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Kota Doria Challenges: पावरलूम बना चुनौती, लाखों की साड़ी बनाने वाले 2 जून रोटी को मोहताज

कोटा डोरिया साड़ियां बुनने वाले बुनकर सरक सरक कर जीवन गुजार रहे हैं (Kota Dorai Challenges). चुनौती पावरलूम की साड़ियां पेश कर रही हैं. मशीनों से बनी साड़ियां हाथ से बुनी साड़ियों पर भारी पड़ रही हैं. नतीजतन बुनकर परिवार दूसरे व्यवसाय से जुड़ रहे हैं.

Kota Dorai Challenges
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Published : Jan 17, 2023, 5:05 PM IST

पावरलूम बना चुनौती

कोटा. कोटा की विश्व विख्यात कोटा डोरिया साड़ी पूरे विश्व में सप्लाई हो रही हैं. यह साड़ियां लाखों रुपए कीमत तक की बनती हैं. इनमें बुनकरों की काफी मेहनत भी लगती है. हालांकि बुनकर 6 से 7 हजार रुपए से लेकर डेढ़ से दो लाख रुपए तक की साड़ियां तैयार करते हैं (Kota Doria saree facing challenges). जिसमें ढाई से 3 महीने एक साड़ी को बनने में लगता है. घर के सभी सदस्य लगते हैं. इसके बावजूद भी बुनकरों की स्थिति ठीक नहीं है, उन्हें महज दिहाड़ी मजदूरी के बराबर ही मेहनताना इन साड़ियों पर मिल रहा है.

लाखों की साड़ियां बनाते हैं पर हाथ जो लग रहा है वो नाममात्र है. बुनकर 2 जून की रोटी के लिए भी परेशान हैं. अधिकांश बुनकर परिवार अन्य व्यवसाय से भी जुड़ रहे हैं. एक तरफ तो कम आमदनी इस साड़ी से उन्हें काफी मेहनत के बाद कम मिल रही है, दूसरी तरफ बुनकरों का दर्द पावरलूम की साड़ियां भी बढ़ा रही हैं (Kota Doria saree facing challenges). मशीन से तैयार होने वाली साड़ियां हुबहू कोटा डोरिया जैसी लगती है. क्वालिटी में पावरलूम की साड़ियां इन्हें छू भी नहीं पातीं, लेकिन कीमत काफी कम होने के चलते लोग इनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. कोटा डोरिया और पावरलूम की साड़ियों के दाम में कई गुना का अंतर है. ऐसे में कैथून के कोटा डोरिया साड़ी बुनकरों की आमदनी पर भी असर पड़ रहा है.

ऐसे तैयार होती हैं साड़ियां- बुनकर शमीम बानो ने बताया कि सबसे पहले रेशम और सूती धागे को तैयार किया जाता है. इसके बाद उसको रंगाई कर अलग-अलग रील में भरा जाता है. यह कई रंगों का उपयोग किया जाता है. जिनका रंग भी नहीं छूटता है. बाद में धागे को मजबूत बनाने के लिए उस पर चावल और प्याज के रस का लेप लगाया जाता है. इस काम में करीब 4 से 5 दिन लग जाते हैं. इसके बाद बुनाई का काम शुरू होता है. जिसमें भी 10 दिन से ज्यादा का समय लगता है. साथ डिजाइन और फूल बनाने का काम बाद में किया जाता है. इसमें भी 1 से 2 दिन लग जाते हैं. हालांकि ज्यादा जरी के काम वाली साड़ी में बुनाई का काम ही डेढ़ महीने तक चलता है.

जीआई टैग मिला- केंद्र सरकार के उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्घन विभाग (डीपीआईआईटी) ने कोटा डोरिया की साड़ी को भौगोलिक संकेतक (GI) जारी कर दिया है. जीआई टैग किसी उत्पाद की खास गुणवत्ता या उसके अलग होने का भरोसा भी दिलाता है. इसका लोगो भी सभी असली साड़ियों पर नजर आता है, यह पावरलूम की साड़ी पर नहीं होता है. कोटा डोरिया साड़ी को बनाने में करीब 40 सालों से जुटी बुनकर शमीम बानो का मानना है कि दूसरी साड़ी अब चलने लग गई है. जिनमें चंदेरी, बनारसी व गोटे वाली साड़ी है. हालांकि समझने वाले लोग इसी तरह की साड़ी को पसंद करते है. नकली साड़ियां भी काफी सारी आ रही हैं, लेकिन जो असली को पहनता है, वह पहचान जाता है और असली साड़ी ही लेता है. इस साड़ी के दीवाने कई लोग हैं.

