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स्पेशल रिपोर्ट: सड़क किनारे सुविधाओं के अभाव में गाड़िया लोहार, कब आएंगे इनके 'अच्छे दिन'

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Published : Dec 24, 2019, 5:11 PM IST

वक्त बदला..सोच बदली, लेकिन नहीं बदली तो इन गाड़िया लोहारों की किस्मत. महाराणा प्रताप की सेना के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चले थे. प्रताप की सेना के लिए घोड़ों की नाल, तलवार और अन्य हथियार बनाते थे, लेकिन आज वे दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर है. देखिए झालावाड़ से स्पेशल रिपोर्ट

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कब आएंगे गाड़िया लोहार के 'अच्छे दिन'

अकलेरा (झालावाड़). जिले के कामखेड़ा मार्ग और अकलेरा रोड के किनारे गाड़िया लोहार अपनी जिंदगी बसर कर रहे है. परिवार के साथ रह रहे ये लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में है. अपनी आजीविका के लिए ये लोहे के सामान (चिमटा, हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, करछली) बनाकर घर-घर बेचते हैं. लेकिन पिछले कई दशकों से लोहा पीटने वाले ये लोग मशीनी युग में इनके हाथों के बनाए चिमटे, खुरपी बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते एवं चमचमाते उत्पादों के सामने दम तोड़ने लगे हैं.

कब आएंगे गाड़िया लोहार के 'अच्छे दिन'

नौनिहाल शिक्षा से वंचित
विडंबना यह है कि विकास के नाम पर अरबों रुपयों की जन-कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद इस समुदाय की सुध किसी ने भी नहीं ली, क्योंकि आज के बाजार के लिए ये बेमतलब हैं और सरकार के लिए गैरजरूरी. इस समुदाय के बच्चे सड़क पर ही जन्म लेते हैं और सड़क पर ही दम तोड़ने को मजबूत हैं. इनके नौनिहाल शिक्षा से वंचित हैं.

पढ़ें- अनूठी पहल: हथोड़ा चलाने वाले गाड़िया लोहार के बच्चे बोलते हैं फर्राटेदार अंग्रेजी और संस्कृत, देखें ये खास रिपोर्ट

गाड़िया लोहारों को नहीं मिल रही कोई सुविधा
गरीबी उन्मूलन और सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकारों के आंगनबाड़ी केंद्र तक इनके डेरों के पास नहीं हैं. इनके पास न राशनकार्ड और न ही सिर छुपाने की कोई जगह है, और तो और, अपने पूर्वजों की देशभक्ति का इनाम उन्हें यह दिया गया कि आजादी के बाद लंबे अरसे तक ये मतदाता सूची से ही बेदखल रखे गए.

व्यवस्थित कर पाने में सरकार असमर्थ
लोहार ये ऐसी वनवासी जनजातियां हैं, जिन्हें विकास का आंशिक लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है. सदियों से ये जातियां अपने पारंपरिक रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और पहन-पहनावे में रची-बसी हैं. इनकी दीनता खुद इनके पिछड़ेपन की कहानी बयां करती है. गरीबी उन्मूलन की योजनाएं इनके लिए दूर की कौड़ी हैं. वार्षिक योजनाओं में हालांकि इन जातियों के विकास के लिए राशि सदैव रखी जाती है, लेकिन आज तक सरकारें इनको व्यवस्थित कर पाने में असमर्थ ही रही हैं.

पढ़ें- अलवर के बहरोड़ में मूलभूत सुविधाओं से वंचित गाड़िया लुहार समाज, घुमन्तु समाज के प्रदेश अध्यक्ष मिलने पहुंचे

गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा गाड़िया लोहार समाज
गाड़िया लोहार राजस्थान का ऐसा पिछड़ा वनवासी समाज है, जो महाराणा प्रताप की आन-बान की धरोहर को लिए एक गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा है. विज्ञान के इस युग में भी यह जाति अपने आपको एक स्थान पर बसा नहीं पाई है. वैसे राजस्थान में कुछेक स्थानों पर गाड़िया लुहारों को बसाने का प्रयास किया गया है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है.

