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Battle Of Haldighati: 7 घंटों में ही एक वंश का सूर्य हुआ था अस्त , 'शाहों के शाह' ने बेटों और पौत्र संग न्योछावर कर दिए थे प्राण

आज ही का वो दिन था जब मेवाड़ रो शान महाराणा प्रताप ने मुगलों को हल्दी घाटी में लोहे के चने चबवा दिए (Battle Of Haldighati) थे. मरुभूमि का गौरव बनाए रखने के लिए महाराणा का साथ ग्वालियर के राजा राम शाह तोमर ने दिया. राजा ने अपने बेटों और पौत्र के साथ युद्धभूमि में शहादत दी. एक झटके में तीन पीढ़ियां एक साथ दुनिया से विदा हो गईं. 18 जून उस सर्वोच्च बलिदान को याद करने का भी दिवस है. ईटीवी भारत पर जानिए इतिहासकारों की जुबानी वो अमर शौर्य की रोमांचक कहानी!

Battle Of Haldighati
7 घंटों में ही 3 पीढ़ियों का हुआ था सूर्य अस्त
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Published : Jun 18, 2022, 6:04 AM IST

Updated : Jun 18, 2022, 8:50 AM IST

उदयपुर. हल्दीघाटी का नाम सुनते ही मन में त्याग, बलिदान और स्वाभिमान की चिंगारी कौंधती है. ये वही पवितोपावन धरती है जहां वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने ऐसा युद्ध रचा जिसने मुगलों के गुमान को मटियामेट कर दिया (Battle Of Haldighati). बादशाह अकबर को अंदाजा नहीं था कि राजपूतों की वीर सेना उनके दांत खट्टे कर देगी. हल्दी घाटी मरुभूमि को खुद पर नाज करने का अभूतपूर्व मौका प्रदान करती है. 18 जून 1576 आज ही के दिन हल्दीघाटी की भूमि पर ऐसा भीषण संग्राम हुआ कि दुनिया अवाक रह गई. उस ताकत को ललकारा गया जो पूरे भारत को मुठ्ठियों में भींचने का प्रण कर चुकी थी. महाराणा के इस रण में उनके साए की तरह खड़े रहे ग्वालियर नरेश राम शाह तोमर.इन्होंने राजपूताना शान के लिए अपने साथ अपने बेटों और पौत्र को भी न्योछावर कर दिया. महाराणा प्रताप की गौरवगाथा का एक अहम अध्याय है ग्वालियर के राजा राम शाह तंवर (Raja Ram Shah Of Gwalior). इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा और श्रीकृष्ण जुगनू ने इतिहास के पन्नों को पलट उस दौर की स्थितियों परिस्थितियों को जीवंत कर दिया.

हरेक पल था अहम: 18 जून 1576 का सूरज संग्राम की रणभेरी के साथ उदय हुआ. मेवाड़ के प्रताप ने हल्दीघाटी के आकार और प्रकार को देखते हुए रणनीति बनाई और उसका ही नतीजा था कि मुगलों की सेना एक दिन तक मॉलेला कैंप में चिपकी हुई पड़ी रही. ये भी कम हैरत की बात नहीं थी कि जिन मुगलों ने 4 साल की लंबी तैयारी कर खाका तैयार किया वही आक्रमण का साहस नहीं जुटा पा रही थी. प्रताप वो खौफ, वो डर और संशय को भांप गए और उन्होंने स्वयं मोर्चा संभाल लिया. उस भीषण गर्मी में भी राणा के रणबांकुरे डटे रहे. इन्हीं में से एक थे राम शाह तोमर. ग्वालियर के राजा जो अपने परिवार संग तपती रणभूमि में अपना रणकौशल दिखाते रहे.

