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स्पेशल: अब पछताए होत क्या...दोगुनी आमदनी के चक्कर में किसानों ने खुद से किया धोखा, लालच ने जमीन को बना दिया बंजर

कम जमीन में और कम समय में अच्छा उत्पादन पाकर अच्छी आमदनी के चक्कर में किसानों ने अपनी ही जमीनों के साथ धोखा कर दिया. जब हकीकत सामने आई तो अब किसान अपनी गलती सुधारने का हर प्रयास कर रहे हैं. जब ईटीवी भारत हकीकत जानने पहुंचा पाली के इन खेतों में...

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Published : Nov 23, 2019, 2:55 PM IST

पाली. कहते हैं, लालच बुरी बला होती है. लालच अच्छे-खासे काम को बिगाड़कर पछताने पर मजबूर कर देती है. कुछ ऐसा ही पाली के किसानों के साथ हुआ. किसानों ने जाने-अनजाने लालच में अपनी ही जमीन को बंजर कर दिया. कम जमीन में कम समय में अच्छा उत्पादन पाकर अच्छी आमदनी के चक्कर में किसानों ने अपनी ही जमीनों के साथ धोखा कर दिया. लगातार जब तक इन जमीनों ने सोना उगला, तब तक किसान भी खुश थे.

दोगुनी आमदनी के चक्कर में किसानों ने खुद से किया धोखा

लेकिन जब किसानों के सामने अपनी बंजर जमीन की हकीकत आई तो अब किसान अपनी गलती को सुधारने का हर तरह से प्रयास कर रहे हैं. इस प्रयास में पाली का आदिवासी क्षेत्र भी पीछे नहीं है. जहां रसायन, खाद और कमाई के लालच ने पाली के वन क्षेत्र की उपजाऊ जमीन को भी बंजर कर दिया था. वहीं पाली के आदिवासी क्षेत्र में रहने वाले लोग उस उपजाऊ जमीन को फिर से उसके मूल रूप में लाने के लिए अपने पूर्वजों की परंपरागत खेती को अपनाना शुरू कर रहे हैं.

यह भी पढ़ें- शाहबाद कूनो नदी पर एनीकट ने बदल दी किसानों की तकदीर

पिछले 3 सालों में पाली के इस आदिवासी क्षेत्र में किसानों में जैविक और परंपरागत खेती को लेकर काफी जागरूकता आई है. इसी जागरूकता का नतीजा है कि आदिवासी क्षेत्र में किसानों की जमीन एक बार फिर उस मानक तक पहुंच गई है, जिसे गुणवत्ता का उत्तम मानक माना जाता है. कई किसान हैं, जो अब भी पछताते हैं कि उन्होंने कमाई और कम समय में अच्छे उत्पादन के लालच में अपने खेतों में रसायन खादों का प्रयोग करना शुरू कर दिया था. इस प्राकृतिक वातावरण में ये लोग जंगलों के बीच बैठे हैं. वहां उनकी जमीन सबसे बेहतर गुणवत्ता वाली फसलें देती हैं. लेकिन इस रसायन खाद के चलते किसानों की जमीन पथरीली सी होने लग गई है. जिसे सुधार करने के लिए किसानों ने नाना प्रकार के देसी नुस्खे खाद उर्वरक बनाना शुरू कर दिया है.

ईटीवी भारत की टीम ने पाली के बाली क्षेत्र में फैले आदिवासी क्षेत्र का हाल देखा और कई किसानों से मुलाकात की. इन किसानों ने 5 से 10 साल पहले तक कि अपने खेतों की स्थिति को बताया और अचानक से उनके उपजाऊ जमीन के बंजर होने की व्यथा को भी बताया. किसानों का कहना था कि उनके पूर्वजों को यहां पर किसी भी प्रकार की डीएपी, यूरिया जैसे रसायन खादों का ज्ञान नहीं था. लेकिन लगातार शहरी क्षेत्र से लोगों द्वारा इन किसानों को अपने कम खेतों में ज्यादा उत्पादन का लालच देकर यहां भी रसायन खाद और उर्वरक का प्रयोग करना सिखा दिया.

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जब पहली बार इनके खेतों में उर्वरकों प्रयोग किया गया तो उनका उत्पादन दोगुना सा हो गया था. ऐसे में किसानों को भी यह उर्वरक अच्छे लगने लगे और कमाई के लालच में इन्होंने अपनी जमीनों में उर्वरक का प्रयोग शुरू कर दिया. लगातार इनके खेतों में उर्वरक गिरने से इनके खेतों की जमीन पथरीली सी होने लग गई, जिसे मूल भाषा में बंजर भी कहा जाने लगा. जो उत्पादन उनके खेतों से मिल रहा था, अब धीरे-धीरे यूरिया के प्रयोग से उत्पादन की दर घटने लगी.

