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स्पेशल स्टोरी: राजाओं की शान और शूरवीरता का प्रतीक किशनगढ़ किला बदहाली का शिकार

राजस्थान में किलों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. देश ही नहीं बल्की सात समन्दर पार से सैलानी इन किलों की एक झलक पाने के लिये यहां आते हैं. मगर एक ऐसा भी किला है जो बदहाली का दंश झेल रहा है. जानते है इस किले के बारे में इस स्पेशल रिपोर्ट में.

जैसलमेर का किला, Jaisalmer Fort, जैसलमेर का किशनढ़ किला , Kishangarh Fort of Jaisalmer
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Published : Sep 26, 2019, 2:02 PM IST

जैसलमेर. अपनी आन-बान-शान और गौरवशाली इतिहास के लिये एक विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान प्रतीक है, यहां के राजाओं की शान और शूरवीरता का. राजस्थान में किलों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है चाहे वह चित्तौड़गढ़ का किला हो, या फिर उदयपुर या बीकानेर का किला. प्रदेश की विभिन्न रियासतों में बने यह किले गवाह हैं गुजरे जमाने के, कि यहां कभी सभ्यता, संस्कृति और वैभवपन अपने चरम पर था. आज भी अगर किलों की बात होती है तो राजस्थान का नाम विशेष रूप से लिया जाता है.

उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खड़ा है किशनगढ़ किला

देश ही नहीं बल्की सात समन्दर पार से सैलानी इन किलों की एक झलक पाने के लिये यहां आते हैं. इन किलों की श्रृखला में बात करें तो जैसलमेर जिले की गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहा सोनार किला आज अपनी स्वर्णिम आभा से पर्यटकों की पहली पसंद बना हुआ है. जैसलमेर के सोनार किले के साथ ही एक ऐसा किला भी है जो भारत पाक सीमा पर डटा हुआ आज भी सीमा का प्रहरी बना हुआ है.

पढ़ेंः क्रेन का काम कर रही 108 एंबुलेंस , VIDEO VIRAL

हम बात कर रहे हैं जैसलमेर की पाकिस्तान से लगती सीमा पर बने किशनगढ़ के गौरवशाली किले की जो अपनी सार संभाल के अभाव में जर्जर सा होता जा रहा है. मुगल और सिंध शैली का नायाब नमूना यह किला जैसलमेर जिला मुख्यालय से पकिस्तान सीमा की तरफ 145 किलोमीटर दूर स्थित है. सीमा पर बने होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से इस किले पर पर्यटकों के आने की पाबंदी लगी हुई है और यही वजह है कि देखरेख के अभाव में यह किला दम तोड़ता नजर आ रहा है. इतिहास की अगर बात करें तो जैसलमेर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर और भायलपुर पाकिस्तान की सीमा के नजदीक जैसलमेर के प्राचीन किशनगढ़ परगने का मार्ग देरावल और मुल्तान की ओर से जाता था. बंटवारे से पहले और रियासत काल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिये इसी रास्ते से होकर जाना पड़ता था. ऐसे में सीमा पर बना यह किला ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था.

पढ़ेंः श्राद्ध पक्ष में यहां कुछ इस तरह से करते हैं पिंडदान

इस किले का निर्माण दावद खां उर्फ दीनू खां ने करवाया था. जिसके वजह से इसका प्रारम्भिक नाम दीनगढ़ था. इतिहासकार बताते हैं कि दावद खां के पौत्रों से हुई संधि के बाद महारावल मूलराजसिंह के समय इसका नाम बदल कर कृष्णगढ़ रखा गया था. जिसे आज किशनगढ़ के नाम से जाना जाता है. अठारवीं शताब्दी का यह किला वास्तुशिल्प संरचना का अद्भुद नमूना है. इस किले का निर्माण पक्की इंटों से करवाया गया है और इसमें दो मंजिलें बनी हुई है. किले में मस्जिद, महल और पानी का कुआ भी बना हुआ है. मुगल और सिंध शैली के मिश्रण से बना यह किला अपनी निर्माण तकनीक में बेजोड़ है. यही कारण है कि आज भी उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खड़ा है.

