डीडीसी) ने पूरी राजनीतिक कथा को बदल दिया है. इस प्रकार इस चुनाव प्रक्रिया ने एक ऐसी समस्या के राजनीतिक समाधान तलाशने का एक वैध तरीका बना दिया है जो दशकों से खून खराबे का गवाह रहा है.

चुनावों के बहिष्कार से स्वीकृति मे बदलाव की जड़ें उस फैसले में हैं जिसे 5 अगस्त 2019 को मौजूदा व्यवस्था के तहत लिया गया. खासकर जब जम्मू और कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा निरस्त कर दिया गया और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बदल दिया गया. एक विधानसभा सहित और दूसरा इसके बगैर.

राजनीतिक दल जो चुनावों में भाग लेते थे, उन्हें बगैर किसी सहायता के छोड़ दिया गया क्योंकि उनकी पार्टियों के एजेंडे की शुरुआत ही विशेष दर्जा से थी. इससे पहले कि वे कुछ हल्ला मचाते केंद्र सरकार ने उनके नेताओं को या तो सलाखों के पीछे डाल दिया या उन्हें अपने आवासों पर रखा, जिन्हें महीनों तक सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उप जेलों में बदले रखा गया. इनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य के कबीना मंत्री और पूर्व संसद सदस्य शामिल थे.

उनकी रिहाई के बाद भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने कश्मीर में अपना वोट आधार बनाना शुरू कर दिया और यह माना कि क्षेत्रीय दल अपनी चुनाव बहिष्कार की रणनीति में अलगाववादियों से हाथ मिलाएंगे. लेकिन दलों ने इसके बजाय भाजपा के खिलाफ हाथ मिलाया और सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ सबने मिलकर मोर्चा खोल दिया. ऐसा लगा कि बीजेपी हतोत्साहित हो गई. सरकार पर आरोप है कि डीडीसी चुनावों में भाजपा के खिलाफ मैदान में उतरे उम्मीदवारों के कहीं आने-जाने पर रूप से प्रतिबंध लगा दिया. इससे पहले कि सत्तारूढ़ दल की कथित ओछी राजनीति वायरल होती और कुछ शर्मिंदगी उठानी पड़ती राज्य के निर्वाचन अधिकारी ने कह दिया कि प्रतिबंध सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए लगाए गए हैं.

कश्मीर में डीडीसी चुनाव के मतदान पहले चरण में बड़ी संख्या मे मतदाताओं ने निडर होकर भाग लिया. विश्लेषक मानते हैं कि यह बदलाव का एक प्रमुख उदाहरण है और एक नई वास्तविकता पर सहमति है कि चुनाव में भाग लेना वर्जित नहीं है. मुक्त व्यवहार से चुने गए गुपकर गठबंधन के सदस्यों को समाज में राहत और स्वीकृति मिली है.

टेलीविजन के स्क्रीन सभी उम्र के महिला-पुरुष मतदाताओं से भर गए, जो बिना किसी हिचकिचाहट के कैमरे का सामना कर रहे थे. अलगाववादी गुटों की ओर से चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया और बाद में विभिन्न उग्रवादी गुटों ने इसका समर्थन किया या फिर सहायता भी दी. नहीं तो जैसा कि पहले देखा गया था इस क्षेत्र में पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया अमान्य हो जाती.

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद उभर कर सामने आई समस्या का हल खोजने के साधन के रूप में इसी प्रक्रिया को देखा जा रहा है. चुनाव लड़ने वाले दलों के अपने एजेंडे हैं जो 5 अगस्त के फैसले को घेरे हुए हैं. बीजेपी और उसकी टीम बी अल्ताफ बुखारी की अगुवाई वाली 'अपनी पार्टी' यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि अनुच्छेद- 370 को निरस्त करना उसके मकसद को महसूस कराया है, जबकि गुपकर गठबंधन का लक्ष्य विशेष दर्जा बहाल कराना है. अब दर्शकों को चुनाव परिणाम आने तक इंतजार करना होगा कि क्या भाजपा का उद्देश्य पूरा हो गया है या उन्हें लोगों को जीतने के लिए कोई और रणनीति बनानी होगी.

कश्मीर जैसे स्थान पर अशांति की वजह से हर जगह मताधिकार का इस्तेमाल करना एक चुनौती रही है. कश्मीर में चुनाव एक अमान्य बात रही है, लेकिन डीडीसी (जिला विकास परिषद) के चुनावों से समाज में चुनावी राजनीति के लिए स्वीकार्यता बढ़ी है.