ऐसे में किसानों को अपनी जमीनों को बर्बाद होते देख फिर से किसानों ने अपनी परंपरागत खेती की ओर कदम रख दिया है. अब यह किसान उसी तरीके से खेती कर रहे हैं, जैसे इनके पूर्वज देशी तरीकों से उर्वरक खाद और कीटनाशक तैयार करते थे. उन्हीं के कदमों पर चलकर अपनी जमीनों को फिर से गुणवत्ता युक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे कि उनके खेतों से उत्पन्न होने वाली फसलें, सब्जियां और अनाज पूरी तरह से गुणवत्ता युक्त हो और उनके आने वाली पीढ़ी को रसायन से पैदा होने वाली फसलों का दंश नही झेलना पड़े.

किसानों का कहना है कि क्षेत्र में धीरे-धीरे लगभग सभी किसानों ने फिर से परंपरागत खेती को अपना लिया है. लेकिन अभी भी किसानों में जागरूकता की कमी है. आज भी कई किसान है जो उत्पादन के चक्कर में जंगल में उपजाऊ जमीनों को रसायनों से बंजर करते जा रहे हैं.

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अगर कृषि विशेषज्ञों की मानें तो अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसे गांव में ज्यादातर सीढ़ीनुमा खेती की जाती है. प्रतिवर्ष यहां पर कुदरती तौर पर पेड़ों के कचरे और उपजाऊ मिट्टी से इन खेतों पर उत्तम मिट्टी और उर्वरकों की परत छा जाती है. जो अपने आप में एक प्राकृतिक रूप से बेहतर उर्वरक होता है. लेकिन किसानों ने अधिक लालच को देखते हुए यहां पर उर्वरक और रसायन उर्वरक का प्रयोग शुरू किया, जिसका नतीजा भी इन्हें देखने को मिला. इनकी फसलों की गुणवत्ता वह नहीं रही, जो उनके पूर्वजों के समय थी. लेकिन अब फिर से किसान जैविक खेती गोमूत्र से तैयार होने वाले कीटनाशक व उर्वरक को तैयार कर अपने खेतों में छिड़काव कर रहे हैं. इससे इनकी खेतों में बेहतर परिणाम भी नजर आने लगे हैं.

पाली. कहते हैं, लालच बुरी बला होती है. लालच अच्छे-खासे काम को बिगाड़कर पछताने पर मजबूर कर देती है. कुछ ऐसा ही पाली के किसानों के साथ हुआ. किसानों ने जाने-अनजाने लालच में अपनी ही जमीन को बंजर कर दिया. कम जमीन में कम समय में अच्छा उत्पादन पाकर अच्छी आमदनी के चक्कर में किसानों ने अपनी ही जमीनों के साथ धोखा कर दिया. लगातार जब तक इन जमीनों ने सोना उगला, तब तक किसान भी खुश थे.

दोगुनी आमदनी के चक्कर में किसानों ने खुद से किया धोखा

लेकिन जब किसानों के सामने अपनी बंजर जमीन की हकीकत आई तो अब किसान अपनी गलती को सुधारने का हर तरह से प्रयास कर रहे हैं. इस प्रयास में पाली का आदिवासी क्षेत्र भी पीछे नहीं है. जहां रसायन, खाद और कमाई के लालच ने पाली के वन क्षेत्र की उपजाऊ जमीन को भी बंजर कर दिया था. वहीं पाली के आदिवासी क्षेत्र में रहने वाले लोग उस उपजाऊ जमीन को फिर से उसके मूल रूप में लाने के लिए अपने पूर्वजों की परंपरागत खेती को अपनाना शुरू कर रहे हैं.

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पिछले 3 सालों में पाली के इस आदिवासी क्षेत्र में किसानों में जैविक और परंपरागत खेती को लेकर काफी जागरूकता आई है. इसी जागरूकता का नतीजा है कि आदिवासी क्षेत्र में किसानों की जमीन एक बार फिर उस मानक तक पहुंच गई है, जिसे गुणवत्ता का उत्तम मानक माना जाता है. कई किसान हैं, जो अब भी पछताते हैं कि उन्होंने कमाई और कम समय में अच्छे उत्पादन के लालच में अपने खेतों में रसायन खादों का प्रयोग करना शुरू कर दिया था. इस प्राकृतिक वातावरण में ये लोग जंगलों के बीच बैठे हैं. वहां उनकी जमीन सबसे बेहतर गुणवत्ता वाली फसलें देती हैं. लेकिन इस रसायन खाद के चलते किसानों की जमीन पथरीली सी होने लग गई है. जिसे सुधार करने के लिए किसानों ने नाना प्रकार के देसी नुस्खे खाद उर्वरक बनाना शुरू कर दिया है.