पढ़ेंः 64वीं बास्केटबॉल प्रतियोगिता: जैसलमेर एकेडमी और जयपुर फर्स्ट टीम ने जीते फाइनल मैच

जानकारों की माने तो इस किले के निर्माण के समय इसमें बने खुफिया दरवाजे इसकी विशेषता रहे है. ताकि युद्ध के समय दुश्मनों को चकमा दिया जा सके. साल 1965 और 71 के युद्धों में जब पाक सेना भारतीय सीमा में प्रवेश कर कर काफी आगे आ गई थी, तब इस किले में घुसे सैनिकों (मुजाहिद) यहीं पर भ्रमित हो कर रह गये थे और आगे नहीं बढ पाये थे. सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी यह किला आज उपेक्षा का दंश झेलता जर्जर होने को विवश है.

सीमा सुरक्षा बल ने किशनगढ़ के पास सैन्य चौकी का निर्माण किया है जहां पर सैकड़ों सैनिक रहते हैं. यह किला दिन-ब-दिन अपना स्वरूप खोता जा रहा है. आगामी दिनों में अगर इस किले की ओर गंभीरता पूर्वक नजर नहीं डाली गई तो जमींदोज होता यह किला इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा. कागजों की अगर बात करें तो जैसलमेर के इस सरहदी किले किशनगढ़ को संरक्षित स्मारक बनाया गया है. लेकिन जगह-जगह से ढही इसकी दीवारें, अपनी जगह छोड़ती ईंटे, उपेक्षा का दंश झेलती इसकी बुर्जियां, कक्ष और प्राचीर को देखने से यह कहीं भी नहीं लगता है कि इस किले का किसी भी रूप में संरक्षण हो रहा है. बदहाली का यह सूरते हाल देख कर अपने आप ही स्पष्ट हो रहा है कि लंबे समय से इस किले की सुध नहीं ली गई है. ऐसे में बदहाली का दंश झेल रहा यह किला किसी भी समय ढह जायेगा.

पढ़ेंः एक बेटे की अनोखी पहल: बाप की सड़क हादसे में हो गई थी मौत, बेटे ने बारहवीं के आयोजन में बांटे हेलमेट

गौरतलब है कि कला साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभा की ओर से जैसलमेर के आस पास बने घोटारू, गणेशिया के साथ साथ किशनगढ़ किले को भी संरक्षित स्मारक घोषित करने के लिये इसका निरीक्षण कर इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिये एक दल भी आया था. इसमें पुरातत्व अधीक्षक सहित जैसलमेर संग्रहालय अध्यक्ष भी शामिल थे. इस निरीक्षण दल की तरफ से बनाई गई रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने अधिसूचना जारी कर सरकार से आपत्तियां मांगी गई थी. आपत्तियां नहीं मिलने की स्थिति में कला, साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभाग ने राजस्थान स्मारक पुरावशेष स्थान और प्राचीन वस्तु अधिनियम 1961 के तहत राज्य सरकार की ओर से घोटारू, गणेशिया और किशनगढ़ किले को संरक्षित स्मारक घोषित करने की घोषणा 22 नवम्बर 2011 में जारी कर दी गई थी. संरक्षित स्मारक घोषित होने के बाद यहां के लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब इस किले के दिन बदलने वाले हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सरकारी उपेक्षा के चलते संरक्षित स्मारक होने के बाद भी इस किले की किस्मत संवर नहीं पाई है. यह गढ़ अपनी बदहाली पर आज भी आसूं बहा रहा है.

जैसलमेर. अपनी आन-बान-शान और गौरवशाली इतिहास के लिये एक विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान प्रतीक है, यहां के राजाओं की शान और शूरवीरता का. राजस्थान में किलों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है चाहे वह चित्तौड़गढ़ का किला हो, या फिर उदयपुर या बीकानेर का किला. प्रदेश की विभिन्न रियासतों में बने यह किले गवाह हैं गुजरे जमाने के, कि यहां कभी सभ्यता, संस्कृति और वैभवपन अपने चरम पर था. आज भी अगर किलों की बात होती है तो राजस्थान का नाम विशेष रूप से लिया जाता है.

उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खड़ा है किशनगढ़ किला

देश ही नहीं बल्की सात समन्दर पार से सैलानी इन किलों की एक झलक पाने के लिये यहां आते हैं. इन किलों की श्रृखला में बात करें तो जैसलमेर जिले की गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहा सोनार किला आज अपनी स्वर्णिम आभा से पर्यटकों की पहली पसंद बना हुआ है. जैसलमेर के सोनार किले के साथ ही एक ऐसा किला भी है जो भारत पाक सीमा पर डटा हुआ आज भी सीमा का प्रहरी बना हुआ है.