7 घंटों में ही एक वंश का सूर्यास्त

राजपूतानी शान पर मर मिटी तीन पीढ़ी: इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा उस दिन की कहानी मुंतखब उल तवारीख( जिसमें बदायूं के अब्दुल कादिर बदायूनी ने हल्दीघाटी का आंखों देखा हाल लिखा है) के जरिए और अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल की लेखनी के माध्यम से जाहिर करते हैं. कहते हैं- अबुल फजल ने लिखा है-माथे की खोपड़ी का खून उबलने लगा उस दिन ऐसी प्रचंड गर्मी थी. शर्मा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहते हैं सूर्यास्त से लगभग 1 घंटे पहले युद्ध समाप्त हो गया .करीब 7 घंटे चले इस भीषण युद्ध में गर्मी भी थी और उस तपिश के कारण बारिश भी आई. वो मंजर बड़ा भयावह था. इस भीषण युद्ध में पूरी घाटी शवों से पट गई. बरसात के पानी संग रक्त बहा और एक जगह इकट्ठा हो गया. आज हम उसे रक्तताल के नाम से जानते हैं. इसी रक्त ताल में महाराणा करण सिंह ने राम शाह तोमर, उनके बेटे शालिवाहन शाली वाहन ,भवानी सिंह और प्रताप सिंह के साथ ही शालीवाहन के 16 साल के पुत्र बलभद्र सिंह का भी रक्त बहा. 1624 में मेवाड़ के महाराणा करण सिंह ने शिलालेख लगवाया. दो छतरियां बनवाई, जो आज भी हल्दीघाटी में उस महान बलिदान की याद दिलाती है. ये एक पीढ़ी के एक साथ राजपूतानी शान के लिए मर मिटने की दास्तां सुनाती है.

पढ़ें-प्रताप के चक्रव्यूह में फंसी थी अकबर की सेना, एक युद्ध में 3 पीढ़ियों की शहादत...फिर चर्चा में आए हल्दीघाटी युद्ध की शौर्यगाथा

रामशाह का परामर्श आया था काम: राम शाह की सलाह को शालीनता से महाराणा (Maharana Pratap In Haldighati) ने शिरोधार्य किया था. युद्ध कौशल में उनका लोहा सब मानते थे. उन्होंने ही रणनीति गढ़ी दुश्मनों को घेरने की! फैसला लिया गया कि मुकाबला मांडल के पास खुले में नहीं पहाड़ियों के संकरे रास्ते पर होगा. राम शाह के तजुर्बे से सब वाकिफ थे. महाराणा सांगा के समय से ही वो मेवाड़ में अपनी सेवाएं दे रहे थे. मुगलों की बढ़ती ताकत के सामने उन्हें ग्वालियर छोड़ना पड़ा था. 18 साल तक उन्होंने कड़ा संघर्ष किया. उनके पास विकल्प था लेकिन उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके और मेवाड़ को अपनी कर्मभूमि बना लिया. आक्रमणकारियों के सामने सीना चौड़ा कर खड़े रहे. उनकी ताकत, समझबूझ और शौर्य को देखते हुए ही राजा राम सिंह तोमर को शाहों के शाह की उपाधि चित्तौड़गढ़ की शान राणा सांगा ने दी और उनके नाम संग शाह जुड़ गया. वाकई शाह ने हल्दीघाटी पर जिस जज्बे के साथ अपने साथ बेटों और पौत्र को न्योछावर कर दिया वो शाहों का शाह ही कर सकता था.

मैसेज देती है ये घाटी: इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू हल्दीघाटी को तपोभूमि मानते हैं. इस युद्ध के साथ जुड़े संदेशों की ओर ध्यान दिलाते हैं. कहते हैं हल्दीघाटी एक पवित्रतम स्थान है. उद्देश्य सर्वकालिक और सार्वभौमिक था. ऐसे में संपूर्ण मानवता की प्रेरणा है. शर्मा का मानना है कि बादशाह अकबर का उद्देश्य संकीर्ण और साम्राज्य विस्तार का था. वो हल्दीघाटी युद्ध की तुलना द्वापर युग के कुरुक्षेत्र से करते हैं. चाहते हैं कि इस युद्धभूमि को भी उसी तर्ज पर याद किया जाए क्योंकि यहां भी अपने स्वार्थों को त्याग कर राष्ट्र और संस्कृति की रक्षार्थ युद्ध लड़ा गया और अपनी बलि दी गई.