महाराणा प्रताप के सैनिक थे गाड़िया लोहार
मान्यता है कि गाड़िया लोहार महाराणा प्रताप के ऐसे सेनानी थी, जो दिल्ली के बादशाह अकबर की पराधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. चंद राजपूतों को जंगल में संगठित कर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता का शंखनाद इन्हीं लोगों को लेकर किया था. चाहे स्वतंत्रता का सपना उस समय पूरा न हुआ हो, लेकिन यह इन सैनिकों की गौरवशाली परंपरा का वाहक बन गया. ये लोग आज भी मकान बना कर रहने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सके हैं. राजस्थान और देश के अन्य भागों में वे गांव-गांव में गाड़ियों पर डेरा डाले घुमक्कड़ों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

पढ़ें- स्पेशल रिपोर्ट: समाज में सुधार लाने के लिए बेटी ने छोड़ा 9 लाख पैकेज... अब सिविल सर्विसेज के जरिए लोहार समाज को चाहती है बढ़ाना

सरकार और समाज को आगे आने की जरूरत
अब इनके पुनर्वास और शिक्षण की ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है. दीन-हीन अवस्था में जी रही इस जाति को जहां सरकार से भारी अपेक्षाएं हैं, वहीं समाज की सहानुभूति भी उन्हें चाहिए. ये लोग मानव-समाज के ही अभिन्न अंग हैं. सामुदायिक विकास भाव से ही इन लोगों का पुनरोदय हो सकता है. जितना जल्दी हो सके, इन समाज के लिए कारगर कदम उठाए जाने चाहिए. हाशिये पर पल रहे इस समाज को मुख्यधारा में लाकर ही उनका जीवन संवारा-सुधारा जा सकता है.

अकलेरा (झालावाड़). जिले के कामखेड़ा मार्ग और अकलेरा रोड के किनारे गाड़िया लोहार अपनी जिंदगी बसर कर रहे है. परिवार के साथ रह रहे ये लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में है. अपनी आजीविका के लिए ये लोहे के सामान (चिमटा, हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, करछली) बनाकर घर-घर बेचते हैं. लेकिन पिछले कई दशकों से लोहा पीटने वाले ये लोग मशीनी युग में इनके हाथों के बनाए चिमटे, खुरपी बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते एवं चमचमाते उत्पादों के सामने दम तोड़ने लगे हैं.

कब आएंगे गाड़िया लोहार के 'अच्छे दिन'

नौनिहाल शिक्षा से वंचित
विडंबना यह है कि विकास के नाम पर अरबों रुपयों की जन-कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद इस समुदाय की सुध किसी ने भी नहीं ली, क्योंकि आज के बाजार के लिए ये बेमतलब हैं और सरकार के लिए गैरजरूरी. इस समुदाय के बच्चे सड़क पर ही जन्म लेते हैं और सड़क पर ही दम तोड़ने को मजबूत हैं. इनके नौनिहाल शिक्षा से वंचित हैं.

पढ़ें- अनूठी पहल: हथोड़ा चलाने वाले गाड़िया लोहार के बच्चे बोलते हैं फर्राटेदार अंग्रेजी और संस्कृत, देखें ये खास रिपोर्ट

गाड़िया लोहारों को नहीं मिल रही कोई सुविधा
गरीबी उन्मूलन और सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकारों के आंगनबाड़ी केंद्र तक इनके डेरों के पास नहीं हैं. इनके पास न राशनकार्ड और न ही सिर छुपाने की कोई जगह है, और तो और, अपने पूर्वजों की देशभक्ति का इनाम उन्हें यह दिया गया कि आजादी के बाद लंबे अरसे तक ये मतदाता सूची से ही बेदखल रखे गए.

व्यवस्थित कर पाने में सरकार असमर्थ
लोहार ये ऐसी वनवासी जनजातियां हैं, जिन्हें विकास का आंशिक लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है. सदियों से ये जातियां अपने पारंपरिक रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और पहन-पहनावे में रची-बसी हैं. इनकी दीनता खुद इनके पिछड़ेपन की कहानी बयां करती है. गरीबी उन्मूलन की योजनाएं इनके लिए दूर की कौड़ी हैं. वार्षिक योजनाओं में हालांकि इन जातियों के विकास के लिए राशि सदैव रखी जाती है, लेकिन आज तक सरकारें इनको व्यवस्थित कर पाने में असमर्थ ही रही हैं.

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गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा गाड़िया लोहार समाज
गाड़िया लोहार राजस्थान का ऐसा पिछड़ा वनवासी समाज है, जो महाराणा प्रताप की आन-बान की धरोहर को लिए एक गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा है. विज्ञान के इस युग में भी यह जाति अपने आपको एक स्थान पर बसा नहीं पाई है. वैसे राजस्थान में कुछेक स्थानों पर गाड़िया लुहारों को बसाने का प्रयास किया गया है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है.