पढ़ेंः क्रेन का काम कर रही 108 एंबुलेंस , VIDEO VIRAL

हम बात कर रहे हैं जैसलमेर की पाकिस्तान से लगती सीमा पर बने किशनगढ़ के गौरवशाली किले की जो अपनी सार संभाल के अभाव में जर्जर सा होता जा रहा है. मुगल और सिंध शैली का नायाब नमूना यह किला जैसलमेर जिला मुख्यालय से पकिस्तान सीमा की तरफ 145 किलोमीटर दूर स्थित है. सीमा पर बने होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से इस किले पर पर्यटकों के आने की पाबंदी लगी हुई है और यही वजह है कि देखरेख के अभाव में यह किला दम तोड़ता नजर आ रहा है. इतिहास की अगर बात करें तो जैसलमेर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर और भायलपुर पाकिस्तान की सीमा के नजदीक जैसलमेर के प्राचीन किशनगढ़ परगने का मार्ग देरावल और मुल्तान की ओर से जाता था. बंटवारे से पहले और रियासत काल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिये इसी रास्ते से होकर जाना पड़ता था. ऐसे में सीमा पर बना यह किला ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था.

पढ़ेंः श्राद्ध पक्ष में यहां कुछ इस तरह से करते हैं पिंडदान

इस किले का निर्माण दावद खां उर्फ दीनू खां ने करवाया था. जिसके वजह से इसका प्रारम्भिक नाम दीनगढ़ था. इतिहासकार बताते हैं कि दावद खां के पौत्रों से हुई संधि के बाद महारावल मूलराजसिंह के समय इसका नाम बदल कर कृष्णगढ़ रखा गया था. जिसे आज किशनगढ़ के नाम से जाना जाता है. अठारवीं शताब्दी का यह किला वास्तुशिल्प संरचना का अद्भुद नमूना है. इस किले का निर्माण पक्की इंटों से करवाया गया है और इसमें दो मंजिलें बनी हुई है. किले में मस्जिद, महल और पानी का कुआ भी बना हुआ है. मुगल और सिंध शैली के मिश्रण से बना यह किला अपनी निर्माण तकनीक में बेजोड़ है. यही कारण है कि आज भी उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खड़ा है.

पढ़ेंः 64वीं बास्केटबॉल प्रतियोगिता: जैसलमेर एकेडमी और जयपुर फर्स्ट टीम ने जीते फाइनल मैच

जानकारों की माने तो इस किले के निर्माण के समय इसमें बने खुफिया दरवाजे इसकी विशेषता रहे है. ताकि युद्ध के समय दुश्मनों को चकमा दिया जा सके. साल 1965 और 71 के युद्धों में जब पाक सेना भारतीय सीमा में प्रवेश कर कर काफी आगे आ गई थी, तब इस किले में घुसे सैनिकों (मुजाहिद) यहीं पर भ्रमित हो कर रह गये थे और आगे नहीं बढ पाये थे. सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी यह किला आज उपेक्षा का दंश झेलता जर्जर होने को विवश है.

सीमा सुरक्षा बल ने किशनगढ़ के पास सैन्य चौकी का निर्माण किया है जहां पर सैकड़ों सैनिक रहते हैं. यह किला दिन-ब-दिन अपना स्वरूप खोता जा रहा है. आगामी दिनों में अगर इस किले की ओर गंभीरता पूर्वक नजर नहीं डाली गई तो जमींदोज होता यह किला इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा. कागजों की अगर बात करें तो जैसलमेर के इस सरहदी किले किशनगढ़ को संरक्षित स्मारक बनाया गया है. लेकिन जगह-जगह से ढही इसकी दीवारें, अपनी जगह छोड़ती ईंटे, उपेक्षा का दंश झेलती इसकी बुर्जियां, कक्ष और प्राचीर को देखने से यह कहीं भी नहीं लगता है कि इस किले का किसी भी रूप में संरक्षण हो रहा है. बदहाली का यह सूरते हाल देख कर अपने आप ही स्पष्ट हो रहा है कि लंबे समय से इस किले की सुध नहीं ली गई है. ऐसे में बदहाली का दंश झेल रहा यह किला किसी भी समय ढह जायेगा.