क्यों अहम था घाटी का चुनाव: हल्दीघाटी उदयपुर से लगभग 42 किलोमीटर दूर और नाथद्वारा से 20 किलोमीटर अरावली के भूभाग मे स्थित एक प्रसिद्ध दर्रा है.अरावली पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है. इस दर्रे की यह विशेषता है, कि यह इतना संकरा दर्रा है कि इससे दो घुड़सवार सैनिक एक साथ नहीं निकल सकते थे. ऐसे में इस स्थान का चयन करके महाराणा प्रताप और रामशा तोमर ने छापामार और गोरिल्ला युद्ध नीति को सफलता के सोपान पर पहुंचाया. इतिहासकारों का मानना है कि अगर हल्दीघाटी नहीं होती तो प्रताप की गोरिल्ला युद्ध नीति भी सफल नहीं होती और मेवाड़ मुगलों का अधिकरण बढ़ता रहता. इस तरह हल्दीघाटी मेवाड़ की आन-बान-शान बचाने वाली रणभूमि के तौर पर जाना जाता है. इसकी भौगोलिक स्थिति का अध्ययन कर ही पूरा खाका खींचा गया. आज बरसों बरस बाद भी हल्दी घाटी में प्रवेश करने वाला शख्स रोमांचित हो जाता है. उन पलों को जीना चाहता है जहां स्वाभिमानी राणा ने मेवाड़ का मान बढ़ाया था.

कण कण याद दिलाता है: उदयपुर के बलीचा के पास लोयला की तरफ कालेड़ा गांव है.जो हल्दीघाटी के मुख्य मार्ग पर आता है. इतिहास बताता है कि यहीं प्रताप ने अपना प्रारंभिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित कर रखा था. शिविर लगा युद्ध में घायलों की चिकित्सा का प्रबंध यहीं से होता था. ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि प्रताप कितने सजग, संवेदनशील और कुशल योद्धा थे. जो उनके लिए लड़ रहे थे उनके लिए और अपनी प्रजा के प्रति समर्पित थे.

ये भी पढ़ें- महाराणा प्रताप से जुड़ा हल्दीघाटी का इतिहासः 'इंदिरा गांधी की यात्रा के दौरान ही लगाया गया था रक्ततलाई का शिलापट्ट'

मानसिंह का मान चेतक ने किया चित्त:जुगनू चेतक के शौर्य का भी बखान करते हैं. कहते हैं मुगलों के सेनापति मानसिंह का मान तो घोड़े चेतक ने ही मटियामेट कर दिया. कहा जाता है कि जुझारू चेतक ने मानसिंह के हाथी पर दोनों पैर चढ़ा दिए और मान सिंह उसी पल परास्त माने गए चेतक भी शहादत दे गया इसलिए ये सेनानी वंदित और पूजनीय है. चेतक ने सिद्ध किया था.कि वह भी मुगलों को मुगलों के हितैषियों को, उनके वफादारों को मेवाड़ की भूमि से खदेड़ना चाहता है. चेतक लगभग 2 किलोमीटर दौड़ा और एक चौड़े नाले को कूदकर पार करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ. इस घाटी ने इतिहास का वह स्वर्णिम पल भी देखा जब महाराणा प्रताप की गोद में अश्व ने प्राण त्यागे.