महाराणा प्रताप के सैनिक थे गाड़िया लोहार
मान्यता है कि गाड़िया लोहार महाराणा प्रताप के ऐसे सेनानी थी, जो दिल्ली के बादशाह अकबर की पराधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. चंद राजपूतों को जंगल में संगठित कर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता का शंखनाद इन्हीं लोगों को लेकर किया था. चाहे स्वतंत्रता का सपना उस समय पूरा न हुआ हो, लेकिन यह इन सैनिकों की गौरवशाली परंपरा का वाहक बन गया. ये लोग आज भी मकान बना कर रहने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सके हैं. राजस्थान और देश के अन्य भागों में वे गांव-गांव में गाड़ियों पर डेरा डाले घुमक्कड़ों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

पढ़ें- स्पेशल रिपोर्ट: समाज में सुधार लाने के लिए बेटी ने छोड़ा 9 लाख पैकेज... अब सिविल सर्विसेज के जरिए लोहार समाज को चाहती है बढ़ाना

सरकार और समाज को आगे आने की जरूरत
अब इनके पुनर्वास और शिक्षण की ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है. दीन-हीन अवस्था में जी रही इस जाति को जहां सरकार से भारी अपेक्षाएं हैं, वहीं समाज की सहानुभूति भी उन्हें चाहिए. ये लोग मानव-समाज के ही अभिन्न अंग हैं. सामुदायिक विकास भाव से ही इन लोगों का पुनरोदय हो सकता है. जितना जल्दी हो सके, इन समाज के लिए कारगर कदम उठाए जाने चाहिए. हाशिये पर पल रहे इस समाज को मुख्यधारा में लाकर ही उनका जीवन संवारा-सुधारा जा सकता है.

Intro:जनम-मरन, ब्याह-शादी, सुख-दुख और संपूर्ण रीति-रिवाजों का निर्वहन उस एक ही गाड़ी में हो जाता है जिसके साथ वे यत्र-तत्र भ्रमण करते हैं। वे तब तक एक ही स्थान पर बने रहते हैं-जब तक उस स्थान पर उनके बनाए सामान की बिक्री होती रहती है। जब जीविकोपार्जन दूभर होने लगता है तो ये लोग वह स्थान छोड़ देते हैं और गाड़ियों में लदे किसी अन्य स्थान पर जाकर डेरा लगाते हैं। इसके लिए भी वे ऐसा स्थान तलाशते हैं जो गांव की आबादी में न हो और वहां पानी तथा खुले जंगल की सुविधा सुलभ हो। ये वनवासी गरमी, सर्दी और वर्षा तीनों ही मौसम गाड़ी के सहारे बिताते हैं। हां, वर्षा में वे आमतौर पर एक ही स्थान पर बसेरा कर लेते हैं। कच्चे रास्ते गांवों में खराब हो जाते हैं इसलिए चौमासा यह घुमक्कड़ जाति एक ही स्थान पर व्यतीत करती है। इसके लिए वे सिरकी के जोड़े की सहायता लेते हैं जिसे लगाने के बाद वे सर्दी-वर्षा से बच पाते हैं। लेकिन आज आवश्यकता है इस जाति के पुनर्वास की, ताकि विकास की रोशनी इन तक भी पहुंच सके। एक तरफ हमारा समाज अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहा है। अच्छा जीवन व्यतीत कर रहा है। वहीं ये गरीब वनवासी बमुश्किल अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हंै। जरूरी है कि साक्षर बनाने के लिए इनके लिए अलग से योजनाएं चलाई जाएं।Body:अकलेरा झालावाड़ हेमराज शर्मा


अकलेरा /झालावाड़ /जिले के कामखेड़ा सड़क मार्ग पर गाड़िया लोहार दिनेश कुमार की एक दर्दभरी कहानी वहीं इसी के साथ-साथ अकलेरा के सड़क मार्ग पर स्थित सड़क किनारे गिरधर गाड़िया लोहार की दर्द भरी कहानी तीन पीढ़ी से अधिक हो गए कस्बे में रहते रहते हैं नहीं मिली सरकार द्वारा मूलभूत सुविधाएं।

समय बदला पर ये नहीं बदले। न देह से, न आत्मा से। मानवीय लालसाओं का संक्षिप्त रूप है इनकी गाड़ी और इनकी चलती-फिरती गृहस्थी। आजीविका के लिए ये लोहे के सामान - चिमटा, हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, करछली आदि बनाकर घर-घर बेचते हैं। एक जमाने में जब बाजार का चरित्र इतना बाजारू नहीं हुआ था और जब भूमंडलीकरण की काली आँधी का बहना शुरू नहीं हुआ था तब तक इन गड़िया लोहारों को अपने इस पुश्तैनी रोजगार से चना-चबेना मिल जाता था पर पिछले कई दशकों से लोहे पर चोट करने वाले और जिंदगी की सुविधाओं को अँगूठा दिखाने वाले इस समुदाय को स्वयं चोटों का सामना करना पड़ रहा है। घर के सारे सदस्य लोहा पीटने में लगे रहते हैं पर आज के मशीनी युग में इनके हाथों के बनाए चिमटे, खुरपी बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते एवं चमचमाते उत्पादों के सामने दम तोड़ने लगे हैं।