पढ़ेंः एक बेटे की अनोखी पहल: बाप की सड़क हादसे में हो गई थी मौत, बेटे ने बारहवीं के आयोजन में बांटे हेलमेट

गौरतलब है कि कला साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभा की ओर से जैसलमेर के आस पास बने घोटारू, गणेशिया के साथ साथ किशनगढ़ किले को भी संरक्षित स्मारक घोषित करने के लिये इसका निरीक्षण कर इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिये एक दल भी आया था. इसमें पुरातत्व अधीक्षक सहित जैसलमेर संग्रहालय अध्यक्ष भी शामिल थे. इस निरीक्षण दल की तरफ से बनाई गई रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने अधिसूचना जारी कर सरकार से आपत्तियां मांगी गई थी. आपत्तियां नहीं मिलने की स्थिति में कला, साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभाग ने राजस्थान स्मारक पुरावशेष स्थान और प्राचीन वस्तु अधिनियम 1961 के तहत राज्य सरकार की ओर से घोटारू, गणेशिया और किशनगढ़ किले को संरक्षित स्मारक घोषित करने की घोषणा 22 नवम्बर 2011 में जारी कर दी गई थी. संरक्षित स्मारक घोषित होने के बाद यहां के लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब इस किले के दिन बदलने वाले हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सरकारी उपेक्षा के चलते संरक्षित स्मारक होने के बाद भी इस किले की किस्मत संवर नहीं पाई है. यह गढ़ अपनी बदहाली पर आज भी आसूं बहा रहा है.

Intro:Body:WORD TOURISUM DAY(27 SEP) SPECIAL STORY

उपेक्षा के दंश झेलता जैसलमेर का किशनगढ किला
संरक्षित स्मारक घोषित होने के बाद भी संवर नहीं पाई है किस्मत,
जर्जर होता किला कभी भी हो सकता है धराशाही

अपनी आन-बान और शान और गौरवशाली इतिहास के लिये एक विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान के गौरवशाली किले प्रतीक हैं यहां के राजाओं की शान और शूरवीरता के। राजस्थान में किलों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है चाहे वह चित्तोडगढ का किला हो या फिर उदयपुर की शान या फिर हो बीकानेर का किला। प्रदेश की विभिन्न रियासतों में बने यह किले गवाह हैं गुजरे जमाने के जहां सभ्यता, संस्कृति और वैभवपन अपने चरम पर था। आज भी अगर किलों की बात होती है तो राजस्थान का नाम विशेष रूप से लिया जाता है और देश ही नहीं वरन् सात समन्दर पार से सैलानी इन किलों की एक झलक पाने के लिये यहां आते हैं। और इन किलों की श्रृखला में बात करें जैसलमेर जिले की तो अपने गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहा सोनार किला आज अपनी स्वर्णिम आभा से पर्यटकों की पहली पसंद बना हुआ है। जैसलमेर के सोनार किले के साथ ही एक ऐसा किला भी है जो भारत पाक सीमा पर डटा हुआ आज भी सीमा का प्रहरी बना हुआ है।

हम बात कर रहे हैं जैसलमेर की पाकिस्तान से लगती सीमा पर बने किशनगढ के गौरवशाली किले की जो अपनी सार संभाल के अभाव में जर्जर सा होता जा रहा है। मुगल व सिंध शैली का नायाब नमूना यह किला जैसलमेर जिला मुख्यालय से पकिस्तान सीमा की तरफ 145 किलोमीटर दूर स्थित है। सीमा पर बने होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से इस किले पर पर्यटकों के आने की पाबंदी लगी हुई है और यही वजह है कि देखरेख के अभाव में यह किला दम तोडता नजर आ रहा है।
इतिहास की अगर बात करें तो जैसलमेर से करीब डेढ सौ किलोमीटर दूर व भायलपुर पाकिस्तान की सीमा के नजदीक जैसलमेर के प्राचीन किशनगढ परगने का मार्ग देरावल व मुल्तान की ओर से जाता था। बंटवारे से पहले व रियासत काल में अफगानिस्तान व पाकिस्तान के लिये इसी रास्ते से होकर जाना पडता था ऐसे में सीमा पर बना यह किला ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा था। इस किले का निर्माण दावद खां उर्फ दीनू खां ने करवाया था जिसके चलते इसका प्रारम्भिक नाम दीनगढ था। इतिहासकार बताते हैं कि दावद खां के पौत्रों से हुई संधि के बाद महारावल मूलराजसिंह के समय इसका नाम बदल कर कृष्णगढ रखा गया था जिसे आज किशनगढ के नाम से जाना जाता है। अठारवी शताब्दी का यह किला वास्तुशिल्प संरचना का अद्भुद नमूना है। इस किले का निर्माण पक्की इंटों से करवया गया है और इसमें दो मंजिलें बनी हुई है। किले में मस्जिद, महल व पानी का कुआ भी बना हुआ है। मुगल व सिंध शैली के मिश्रण से बना यह किला अपनी निर्माण तकनीक में बेजोड है और यही कारण है कि आज भी उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खडा है।