ईटीवी भारत की टीम ने पाली के बाली क्षेत्र में फैले आदिवासी क्षेत्र का हाल देखा और कई किसानों से मुलाकात की. इन किसानों ने 5 से 10 साल पहले तक कि अपने खेतों की स्थिति को बताया और अचानक से उनके उपजाऊ जमीन के बंजर होने की व्यथा को भी बताया. किसानों का कहना था कि उनके पूर्वजों को यहां पर किसी भी प्रकार की डीएपी, यूरिया जैसे रसायन खादों का ज्ञान नहीं था. लेकिन लगातार शहरी क्षेत्र से लोगों द्वारा इन किसानों को अपने कम खेतों में ज्यादा उत्पादन का लालच देकर यहां भी रसायन खाद और उर्वरक का प्रयोग करना सिखा दिया.

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जब पहली बार इनके खेतों में उर्वरकों प्रयोग किया गया तो उनका उत्पादन दोगुना सा हो गया था. ऐसे में किसानों को भी यह उर्वरक अच्छे लगने लगे और कमाई के लालच में इन्होंने अपनी जमीनों में उर्वरक का प्रयोग शुरू कर दिया. लगातार इनके खेतों में उर्वरक गिरने से इनके खेतों की जमीन पथरीली सी होने लग गई, जिसे मूल भाषा में बंजर भी कहा जाने लगा. जो उत्पादन उनके खेतों से मिल रहा था, अब धीरे-धीरे यूरिया के प्रयोग से उत्पादन की दर घटने लगी.

ऐसे में किसानों को अपनी जमीनों को बर्बाद होते देख फिर से किसानों ने अपनी परंपरागत खेती की ओर कदम रख दिया है. अब यह किसान उसी तरीके से खेती कर रहे हैं, जैसे इनके पूर्वज देशी तरीकों से उर्वरक खाद और कीटनाशक तैयार करते थे. उन्हीं के कदमों पर चलकर अपनी जमीनों को फिर से गुणवत्ता युक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे कि उनके खेतों से उत्पन्न होने वाली फसलें, सब्जियां और अनाज पूरी तरह से गुणवत्ता युक्त हो और उनके आने वाली पीढ़ी को रसायन से पैदा होने वाली फसलों का दंश नही झेलना पड़े.

किसानों का कहना है कि क्षेत्र में धीरे-धीरे लगभग सभी किसानों ने फिर से परंपरागत खेती को अपना लिया है. लेकिन अभी भी किसानों में जागरूकता की कमी है. आज भी कई किसान है जो उत्पादन के चक्कर में जंगल में उपजाऊ जमीनों को रसायनों से बंजर करते जा रहे हैं.

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अगर कृषि विशेषज्ञों की मानें तो अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसे गांव में ज्यादातर सीढ़ीनुमा खेती की जाती है. प्रतिवर्ष यहां पर कुदरती तौर पर पेड़ों के कचरे और उपजाऊ मिट्टी से इन खेतों पर उत्तम मिट्टी और उर्वरकों की परत छा जाती है. जो अपने आप में एक प्राकृतिक रूप से बेहतर उर्वरक होता है. लेकिन किसानों ने अधिक लालच को देखते हुए यहां पर उर्वरक और रसायन उर्वरक का प्रयोग शुरू किया, जिसका नतीजा भी इन्हें देखने को मिला. इनकी फसलों की गुणवत्ता वह नहीं रही, जो उनके पूर्वजों के समय थी. लेकिन अब फिर से किसान जैविक खेती गोमूत्र से तैयार होने वाले कीटनाशक व उर्वरक को तैयार कर अपने खेतों में छिड़काव कर रहे हैं. इससे इनकी खेतों में बेहतर परिणाम भी नजर आने लगे हैं.

Intro:स्पेशल स्टोरी....


पाली. कम जमीन में कम समय में अच्छा उत्पादन पाकर अच्छी आमदनी के चक्कर में किसानों ने अपनी ही जमीनों के साथ धोखा कर दिया। लगातार जब तक इन जमीनों ने सोना उगले तब तक किसान भी खुश था। लेकिन किसानों के सामने अपनी बंजर जमीन की हकीकत आई तो अब किसान अपनी गलती को सुधारने का हर तरह से प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में पाली का आदिवासी क्षेत्र भी पीछे नहीं रह रहा है। जहां रसायन खाद और कमाई के लालच ने पाली के वन क्षेत्र की उपजाऊ जमीन को भी बंजर सा कर दिया था वही पाली के आदिवासी क्षेत्र में रहने वाले लोग उस उपजाऊ जमीन को फिर से उसके मूल रूप में लाने के लिए अपने पूर्वजों की परंपरागत खेती को अपनाना शुरू कर रहे हैं पिछले 3 सालों में पाली के इस आदिवासी क्षेत्र में किसानों में जैविक व परंपरागत खेती को लेकर काफी जागरूकता आई है इसी जागरूकता का नतीजा है कि आदिवासी क्षेत्र में किसानों की जमीने एक बार फिर उस मानिक तक पहुंच चुकी है जिसे गुणवत्ता का उत्तम मानक माना जाता है कई किसान है जो आदमी पछताते हैं कि उन्होंने कमाई और कम समय में अच्छे उत्पादन के लालच में अपने खेतों में रसायन खादों का प्रयोग करना शुरू कर दिया था जिस प्राकृतिक वातावरण में यह लोग जंगलों के बीच बैठे हैं वहां उनकी जमीन सबसे बेहतर गुणवत्ता वाली फसलें देती है लेकिन इस रसायन खाद के चलते किसानों की जमीन पथरीली सी होने लग गई है जिसे सुधार करने के लिए किसानों ने नाना प्रकार के देसी नुक्से खाद उर्वरक बनाना शुरू कर दिया है