अकबर आए हल्दीघाटी: यह पहला रण क्षेत्र था जो युद्ध जिसे शहंशाह अकबर स्वयं देखने पधारे (Maharana Pratap Vs Akbar) था. वो 7 घंटे के इस युद्ध के बाद हतप्रभ थे. जानना चाहते थे कि वो रणभूमि कौन सी है, जहां ताकतवर मुगल सेना रेंगती दिखी. अकबर ने भौगोलिक रूप को अपने अनुभव में समेट लिया. पाया कि हल्दीघाटी का मूल स्वरूप घाटी के कारण और संकरे रास्ते के कारण सर्पीला आकार लेता है. देखा कि जैसे अजगर के मुंह में गई चीज वापस नहीं आ पाती उसी तरह मुगल सेना फंसी रही. एहसास हुआ तो फिर 4 किलोमीटर तक उल्टी भागी. इस जद्दोजहद में कई मुगल सैनिक भी जान गंवा बैठे.

उदयपुर. हल्दीघाटी का नाम सुनते ही मन में त्याग, बलिदान और स्वाभिमान की चिंगारी कौंधती है. ये वही पवितोपावन धरती है जहां वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने ऐसा युद्ध रचा जिसने मुगलों के गुमान को मटियामेट कर दिया (Battle Of Haldighati). बादशाह अकबर को अंदाजा नहीं था कि राजपूतों की वीर सेना उनके दांत खट्टे कर देगी. हल्दी घाटी मरुभूमि को खुद पर नाज करने का अभूतपूर्व मौका प्रदान करती है. 18 जून 1576 आज ही के दिन हल्दीघाटी की भूमि पर ऐसा भीषण संग्राम हुआ कि दुनिया अवाक रह गई. उस ताकत को ललकारा गया जो पूरे भारत को मुठ्ठियों में भींचने का प्रण कर चुकी थी. महाराणा के इस रण में उनके साए की तरह खड़े रहे ग्वालियर नरेश राम शाह तोमर.इन्होंने राजपूताना शान के लिए अपने साथ अपने बेटों और पौत्र को भी न्योछावर कर दिया. महाराणा प्रताप की गौरवगाथा का एक अहम अध्याय है ग्वालियर के राजा राम शाह तंवर (Raja Ram Shah Of Gwalior). इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा और श्रीकृष्ण जुगनू ने इतिहास के पन्नों को पलट उस दौर की स्थितियों परिस्थितियों को जीवंत कर दिया.

हरेक पल था अहम: 18 जून 1576 का सूरज संग्राम की रणभेरी के साथ उदय हुआ. मेवाड़ के प्रताप ने हल्दीघाटी के आकार और प्रकार को देखते हुए रणनीति बनाई और उसका ही नतीजा था कि मुगलों की सेना एक दिन तक मॉलेला कैंप में चिपकी हुई पड़ी रही. ये भी कम हैरत की बात नहीं थी कि जिन मुगलों ने 4 साल की लंबी तैयारी कर खाका तैयार किया वही आक्रमण का साहस नहीं जुटा पा रही थी. प्रताप वो खौफ, वो डर और संशय को भांप गए और उन्होंने स्वयं मोर्चा संभाल लिया. उस भीषण गर्मी में भी राणा के रणबांकुरे डटे रहे. इन्हीं में से एक थे राम शाह तोमर. ग्वालियर के राजा जो अपने परिवार संग तपती रणभूमि में अपना रणकौशल दिखाते रहे.

7 घंटों में ही एक वंश का सूर्यास्त

राजपूतानी शान पर मर मिटी तीन पीढ़ी: इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा उस दिन की कहानी मुंतखब उल तवारीख( जिसमें बदायूं के अब्दुल कादिर बदायूनी ने हल्दीघाटी का आंखों देखा हाल लिखा है) के जरिए और अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल की लेखनी के माध्यम से जाहिर करते हैं. कहते हैं- अबुल फजल ने लिखा है-माथे की खोपड़ी का खून उबलने लगा उस दिन ऐसी प्रचंड गर्मी थी. शर्मा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहते हैं सूर्यास्त से लगभग 1 घंटे पहले युद्ध समाप्त हो गया .करीब 7 घंटे चले इस भीषण युद्ध में गर्मी भी थी और उस तपिश के कारण बारिश भी आई. वो मंजर बड़ा भयावह था. इस भीषण युद्ध में पूरी घाटी शवों से पट गई. बरसात के पानी संग रक्त बहा और एक जगह इकट्ठा हो गया. आज हम उसे रक्तताल के नाम से जानते हैं. इसी रक्त ताल में महाराणा करण सिंह ने राम शाह तोमर, उनके बेटे शालिवाहन शाली वाहन ,भवानी सिंह और प्रताप सिंह के साथ ही शालीवाहन के 16 साल के पुत्र बलभद्र सिंह का भी रक्त बहा. 1624 में मेवाड़ के महाराणा करण सिंह ने शिलालेख लगवाया. दो छतरियां बनवाई, जो आज भी हल्दीघाटी में उस महान बलिदान की याद दिलाती है. ये एक पीढ़ी के एक साथ राजपूतानी शान के लिए मर मिटने की दास्तां सुनाती है.