विडंबना यह है कि विकास के नाम पर अरबों रुपयों की जन-कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद इस समुदाय की सुध किसी ने भी नहीं ली क्योंकि आज के बाजार के लिए ये बेमतलब हैं और सरकार के लिए गैरजरूरी। इस समुदाय के बच्चे सड़क पर ही जन्म लेते हैं और सड़क पर ही दम तोड़ने को मजबूत हैं। इनके नौनिहाल शिक्षा से वंचित हैं।

गरीबी उन्मूलन और सर्वशिक्षा अभियान चलाने वाली सरकारों के आँगनबाड़ी केंद्र तक इनके डेरों के पास नहीं हैं। इनके पास न राशनकार्ड और न ही सिर छुपाने की कोई जगह है। और तो और, अपने पूर्वजों की देशभक्ति का ईनाम उन्हें यह दिया गया कि आजादी के बाद लंबे अरसे तक ये मतदाता सूची से ही बेदखल रखे गए।

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उन्होंने मेरी बात पर आपत्ति दर्ज की, 'हमारे पूर्वजों ने जो भी किया, बहुत अच्छा किया।' उनके इस जवाब से पता चलता है कि क्या दिया, क्या पाया का हिसाब-किताब इनके भोले दिमाग में नहीं समाता।

परिचय हुआ, उनकी महिलाएँ अपने चेहरे पर तीन गुदना अवश्य गुदवाती हैं, दो गालों पर और एक माथे पर बिंदी कीजिए जगह। कहते हैं कि कभी इनके पूर्वज तीन युद्ध हार गए थे, इसी की ग्लानि और पीड़ा लिए वे आज भी घूमते हैं।

बहरहाल, भौतिक समृद्धि की ओर तेज रफ्तार से भागते बाजारवाद के इस युग में यदि कुछ बचा है- निष्ठा, समर्पण या देशप्रेम जैसा कुछ तो इन्हीं जंगलों में रहने वाले या खानाबदोस जीवन जीने वाले लोगों के बीच जिन्हें हम पिछड़ा या जंगली कहते हैं। हम तो इतने सभ्य हुए कि उनकी किसी भी भावना का मान रखना तो दूर, उलटे इनके जंगल, जानवर और पहाड़ों तक पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाए हुए हैं और जब भी मौका मिले उन्हें हड़प लेने को तैयार बैठे हैं।Conclusion:लुहार-ये ऐसी वनवासी जनजातियां हैं जिन्हें विकास का आंशिक लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है। सदियों से ये जातियां अपने पारंपरिक रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और पहन-पहनावे में रची-बसी हैं। इनकी दीनता खुद इनके पिछड़ेपन की कहानी कहती है। गरीबी उन्मूलन की योजनाएं इनके लिए दूर की कौड़ी हैं। वार्षिक योजनाओं में हालांकि इन जातियों के विकास के लिए राशि सदैव रखी जाती है-लेकिन आज तक सरकारें इनको व्यवस्थित कर पाने में सर्वथा असमर्थ ही रही हैं। इन जातियों में गाड़िया-लुहार राजस्थान का ऐसा पिछड़ा वनवासी समाज है, जो महाराणा प्रताप की आन-बान की धरोहर को लिए एक गाड़ी में अपना जीवन बिता रहा है। यह उसकी आदि परंपरा है कि विज्ञान के इस युग में भी यह जाति अपने आपको एक स्थान पर बसा नहीं पाई है। वैसे राजस्थान में कुछेक स्थानों पर गाड़िया लुहारों को बसाने का प्रयास किया गया है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है।