डुप्लीकेट से मिल रही चुनौती- राव माधो सिंह म्यूजियम ट्रस्ट के क्यूरेटर पंडित आशुतोष दाधीच ने बताया कि हाड़ौती की तकरीबन 300 से 400 वर्ष पुरानी एक विशेष हस्तकला है. एक साड़ी को तैयार करने में काफी समय लगता है. करीब एक से डेढ़ महीने का समय लग जाता है. कीमत भी काफी आती है. करीब 7000 रुपए एक साड़ी की कीमत होती है. डुप्लीकेट साड़ी इसके उलट सस्ती होती हैं. मशीनरी से तैयार हो रही है. मार्केट में काफी कम दाम में मिल रही है इसलिए ओरिजिनल कोटा डोरिया को चुनौती दे रही हैं.

बुनकर शकीला बाई का कहना है कि पावरलूम और हैंडलूम कि दोनों साड़ियों में काफी अंतर है. पावरलूम की साड़ियां का धागा काफी कमजोर होता है, वह टूट जाता है. पावरलूम में मशीन से साड़ी बनाई जा रही है. कैथून में हाथों से हैंडलूम की साड़ी तैयार की जा रही है. हमारा कच्चा मटेरियल अच्छी गुणवत्ता वाला है. हमारे कच्चे मटेरियल के चलते ही धोने के बाद साड़ी में कोई अंतर नहीं आता है, वह वैसी की वैसी रहेगी. पावरलूम का मटेरियल काफी हल्का रहता है. साड़ी धोने के बाद सिकुड़ जाती है और फिनिशिंग भी नहीं रहती है हालांकि इससे हमें फर्क पड़ता है कि कोटा डोरिया की साड़ी को पावरलूम की कीमत पर हम से मांगते हैं. जिससे हमारा गुजारा नहीं हो सकता.

मीडिएटर के पास जा रहा कमीशन- बुनकर ताहिरा बानो का मानना है कि कस्टमर हमें बोलते हैं कि कोटा की भैरू गली में 500 से एक व ड़ेढ़ हजार में साड़ी मिल जाती है, लेकिन यहां पर महंगा क्यों दे रहे हैं. हम समझाते हैं कि महंगा काम हाथ से हुआ है, वहां मशीन का काम है. हमारा सिल्क, कॉटन, जरी का धागा काफी महंगा वाला है. कुछ लोग समझ जाते हैं, कुछ नहीं समझते हैं. हमारी साड़ी पूरे भारत के साथ-साथ दुनिया में कोने कोने में भी जा रही है, हमें सीधा कस्टमर को साड़ी बेचने पर फायदा होता है, लेकिन बीच में मीडिएटर और दुकानदार के आ जाने के चलते उन्हें भी पैसा मिलता है, इसलिए हमारी इनकम कम हो जाती है. जबकि पावरलूम की साड़ियां 1 दिन में कितनी भी बनाई जा सकती है, क्योंकि वह मशीन से बनती है. जबकि कोटा डोरिया की साड़ी मिनिमम 15 दिन में एक तैयार होती है.

पढ़ें- चुनावी साल में हस्तशिल्प मेले में गहलोत सरकार के कामों की प्रदर्शनी, A से Z सब शामिल

दिहाड़ी मजदूर के बराबर आय- कैथून के बुनकर निजामुद्दीन का मानना है कि उतना हमें नहीं मिल पाता है. जितनी हमारी तमन्ना रहती है, लेकिन हम रोजी-रोटी के अनुसार ही इस काम को कर रहे हैं. एक साड़ी पर अभी रोज 300 से 400 रुपए के अनुसार पैसा मिल जाता है. यह दिहाड़ी मजदूरी जितना है. कई लोग मशीन से बनी नकली बेच रहे हैं, लेकिन कैथून वाले लोग एक भी साड़ी नकली नहीं बेच रहे हैं. कोटा डोरिया के नाम से नकली साड़ी बेच रहे हैं. उससे हमें फर्क पड़ रहा है. मशीन से बना धागा कच्चा रहता है, हमारा पक्का माल रहता है. रील जरी वाला काम है.

