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Corona Virus से बेफिक्र मूसल गेर को देखने उमड़ा जन सैलाब, मदमस्त नृतकों ने किया कला का प्रदर्शन - Corona Virus

बाली में सोमवार को सगरवंशी माली समाज की मूसल गेर निकली. इस गेर को देखने के लिए भारी संख्या में दर्शक पहुंचे. वहीं सगरवंशी माली समाज ने नाईवाड़ा में इष्टदेव भैरव की विधिवत पूजा-अर्चना की.

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सगरवंशी माली समाज की निकली मूसल गेर
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Published : Mar 17, 2020, 11:11 AM IST

बाली (पाली). बाली के सादड़ी में सोमवार शाम को सगरवंशी माली समाज की मूसल गेर निकली. 155 साल पुरानी रियासत काल से ही चली आ रही इस इस गेर के प्रदर्शन को देखने कोरोना वायरस से बेफिक्र हजारों महिला-पुरूष पहूंचे. इस दौरान सारे रास्ते जाम रहे.

सगरवंशी माली समाज की निकली मूसल गेर

नाईवाड़ा में इष्टदेव भैरव की विधिवत पूजा-अर्चना की गई. मदिरापान के बाद शाम साढ़े पांच बजे मादल की थाप पर नाचते हुए गेर रवाना हुई. सगरवशीय ओढ़ माली समाज के लोग अपने शरीर पर तेल, सिंदूर और मालीपन्ना लगाकर नाच रहे थे. गेर शाम साढ़े छह बजे आकरीया चौराहे में पहूंची. इस दौरान मूसल से बचने के लिए लोग इधर से उधर भागते रहे और हूडदंग मचता रहा. रात ढलने तक इस गेर ने दो किमी का रास्ता तय किया.

यह भी पढ़ें. पाली के बाली में अनियंत्रित होकर पलटी कार, चालक की मौत

गेर जूलूस के साथ हजारों लोगों की भीड़ चल रही थी. इस गेर को देखने के लिए दर्शक महिलाओं की तादाद पुरुषों से भी ज्यादा थी. इस दौरान आकरीया से गुजरने वाले सारे रास्ते जाम हो गए. बाद में यह गेर गांछवाड़ा पुल से होकर नदी के रास्ते रात पौने 8 बजे गंतव्य को लौट गई.

'गेर की बदौलत ही सुरक्षित है मूसल'

मूसल अनाज कूटने में काम आते थे. पुराने जमाने में बाजरे का खीचड़ा, मक्का व अन्य अनाज कूटने के लिए हर घर में उखल (ओखली) और मूसल दिख जाता था लेकिन आज के समय में उखल व मूसल देखने को भी नहीं मिलते है. यदि यह मूसल आज सादड़ी में सुरक्षित है तो सिर्फ मूसल (हामेळा) गेर की बदौलत से ही हैं.

बाली (पाली). बाली के सादड़ी में सोमवार शाम को सगरवंशी माली समाज की मूसल गेर निकली. 155 साल पुरानी रियासत काल से ही चली आ रही इस इस गेर के प्रदर्शन को देखने कोरोना वायरस से बेफिक्र हजारों महिला-पुरूष पहूंचे. इस दौरान सारे रास्ते जाम रहे.

सगरवंशी माली समाज की निकली मूसल गेर

नाईवाड़ा में इष्टदेव भैरव की विधिवत पूजा-अर्चना की गई. मदिरापान के बाद शाम साढ़े पांच बजे मादल की थाप पर नाचते हुए गेर रवाना हुई. सगरवशीय ओढ़ माली समाज के लोग अपने शरीर पर तेल, सिंदूर और मालीपन्ना लगाकर नाच रहे थे. गेर शाम साढ़े छह बजे आकरीया चौराहे में पहूंची. इस दौरान मूसल से बचने के लिए लोग इधर से उधर भागते रहे और हूडदंग मचता रहा. रात ढलने तक इस गेर ने दो किमी का रास्ता तय किया.

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गेर जूलूस के साथ हजारों लोगों की भीड़ चल रही थी. इस गेर को देखने के लिए दर्शक महिलाओं की तादाद पुरुषों से भी ज्यादा थी. इस दौरान आकरीया से गुजरने वाले सारे रास्ते जाम हो गए. बाद में यह गेर गांछवाड़ा पुल से होकर नदी के रास्ते रात पौने 8 बजे गंतव्य को लौट गई.

'गेर की बदौलत ही सुरक्षित है मूसल'

मूसल अनाज कूटने में काम आते थे. पुराने जमाने में बाजरे का खीचड़ा, मक्का व अन्य अनाज कूटने के लिए हर घर में उखल (ओखली) और मूसल दिख जाता था लेकिन आज के समय में उखल व मूसल देखने को भी नहीं मिलते है. यदि यह मूसल आज सादड़ी में सुरक्षित है तो सिर्फ मूसल (हामेळा) गेर की बदौलत से ही हैं.

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