मान्यता है कि गाड़िया-लुहार महाराणा प्रताप के ऐसे सेनानी थी, जो दिल्ली के बादशाह अकबर की पराधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। चंद राजपूतों को जंगल में संगठित कर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतंत्रता का शंखनाद इन्हीं लोगों को लेकर किया था। चाहे स्वतंत्रता का सपना उस समय पूरा न हुआ हो लेकिन यह इन सैनिकों की गौरवशाली परंपरा का वाहक बन गया। ये लोग आज भी मकान बना कर रहने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सके हैं। राजस्थान और देश के अन्य भागों में वे गांव-गांव में गाड़ियों पर डेरा डाले घुमक्कड़ों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
वे जीविकोपार्जन के लिए लोहे का सामान बनाकर बेचते हैं। इनमें खेती-किसानी तथा घरों में काम आने वाले औजार होते हैं, जैसे- खुरपी, फावड़ा, लोहे की सिगड़ियां, चाकू, कैंची तथा लोहे के कुछ और उपकरण आदि। इसके लिए यह घुमक्कड़ जाति दिन भर लोहे को आग में तपा कर, कूट-पीटकर ढालती है और आकार देती है। यही तैयार सामान गाड़िया-लुहारों की लड़कियां और महिलाएं दिन भर गांवों और मोहल्लों में जोर-जोर आवाज लगाकर बेचती हैं और अपने पेट पालने का जुगाड़ करती हैं।

इनका पहनावा भी खास तरह का होता है। पुरुष ऊंची-लांग की धोती और मोटे कपड़े का पारंपरिक अंगरखा और सिर पर पगड़ी पहनते हैं। औरतें घुटनों से थोड़े नीचे तक का छींट का घेरदार लहंगा और चोली तथा उस पर लूगड़ा पहनती हैं। औरतें हाथों में कुहनी तक हाथी-दांत के चूड़े पहनने का भी पूरा चाव रखती हैं। यही पहनावा गाड़िया लुहारों के महिला समाज का परिचायक है।

इनका जनम-मरन, ब्याह-शादी, सुख-दुख और संपूर्ण रीति-रिवाजों का निर्वहन उस एक ही गाड़ी में हो जाता है जिसके साथ वे यत्र-तत्र भ्रमण करते हैं। वे तब तक एक ही स्थान पर बने रहते हैं-जब तक उस स्थान पर उनके बनाए सामान की बिक्री होती रहती है। जब जीविकोपार्जन दूभर होने लगता है तो ये लोग वह स्थान छोड़ देते हैं और गाड़ियों में लदे किसी अन्य स्थान पर जाकर डेरा लगाते हैं। इसके लिए भी वे ऐसा स्थान तलाशते हैं जो गांव की आबादी में न हो और वहां पानी तथा खुले जंगल की सुविधा सुलभ हो। ये वनवासी गरमी, सर्दी और वर्षा तीनों ही मौसम गाड़ी के सहारे बिताते हैं। हां, वर्षा में वे आमतौर पर एक ही स्थान पर बसेरा कर लेते हैं। कच्चे रास्ते गांवों में खराब हो जाते हैं इसलिए चौमासा यह घुमक्कड़ जाति एक ही स्थान पर व्यतीत करती है। इसके लिए वे सिरकी के जोड़े की सहायता लेते हैं जिसे लगाने के बाद वे सर्दी-वर्षा से बच पाते हैं। लेकिन आज आवश्यकता है इस जाति के पुनर्वास की, ताकि विकास की रोशनी इन तक भी पहुंच सके। एक तरफ हमारा समाज अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहा है। अच्छा जीवन व्यतीत कर रहा है। वहीं ये गरीब वनवासी बमुश्किल अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हंै। जरूरी है कि साक्षर बनाने के लिए इनके लिए अलग से योजनाएं चलाई जाएं।

दिक्कत यह है कि यह जनजाति एक जगह नहीं रहती, इसलिए न तो स्थाई निवास बना पाती है और न ही बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिला पाती है। आरक्षण हो भी तो क्या, जब उनके बच्चे साक्षर तक नहीं हो पाते। एक ओर जहां हम अपने विवाह-शादी के मौके पर उल्लासमय वातावरण के साथ यह आयोजन संपन्न करते हैं वहीं वे लोग एक गाड़ी से लेकर पास की ही दूसरी गाड़ी में यह रस्म पूरी कर देते हैं। इनके पुनर्वास और शिक्षण की ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है। दीन-हीन अवस्था में जी रही इस जाति को जहां सरकार से भारी अपेक्षाएं हैं, वहीं समाज की सहानुभूति भी उन्हें चाहिए। ये लोग मानव-समाज के ही अभिन्न अंग हैं। सामुदायिक विकास भाव से ही इन लोगों का पुनरोदय हो सकता है। जितना जल्दी हो सके, इन समाज के लिए कारगर कदम उठाए जाने चाहिए। हाशिये पर पल रहे इस समाज को मुख्यधारा में लाकर ही उनका जीवन संवारा-सुधारा जा सकता है।
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