एक साड़ी में कम से कम 15 दिन, उधर 1 दिन में सैंकड़ों तैयार- कैथून में करीब तीन से चार हजार लोग कोटा डोरिया की साड़ी बनाने में जुटे हुए हैं. यहां पर हर महीने करीब 5 से 6 साड़ियां तैयार हो रही है. जिन से लाखों रुपए की आमदनी तो होती है, लेकिन इस साड़ी को बनाने में कच्चा माल भी लाखों की कीमत का आ जाता है. बुनकर शमीम बानो का कहना है कि जितनी महंगी साड़ी होती है. उसमें उतनी ही ज्यादा मेहनत लगती है. क्योंकि रील जरी का काम उसमें किया जाता है. सामान्य साड़ी में करीब 5 हजार का कच्चा माल आता है, जिसमें धागा, रेशम, सूती व सिल्क और जरी (धातु के धागों) से शामिल है. इसमें रंग और चावल के मांड भी डाली जाती है. महंगी साड़ियों में जरी का काम ज्यादा होता है. यह रील जरी महंगी आती है. इसलिए उसकी कीमत बढ़ जाती है.

पूर्व राज परिवार का सहारा- हाड़ौती की सालों पुरानी कला को सहेजने के लिए पूर्व राजपरिवार अब आगे आया है. राव माधव सिंह म्यूजियम ट्रस्ट ने हाल ही में दो दिवसीय प्रदर्शनी आयोजित की थी. जिसमें इस कोटा डोरिया की साड़ी कैसे बनती है. इसके बारे में भी लोगों को अवगत कराया है. सैकड़ों की संख्या में लोगों ने इस प्रदर्शनी को देखा भी है. म्यूजियम के क्यूरेटर पंडित आशुतोष दाधीच का कहना है कि ट्रस्ट के चेयरमैन और पूर्व महाराव इज्यराज सिंह, पूर्व महाराज कुमार जयदेव सिंह सहित पूरे परिवार ने प्रयास किया है कि उचित माध्यम और प्लेटफार्म इन बुनकरों को उपलब्ध कराया जाए. लोगों को समझा रहे हैं कि कोटा डोरिया की साड़ी महंगी क्यों बनती है. ताकि बुनकरों को इनकी मेहनत व पूरा मेहनताना मिल सके. इन सभी बुनकरों को उचित मेहनताना नहीं मिलेगा, तो यह कला खत्म हो जाएगी. इसलिए लोगों को यह बताना होगा कि हाथ से बनाने में इतनी मेहनत होती है. जबकि इसी में ओरिजिनलिटी रहती है. मशीन से बनने वाली ओरिजिनल साड़ी नहीं होती है.

पावरलूम बना चुनौती

कोटा. कोटा की विश्व विख्यात कोटा डोरिया साड़ी पूरे विश्व में सप्लाई हो रही हैं. यह साड़ियां लाखों रुपए कीमत तक की बनती हैं. इनमें बुनकरों की काफी मेहनत भी लगती है. हालांकि बुनकर 6 से 7 हजार रुपए से लेकर डेढ़ से दो लाख रुपए तक की साड़ियां तैयार करते हैं (Kota Doria saree facing challenges). जिसमें ढाई से 3 महीने एक साड़ी को बनने में लगता है. घर के सभी सदस्य लगते हैं. इसके बावजूद भी बुनकरों की स्थिति ठीक नहीं है, उन्हें महज दिहाड़ी मजदूरी के बराबर ही मेहनताना इन साड़ियों पर मिल रहा है.

लाखों की साड़ियां बनाते हैं पर हाथ जो लग रहा है वो नाममात्र है. बुनकर 2 जून की रोटी के लिए भी परेशान हैं. अधिकांश बुनकर परिवार अन्य व्यवसाय से भी जुड़ रहे हैं. एक तरफ तो कम आमदनी इस साड़ी से उन्हें काफी मेहनत के बाद कम मिल रही है, दूसरी तरफ बुनकरों का दर्द पावरलूम की साड़ियां भी बढ़ा रही हैं (Kota Doria saree facing challenges). मशीन से तैयार होने वाली साड़ियां हुबहू कोटा डोरिया जैसी लगती है. क्वालिटी में पावरलूम की साड़ियां इन्हें छू भी नहीं पातीं, लेकिन कीमत काफी कम होने के चलते लोग इनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. कोटा डोरिया और पावरलूम की साड़ियों के दाम में कई गुना का अंतर है. ऐसे में कैथून के कोटा डोरिया साड़ी बुनकरों की आमदनी पर भी असर पड़ रहा है.