चुनावी राजनीति की वैधता सामान्य दिनचर्या में खलल के अलावा 1987 से ही जारी कश्मीर संघर्ष की पहली आकस्मिक घटना है. विभिन्न आतंकवादी समूह चुने हुए प्रतिनिधियों को निशाना बनाते रहे. उनमें से ज्यादातर पर भारतीय बयान ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ का लेबल लगा होता था. जम्मू और कश्मीर में लगभग 5 हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या देखी गई है. इनमें अधिकतर मुख्यधारा के विभिन्न दलों के थे और हिंसा में विश्वास करने के साथ-साथ मत-पत्र के माध्यम से भी समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे.

केंद्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में चल रहे जिला विकास चुनाव (डीडीसी) ने पूरी राजनीतिक कथा को बदल दिया है. इस प्रकार इस चुनाव प्रक्रिया ने एक ऐसी समस्या के राजनीतिक समाधान तलाशने का एक वैध तरीका बना दिया है जो दशकों से खून खराबे का गवाह रहा है.

चुनावों के बहिष्कार से स्वीकृति मे बदलाव की जड़ें उस फैसले में हैं जिसे 5 अगस्त 2019 को मौजूदा व्यवस्था के तहत लिया गया. खासकर जब जम्मू और कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा निरस्त कर दिया गया और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बदल दिया गया. एक विधानसभा सहित और दूसरा इसके बगैर.

राजनीतिक दल जो चुनावों में भाग लेते थे, उन्हें बगैर किसी सहायता के छोड़ दिया गया क्योंकि उनकी पार्टियों के एजेंडे की शुरुआत ही विशेष दर्जा से थी. इससे पहले कि वे कुछ हल्ला मचाते केंद्र सरकार ने उनके नेताओं को या तो सलाखों के पीछे डाल दिया या उन्हें अपने आवासों पर रखा, जिन्हें महीनों तक सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उप जेलों में बदले रखा गया. इनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य के कबीना मंत्री और पूर्व संसद सदस्य शामिल थे.

उनकी रिहाई के बाद भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने कश्मीर में अपना वोट आधार बनाना शुरू कर दिया और यह माना कि क्षेत्रीय दल अपनी चुनाव बहिष्कार की रणनीति में अलगाववादियों से हाथ मिलाएंगे. लेकिन दलों ने इसके बजाय भाजपा के खिलाफ हाथ मिलाया और सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ सबने मिलकर मोर्चा खोल दिया. ऐसा लगा कि बीजेपी हतोत्साहित हो गई. सरकार पर आरोप है कि डीडीसी चुनावों में भाजपा के खिलाफ मैदान में उतरे उम्मीदवारों के कहीं आने-जाने पर रूप से प्रतिबंध लगा दिया. इससे पहले कि सत्तारूढ़ दल की कथित ओछी राजनीति वायरल होती और कुछ शर्मिंदगी उठानी पड़ती राज्य के निर्वाचन अधिकारी ने कह दिया कि प्रतिबंध सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए लगाए गए हैं.

कश्मीर में डीडीसी चुनाव के मतदान पहले चरण में बड़ी संख्या मे मतदाताओं ने निडर होकर भाग लिया. विश्लेषक मानते हैं कि यह बदलाव का एक प्रमुख उदाहरण है और एक नई वास्तविकता पर सहमति है कि चुनाव में भाग लेना वर्जित नहीं है. मुक्त व्यवहार से चुने गए गुपकर गठबंधन के सदस्यों को समाज में राहत और स्वीकृति मिली है.

टेलीविजन के स्क्रीन सभी उम्र के महिला-पुरुष मतदाताओं से भर गए, जो बिना किसी हिचकिचाहट के कैमरे का सामना कर रहे थे. अलगाववादी गुटों की ओर से चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया और बाद में विभिन्न उग्रवादी गुटों ने इसका समर्थन किया या फिर सहायता भी दी. नहीं तो जैसा कि पहले देखा गया था इस क्षेत्र में पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया अमान्य हो जाती.

अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद उभर कर सामने आई समस्या का हल खोजने के साधन के रूप में इसी प्रक्रिया को देखा जा रहा है. चुनाव लड़ने वाले दलों के अपने एजेंडे हैं जो 5 अगस्त के फैसले को घेरे हुए हैं. बीजेपी और उसकी टीम बी अल्ताफ बुखारी की अगुवाई वाली 'अपनी पार्टी' यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि अनुच्छेद- 370 को निरस्त करना उसके मकसद को महसूस कराया है, जबकि गुपकर गठबंधन का लक्ष्य विशेष दर्जा बहाल कराना है. अब दर्शकों को चुनाव परिणाम आने तक इंतजार करना होगा कि क्या भाजपा का उद्देश्य पूरा हो गया है या उन्हें लोगों को जीतने के लिए कोई और रणनीति बनानी होगी.

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