Body:ईटीवी भारत की टीम ने पाली के बाली क्षेत्र में फैले आदिवासी क्षेत्र का आंखों देखा हाल देखा ओर कई किसानों से मुलाकात की, इन किसानों ने 5 से 10 साल पहले तक कि अपने खेतों की स्थिति को बताया और अचानक से उनके उपजाऊ जमीन के बंजर होने की व्यथा को भी बताया। किसानों का कहना था कि उनके पूर्वजों को यहां पर किसी भी प्रकार की डीएपी, यूरिया जैसे रसायन खादों का ज्ञान नहीं था। लेकिन लगातार शहरी क्षेत्र से लोगों द्वारा इन किसानों को अपने कम खेतों में ज्यादा उत्पादन का लालच देकर यहां भी रसायन खाद और उर्वरक का प्रयोग करने सिखा दिया। जब पहली बार इनके खेतों में उर्वरकों प्रयोग किया गया तो उनका उत्पादन दोगुना सा हो गया था। ऐसे में किसानों को भी यह उर्वरक अच्छे लगने लगे और कमाई के लालच में इन्होंने अपनी जमीनों में उर्वरक का प्रयोग शुरु कर दिया। लगातार इनके खेतों में उर्वरक गिरने से इनके खेतों की जमीन पथरीली से होने लग गई। जिसे मूल भाषा में बंजर भी कहा जाने लगा। जो उत्पादन उनके खेतों से मिल रहा था, अब धीरे-धीरे यूरिया के प्रयोग से उत्पादन की दर घटने लगी। ऐसे में किसानों को अपनी जमीनों को बर्बाद होते देख फिर से किसानों ने अपनी परंपरागत खेती की ओर कदम रख दिया। और आज यह किसान उसी तरीके से खेती कर रहे है हैज़ इनके पूर्वज देशी तरीकों से उर्वरक खाद व कीटनाशक तैयार करते थे। उन्हीं के कदमों पर चलकर अपनी जमीनों को फिर से गुणवत्ता युक्त बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जिससे कि उनके खेतों से उत्पन्न होने वाली फसलों, सब्जियां और अनाज पूरी तरह से गुणवत्ता युक्त हो और उनके आने वाली पीढ़ी को रसायन से पैदा होने वाली फसलों का दंश नही झेलना पड़े। किसानों का कहना है कि क्षेत्र में धीरे-धीरे लगभग सभी किसानों ने फिर से परंपरागत खेती को अपना लिया है। लेकिन अभी भी किसानों में जागरूकता बाकी है। आज भी कई किसान है जो उत्पादन के चक्कर में जंगल में उपजाऊ जमीनों को रसायनों से बंजर करते जा रहे हैं।


Conclusion:अगर कृषि कृषि विशेषज्ञों की मानें तो अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसे गांव में ज्यादातर सीढ़ीनुमा खेती की जाती है। प्रतिवर्ष यहां पर कुदरती तौर पर पेड़ों के कचरे व उपजाऊ मिट्टी से इन खेतों पर उत्तम मिट्टी और उर्वरकों की परत छा जाती है। जो अपने आप में एक प्राकृतिक रूप से बेहतर उर्वरक होता है। लेकिन किसानों ने अधिक लालच को देखते हुए यहां पर उर्वरक और रसायन उर्वरक का प्रयोग शुरू किया। जिसका नतीजा भी इन्हें देखने को मिला। इनकी फसलों की गुणवत्ता वह नहीं रही जो उनके पूर्वजों के समय थी। लेकिन अब फिर से किसान जैविक खेती गोमूत्र से तैयार होने वाले कीटनाशक व उर्वरक को तैयार कर अपने खेतों में छिड़काव कर रहे हैं। जिससे इनकी खेतों में बेहतर परिणाम भी नजर आने लगे हैं।
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