पढ़ें-प्रताप के चक्रव्यूह में फंसी थी अकबर की सेना, एक युद्ध में 3 पीढ़ियों की शहादत...फिर चर्चा में आए हल्दीघाटी युद्ध की शौर्यगाथा

रामशाह का परामर्श आया था काम: राम शाह की सलाह को शालीनता से महाराणा (Maharana Pratap In Haldighati) ने शिरोधार्य किया था. युद्ध कौशल में उनका लोहा सब मानते थे. उन्होंने ही रणनीति गढ़ी दुश्मनों को घेरने की! फैसला लिया गया कि मुकाबला मांडल के पास खुले में नहीं पहाड़ियों के संकरे रास्ते पर होगा. राम शाह के तजुर्बे से सब वाकिफ थे. महाराणा सांगा के समय से ही वो मेवाड़ में अपनी सेवाएं दे रहे थे. मुगलों की बढ़ती ताकत के सामने उन्हें ग्वालियर छोड़ना पड़ा था. 18 साल तक उन्होंने कड़ा संघर्ष किया. उनके पास विकल्प था लेकिन उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके और मेवाड़ को अपनी कर्मभूमि बना लिया. आक्रमणकारियों के सामने सीना चौड़ा कर खड़े रहे. उनकी ताकत, समझबूझ और शौर्य को देखते हुए ही राजा राम सिंह तोमर को शाहों के शाह की उपाधि चित्तौड़गढ़ की शान राणा सांगा ने दी और उनके नाम संग शाह जुड़ गया. वाकई शाह ने हल्दीघाटी पर जिस जज्बे के साथ अपने साथ बेटों और पौत्र को न्योछावर कर दिया वो शाहों का शाह ही कर सकता था.

मैसेज देती है ये घाटी: इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू हल्दीघाटी को तपोभूमि मानते हैं. इस युद्ध के साथ जुड़े संदेशों की ओर ध्यान दिलाते हैं. कहते हैं हल्दीघाटी एक पवित्रतम स्थान है. उद्देश्य सर्वकालिक और सार्वभौमिक था. ऐसे में संपूर्ण मानवता की प्रेरणा है. शर्मा का मानना है कि बादशाह अकबर का उद्देश्य संकीर्ण और साम्राज्य विस्तार का था. वो हल्दीघाटी युद्ध की तुलना द्वापर युग के कुरुक्षेत्र से करते हैं. चाहते हैं कि इस युद्धभूमि को भी उसी तर्ज पर याद किया जाए क्योंकि यहां भी अपने स्वार्थों को त्याग कर राष्ट्र और संस्कृति की रक्षार्थ युद्ध लड़ा गया और अपनी बलि दी गई.

