नई दिल्ली : पिछले हफ्ते मशहूर पुरातत्ववेत्ता डॉ बीबी लाल का निधन हो गया. अपनी खोजों के ज़रिए भारतीय पुरातत्व को उन्होंने एक नई दिशा दी थी. उन्होंने मशहूर ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मॉर्टिमर व्हीलर के साथ तक्षशिला और हड़प्पा की खुदाई में बतौर ट्रेनी काम किया था और आज़ादी के बाद 1950 से 1952 के बीच महाभारत में वर्णित हस्तिनापुर की खुदाई भी की. बाद में 1975-76 में उन्होंने अयोध्या समेत रामायण से जुड़ी चार जगहों पर भी काम किया. उनके शिष्य और उनके साथ 1976 में रामायण से जुड़े स्थलों की खुदाई में काम करने वाले आर्कियोलॉजिस्ट डॉ केके मोहम्मद ने ईटीवी भारत के नेशनल ब्यूरो चीफ राकेश त्रिपाठी से अपने गुरू डॉ लाल की यादें साझा कीं.
उन्होंने कहा, 'वे कहते थे कि एक आर्केयॉलॉजिस्ट का काम ठीक उसी तरह का है, जैसे किसी डॉक्टर का काम पोस्टमॉर्टम करने का. पोस्टमॉर्टम के ज़रिए डॉक्टर बताता है कि मौत कैसे हुई है, किस चीज़ से हुई है. उसे ये नहीं देखना चाहिए कि मरने वाला हिंदू था या मुस्लिम. आर्केयॉलॉजिस्ट का काम भी ठीक वैसा ही है. उसे धर्म को अलग रख कर पुरातत्व का काम करना पड़ता है.'
ये शब्द हैं अपने गुरू डॉ बी बी लाल से आर्केयोलॉजी का ककहरा सीखने वाले के के मुहम्मद के. वे आगे कहते हैं- 'हम सब ने बिलकुल वैसे ही अपना काम किया. मैं भी अयोध्या की खुदाई में था, अकेला मुस्लिम था, हमें न इस्लाम से मतलब था, न हिंदू धर्म से. जो था हमने बता दिया. जैसे मुसलमानों के लिए मक्का इम्पॉर्टेंट हैं, हिंदुओं के लिए अयोध्या है.'
केके मुहम्मद बताते हैं कि डॉ लाल का सबसे बड़ा योगदान ये था कि वो महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों से जुड़ी जगहों की खुदाई कर उनके बारे में सच्चाई धरातल तक ले आए. उससे पहले इन दोनों से जुड़ी बातें सिर्फ कपोल कल्पनाएं मानी जाती थीं. हस्तिनापुर की खुदाई में 1952 में जो नतीजे निकले, उन्होंने उसे ऐतिहासिक जामा पहनाते हुए साबित किया कि महाभारत सिर्फ एक कहानी नहीं है. हस्तिनापुर की खुदाई में जो अवशेष मिले, उनके मुताबिक पांडवों के वानप्रस्थ के लिए जाने के बाद उनके वंशजों ने हस्तिनापुर में राज किया. लेकिन एक पीढ़ी के बाद वहां भयंकर बाढ़ आई, जिसमें सब कुछ बह गया. उसकी वजह से राजा हस्तिनापुर से कौशांबी की ओर कूच कर गए और वहां जा कर अपना राज्य फिर से स्थापित किया.
उन्होंने कहा, 'डॉ लाल ने हस्तिनापुर की जो खुदाई की, तो उन्हें वहां कई जेनरेशन के अवशेष मिले. साथ ही बाढ आने के बाद के समय की लेयर भी मिल गई. ये बहुत बड़ी सफलता थी. इसी प्रलय का विवरण वायु पुराण में किया गया था. इस घटना की ऐतिहासिकता को सच का जामा उन्होंने ही पहनाया. लेकिन साथ ही ये भी कहा कि महाभारत महाकाव्य में लड़ाई का जो विवरण मिला है, उसमें अतिरेक भी खूब है यानी घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है.'
डॉ लाल के बारे में के के मुहम्मद बताते हैं कि जॉन मार्शल हड़प्पा की सभ्यता की खोज के बाद भारत के इतिहास को 2500 बीसी तक ले गए. उसके बाद कई पुरातत्वविदों ने बताया कि हड़प्पा और 600 बीसी के बीच वैदिक काल में क्या क्या हुआ, लोग कैसे थे, किस तरह का कपड़ा पहनते थे, कैसा खाना खाते थे, कैसी संस्कृति थी. डॉ लाल इनमें सबसे खास थे- 'उन्होंने पांडवों के उन पांच गांवों की भी खोज की, जो पांडवों को कौरवों ने दिए थे. तिलपत, बागपत और सोनीपत उन्हीं में से हैं जो दिल्ली और मेरठ के आसपास के ही इलाके हैं. वहां भी इन्होंने खुदाई की, जहां सब से नीचे इनको एक Pottery मिली है, जिसे हम PGW यानी पेंटेड ग्रेवेयर कहते हैं. ये ग्रे कलर का बर्तन है, जो हस्तिनापुर में भी मिला था. तो ये सोचा गया कि महाभारत काल के लोग इस तरह के बर्तनों का इस्तेमाल करते थे. पुरातत्व के क्षेत्र में ये सब रिवोल्यूशन लाने वाले डॉ बी बी लाल ही थे.'