ऐसे तैयार होती हैं साड़ियां- बुनकर शमीम बानो ने बताया कि सबसे पहले रेशम और सूती धागे को तैयार किया जाता है. इसके बाद उसको रंगाई कर अलग-अलग रील में भरा जाता है. यह कई रंगों का उपयोग किया जाता है. जिनका रंग भी नहीं छूटता है. बाद में धागे को मजबूत बनाने के लिए उस पर चावल और प्याज के रस का लेप लगाया जाता है. इस काम में करीब 4 से 5 दिन लग जाते हैं. इसके बाद बुनाई का काम शुरू होता है. जिसमें भी 10 दिन से ज्यादा का समय लगता है. साथ डिजाइन और फूल बनाने का काम बाद में किया जाता है. इसमें भी 1 से 2 दिन लग जाते हैं. हालांकि ज्यादा जरी के काम वाली साड़ी में बुनाई का काम ही डेढ़ महीने तक चलता है.

जीआई टैग मिला- केंद्र सरकार के उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्घन विभाग (डीपीआईआईटी) ने कोटा डोरिया की साड़ी को भौगोलिक संकेतक (GI) जारी कर दिया है. जीआई टैग किसी उत्पाद की खास गुणवत्ता या उसके अलग होने का भरोसा भी दिलाता है. इसका लोगो भी सभी असली साड़ियों पर नजर आता है, यह पावरलूम की साड़ी पर नहीं होता है. कोटा डोरिया साड़ी को बनाने में करीब 40 सालों से जुटी बुनकर शमीम बानो का मानना है कि दूसरी साड़ी अब चलने लग गई है. जिनमें चंदेरी, बनारसी व गोटे वाली साड़ी है. हालांकि समझने वाले लोग इसी तरह की साड़ी को पसंद करते है. नकली साड़ियां भी काफी सारी आ रही हैं, लेकिन जो असली को पहनता है, वह पहचान जाता है और असली साड़ी ही लेता है. इस साड़ी के दीवाने कई लोग हैं.

डुप्लीकेट से मिल रही चुनौती- राव माधो सिंह म्यूजियम ट्रस्ट के क्यूरेटर पंडित आशुतोष दाधीच ने बताया कि हाड़ौती की तकरीबन 300 से 400 वर्ष पुरानी एक विशेष हस्तकला है. एक साड़ी को तैयार करने में काफी समय लगता है. करीब एक से डेढ़ महीने का समय लग जाता है. कीमत भी काफी आती है. करीब 7000 रुपए एक साड़ी की कीमत होती है. डुप्लीकेट साड़ी इसके उलट सस्ती होती हैं. मशीनरी से तैयार हो रही है. मार्केट में काफी कम दाम में मिल रही है इसलिए ओरिजिनल कोटा डोरिया को चुनौती दे रही हैं.

बुनकर शकीला बाई का कहना है कि पावरलूम और हैंडलूम कि दोनों साड़ियों में काफी अंतर है. पावरलूम की साड़ियां का धागा काफी कमजोर होता है, वह टूट जाता है. पावरलूम में मशीन से साड़ी बनाई जा रही है. कैथून में हाथों से हैंडलूम की साड़ी तैयार की जा रही है. हमारा कच्चा मटेरियल अच्छी गुणवत्ता वाला है. हमारे कच्चे मटेरियल के चलते ही धोने के बाद साड़ी में कोई अंतर नहीं आता है, वह वैसी की वैसी रहेगी. पावरलूम का मटेरियल काफी हल्का रहता है. साड़ी धोने के बाद सिकुड़ जाती है और फिनिशिंग भी नहीं रहती है हालांकि इससे हमें फर्क पड़ता है कि कोटा डोरिया की साड़ी को पावरलूम की कीमत पर हम से मांगते हैं. जिससे हमारा गुजारा नहीं हो सकता.