क्यों अहम था घाटी का चुनाव: हल्दीघाटी उदयपुर से लगभग 42 किलोमीटर दूर और नाथद्वारा से 20 किलोमीटर अरावली के भूभाग मे स्थित एक प्रसिद्ध दर्रा है.अरावली पर्वत श्रृंखला हिमालय से भी पुरानी मानी जाती है. इस दर्रे की यह विशेषता है, कि यह इतना संकरा दर्रा है कि इससे दो घुड़सवार सैनिक एक साथ नहीं निकल सकते थे. ऐसे में इस स्थान का चयन करके महाराणा प्रताप और रामशा तोमर ने छापामार और गोरिल्ला युद्ध नीति को सफलता के सोपान पर पहुंचाया. इतिहासकारों का मानना है कि अगर हल्दीघाटी नहीं होती तो प्रताप की गोरिल्ला युद्ध नीति भी सफल नहीं होती और मेवाड़ मुगलों का अधिकरण बढ़ता रहता. इस तरह हल्दीघाटी मेवाड़ की आन-बान-शान बचाने वाली रणभूमि के तौर पर जाना जाता है. इसकी भौगोलिक स्थिति का अध्ययन कर ही पूरा खाका खींचा गया. आज बरसों बरस बाद भी हल्दी घाटी में प्रवेश करने वाला शख्स रोमांचित हो जाता है. उन पलों को जीना चाहता है जहां स्वाभिमानी राणा ने मेवाड़ का मान बढ़ाया था.

कण कण याद दिलाता है: उदयपुर के बलीचा के पास लोयला की तरफ कालेड़ा गांव है.जो हल्दीघाटी के मुख्य मार्ग पर आता है. इतिहास बताता है कि यहीं प्रताप ने अपना प्रारंभिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित कर रखा था. शिविर लगा युद्ध में घायलों की चिकित्सा का प्रबंध यहीं से होता था. ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि प्रताप कितने सजग, संवेदनशील और कुशल योद्धा थे. जो उनके लिए लड़ रहे थे उनके लिए और अपनी प्रजा के प्रति समर्पित थे.

ये भी पढ़ें- महाराणा प्रताप से जुड़ा हल्दीघाटी का इतिहासः 'इंदिरा गांधी की यात्रा के दौरान ही लगाया गया था रक्ततलाई का शिलापट्ट'

मानसिंह का मान चेतक ने किया चित्त:जुगनू चेतक के शौर्य का भी बखान करते हैं. कहते हैं मुगलों के सेनापति मानसिंह का मान तो घोड़े चेतक ने ही मटियामेट कर दिया. कहा जाता है कि जुझारू चेतक ने मानसिंह के हाथी पर दोनों पैर चढ़ा दिए और मान सिंह उसी पल परास्त माने गए चेतक भी शहादत दे गया इसलिए ये सेनानी वंदित और पूजनीय है. चेतक ने सिद्ध किया था.कि वह भी मुगलों को मुगलों के हितैषियों को, उनके वफादारों को मेवाड़ की भूमि से खदेड़ना चाहता है. चेतक लगभग 2 किलोमीटर दौड़ा और एक चौड़े नाले को कूदकर पार करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ. इस घाटी ने इतिहास का वह स्वर्णिम पल भी देखा जब महाराणा प्रताप की गोद में अश्व ने प्राण त्यागे.

अकबर आए हल्दीघाटी: यह पहला रण क्षेत्र था जो युद्ध जिसे शहंशाह अकबर स्वयं देखने पधारे (Maharana Pratap Vs Akbar) था. वो 7 घंटे के इस युद्ध के बाद हतप्रभ थे. जानना चाहते थे कि वो रणभूमि कौन सी है, जहां ताकतवर मुगल सेना रेंगती दिखी. अकबर ने भौगोलिक रूप को अपने अनुभव में समेट लिया. पाया कि हल्दीघाटी का मूल स्वरूप घाटी के कारण और संकरे रास्ते के कारण सर्पीला आकार लेता है. देखा कि जैसे अजगर के मुंह में गई चीज वापस नहीं आ पाती उसी तरह मुगल सेना फंसी रही. एहसास हुआ तो फिर 4 किलोमीटर तक उल्टी भागी. इस जद्दोजहद में कई मुगल सैनिक भी जान गंवा बैठे.

Last Updated : Jun 18, 2022, 8:50 AM IST
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