केके मुहम्मद बताते है कि जब अयोध्या की खुदाई में मस्ज़िद के नीचे मंदिर के पिलर की नींवें मिल गईं तो क्या हुआ- 'बहुत सारी मूर्तियां भी मिलनी शुरू हो गईं. डॉ लाल उस समय खुदाई में जो भी मिला, उसे लेकर विवाद नहीं खड़ा करना चाहते थे. लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकारों रोमिला थापर, आर एस शर्मा ने ये कहना शुरू किया कि बीबी लाल ने जो खुदाई की, उसमें मंदिर का कोई अवशेष नहीं मिला, इसलिए मुसलमानों को ये जगह हिंदुओं को नहीं देना चाहिए. मार्क्सवादी इतिहासकारों के अखबारों में अच्छे संपर्क थे, तो इन लोगों ने ये बदमाशी की, कहना शुरू किया कि खुदाई में कोई प्रमाण नहीं मिले मंदिर के. तो लाल साहब को भी अंत में खुद को डिफेंड करना पड़ा. इसके लिए उन्होंने जो-जो चीज़ें खुदाई में मिली थीं, वो सब सामने रखीं. उन्हें कहना पड़ा कि खुदाई में ये सब मिला है और इससे ये साबित होता है कि मस्ज़िद के नीचे मंदिर था. ये 70 के दशक की बात है. बाद में जब मद्रास में मैं डिप्टी सुपरिंटेंडेंट था, मैनें उनकी खोज का समर्थन करते हुए एक बयान जारी किया. मैंने उस बयान में कहा कि मैं डॉ लाल के निर्देशन में हुई खुदाई में शामिल अकेला मुस्लिम हूं और इस बात का गवाह हूं कि खुदाई में मस्ज़िद के नीचे मंदिर मिला है. मैंने ये भी कहा कि इस बारे में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने बिना सबूत देखे सारी बातें कही हैं. मेरे उस बयान से इन सबकी बोलती बंद हो गई.'
ये पूछने पर कि उस वक्त अयोध्या की खुदाई के वक्त क्या उन पर कोई राजनैतिक दबाव भी डाला गया, के के मुहम्मद बताते हैं- 'वे पुरातत्व विभाग के सबसे युवा डायरेक्टर जनरल रहे. नूरुल हसन के पहले एक संस्कृति मंत्री थे, जो आंध्रप्रदेश से थे, उन्होंने डॉ लाल की खोजों को लेकर आपत्ति की थी, विरोध भी किया था. मार्क्सवादी पहले ही उनसे नाराज़ थे. डॉ लाल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे, इसलिए उन्होंने स्वेच्छा से रिटायरमेंट ले लिया. चूंकि पुरातत्व को लेकर वो ज़मीन पर काम करते रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बाद में शिमला में पुरातत्व का इंस्टीट्यूट ज्वाइन कर लिया. हमें भी उन्होंने वहां पढ़ाया. उनके समर्थन में जब मैंने बयान दिया तो मार्क्सवादी इतिहासकारों ने मुझे नौकरी से निकलवाने की खूब कोशिशें भी कीं. ये 1990 की बात है. नौकरी तो नहीं गई , लेकिन वे मेरा ट्रांसफर करवा कर ही माने और मुझे मद्रास से गोवा भेज दिया गया. बाद में जब मैं पटना में पोस्टेड था, तो वो एक कार्यक्रम में आए और व्यक्तिगत तौर पर मुझसे कहा कि तुमने जो बयान दिया है वो असाधारण है और एक पुरातत्ववेत्ता को ऐसे ही (धर्म से परे) सोचना और काम करना चाहिए.'
गुरू को याद करते हुए के के मुहम्मद एक और घटना का ज़िक्र करते हैं- 'सालों बाद जब मैंने चंबल घाटी में बटेश्वर के विष्णु और शिव मंदिरों के पुनरुद्धार का काम शुरू करना चाहा, तो इसके लिए मुझे वहां के डाकू निर्भय सिंह गुर्जर से मिल कर मदद मांगनी पड़ी. मुझे उसे बताना पड़ा कि वो गुर्जर-प्रतिहार वंश के राजाओं का वंशज है, जिन्होंने ये मंदिर बनवाए थे. उसे अपने पूर्वजों की धरोहर को फिर से जीवित करने में मेरी मदद करनी चाहिए. खूंखार डाकुओं से मदद मिली और मैंने काम शुरू कर दिया. मेरा ये काम जब डॉ लाल ने देखा तो वो बहुत खुश हुए और उस ज़माने में जो कल्चर मिनिस्टर थीं चंद्रेश कटोच, उनको चिट्ठी लिखी कि ये बहुत बड़ा काम है और इसके लिए के के मोहम्मद को उचित पुरस्कार मिलना चाहिए. बाद में बटेश्वर मंदिर पर किए काम के पुरस्कार स्वरूप मुझे पद्मश्री से नवाज़ा गया. ऐसे थे मेरे गुरू, शिष्य की तारीफ करते थे, लेकिन बताते नहीं थे.'
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