मीडिएटर के पास जा रहा कमीशन- बुनकर ताहिरा बानो का मानना है कि कस्टमर हमें बोलते हैं कि कोटा की भैरू गली में 500 से एक व ड़ेढ़ हजार में साड़ी मिल जाती है, लेकिन यहां पर महंगा क्यों दे रहे हैं. हम समझाते हैं कि महंगा काम हाथ से हुआ है, वहां मशीन का काम है. हमारा सिल्क, कॉटन, जरी का धागा काफी महंगा वाला है. कुछ लोग समझ जाते हैं, कुछ नहीं समझते हैं. हमारी साड़ी पूरे भारत के साथ-साथ दुनिया में कोने कोने में भी जा रही है, हमें सीधा कस्टमर को साड़ी बेचने पर फायदा होता है, लेकिन बीच में मीडिएटर और दुकानदार के आ जाने के चलते उन्हें भी पैसा मिलता है, इसलिए हमारी इनकम कम हो जाती है. जबकि पावरलूम की साड़ियां 1 दिन में कितनी भी बनाई जा सकती है, क्योंकि वह मशीन से बनती है. जबकि कोटा डोरिया की साड़ी मिनिमम 15 दिन में एक तैयार होती है.

पढ़ें- चुनावी साल में हस्तशिल्प मेले में गहलोत सरकार के कामों की प्रदर्शनी, A से Z सब शामिल

दिहाड़ी मजदूर के बराबर आय- कैथून के बुनकर निजामुद्दीन का मानना है कि उतना हमें नहीं मिल पाता है. जितनी हमारी तमन्ना रहती है, लेकिन हम रोजी-रोटी के अनुसार ही इस काम को कर रहे हैं. एक साड़ी पर अभी रोज 300 से 400 रुपए के अनुसार पैसा मिल जाता है. यह दिहाड़ी मजदूरी जितना है. कई लोग मशीन से बनी नकली बेच रहे हैं, लेकिन कैथून वाले लोग एक भी साड़ी नकली नहीं बेच रहे हैं. कोटा डोरिया के नाम से नकली साड़ी बेच रहे हैं. उससे हमें फर्क पड़ रहा है. मशीन से बना धागा कच्चा रहता है, हमारा पक्का माल रहता है. रील जरी वाला काम है.

एक साड़ी में कम से कम 15 दिन, उधर 1 दिन में सैंकड़ों तैयार- कैथून में करीब तीन से चार हजार लोग कोटा डोरिया की साड़ी बनाने में जुटे हुए हैं. यहां पर हर महीने करीब 5 से 6 साड़ियां तैयार हो रही है. जिन से लाखों रुपए की आमदनी तो होती है, लेकिन इस साड़ी को बनाने में कच्चा माल भी लाखों की कीमत का आ जाता है. बुनकर शमीम बानो का कहना है कि जितनी महंगी साड़ी होती है. उसमें उतनी ही ज्यादा मेहनत लगती है. क्योंकि रील जरी का काम उसमें किया जाता है. सामान्य साड़ी में करीब 5 हजार का कच्चा माल आता है, जिसमें धागा, रेशम, सूती व सिल्क और जरी (धातु के धागों) से शामिल है. इसमें रंग और चावल के मांड भी डाली जाती है. महंगी साड़ियों में जरी का काम ज्यादा होता है. यह रील जरी महंगी आती है. इसलिए उसकी कीमत बढ़ जाती है.

पूर्व राज परिवार का सहारा- हाड़ौती की सालों पुरानी कला को सहेजने के लिए पूर्व राजपरिवार अब आगे आया है. राव माधव सिंह म्यूजियम ट्रस्ट ने हाल ही में दो दिवसीय प्रदर्शनी आयोजित की थी. जिसमें इस कोटा डोरिया की साड़ी कैसे बनती है. इसके बारे में भी लोगों को अवगत कराया है. सैकड़ों की संख्या में लोगों ने इस प्रदर्शनी को देखा भी है. म्यूजियम के क्यूरेटर पंडित आशुतोष दाधीच का कहना है कि ट्रस्ट के चेयरमैन और पूर्व महाराव इज्यराज सिंह, पूर्व महाराज कुमार जयदेव सिंह सहित पूरे परिवार ने प्रयास किया है कि उचित माध्यम और प्लेटफार्म इन बुनकरों को उपलब्ध कराया जाए. लोगों को समझा रहे हैं कि कोटा डोरिया की साड़ी महंगी क्यों बनती है. ताकि बुनकरों को इनकी मेहनत व पूरा मेहनताना मिल सके. इन सभी बुनकरों को उचित मेहनताना नहीं मिलेगा, तो यह कला खत्म हो जाएगी. इसलिए लोगों को यह बताना होगा कि हाथ से बनाने में इतनी मेहनत होती है. जबकि इसी में ओरिजिनलिटी रहती है. मशीन से बनने वाली ओरिजिनल साड़ी नहीं होती है.

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