जानकारों की माने तो इस किले के निर्माण के समय इसमें बने खुफिया दरवाजे इसकी विशेषता रहे थे ताकि युद्ध के समय दुश्मनों को चकमा दिया जा सके और 1965 व 71 के युद्धों में जब पाक सेना भारतीय सीमा में प्रवेश कर कर काफी आगे आ गई थी तब इस किले में घुसे सैनिकों (मुजाहिद) यहीं पर भ्रमित हो कर रह गये थे और आगे नहीं बढ पाये थे सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी यह किला आज उपेक्षा का दंश झेलता जर्जर होने को विवश हो रहा है।

सीमा सुरक्षा बल द्वारा किशनगढ के पास सैन्य चौकी का निर्माण किया गया है जहां पर सैकडों सैनिक रहते हैं। सीमा चौकी बनने के साथ यह उम्मीद भी जगी थी कि अब शायद सेना इस किले की सार संभाल करेगी लेकिन सीमाओं पर चौकसी में व्यस्त सेना को भी इस किले की सुध लेने का समय नहीं मिल पा रहा है और यह किला दिन ब दिन अपना स्वरूप खोता जा रहा है। आगामी दिनों में अगर इस किले की ओर गंभीरता पूर्वक नजर नहीं डाली गई तो जमींदोज होता यह किला इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा। कागजों की अगर बात करें तो जैसलमेर के इस सरहदी किले किशनगढ को संरक्षित स्मारक बनाया गया है लेकिन जगह जगह से ढही इसकी दीवारें, अपनी जगह छोडती ईंटे और उपेक्षा का दंश झेलती इसकी बुर्जियां, कक्ष और प्राचीर को देखने से यह कहीं भी नहीं लगता है कि इसकिले का किसी भी रूप में संरक्षण हो रहा है। बदहाली का यह सूरते हाल देख कर अपने आप ही स्पष्ट हो रहा है कि लंबे समय से इस किले की सुध नहीं ली गई है औरे ऐसे में बदहाली का दंश झेल रहा यह किला किसी भी समय ढह जायेगा।

गौरतलब है कि कला साहित्य, संस्कृति व पुरातत्व विभा की ओर से जैसलमेर के आस पास बने घोटारू, गणेशिया के साथ साथ किशनगढ किले को भी संरक्षित स्मारक घोषित करने के लिये इसका निरीक्षण कर इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिये एक दल भी आया था जिसमें पुरातत्व अधीक्षक सहित जैसलमेर संग्रहालय अध्यक्ष भी शामिल थे। इस निरीक्षण दल द्वारा बनाई गई रिपोर्ट के आधार पर सरकार द्वारा अधीसूचना जारी कर आपत्तियां मांगी गई थी और आपत्तियां नहीं मिलने की स्थिति में कला, साहित्य, संस्कृति व पुरातत्व विभाग द्वारा राजस्थान स्मारक पुरावशेष स्थान तथा प्राचीन वस्तु अधीनियम 1961 के तहत राज्य सरकार की ओर से घोटारू, गणेशिया व किशनगढ किले को संरक्षित स्मारक घोषित करने की घोषणा 22 नवम्बर 2011 में जारी कर दी गई थी। संरक्षित स्मारक घोषित होने के बाद यहां के लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब इस किले के दिन बदलने वाले हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं और सरकारी उपेक्षा के चलते संरक्षित स्मारक होने के बाद भी इस किले की किस्मत संवर नहीं पाई है और यह गढ अपनी बदहाली पर आज भी आंसू बहा रहा है।

बाईट-1- नंदकिशोर शर्मा , इतिहासकार
बाईट-2- विजय बल्लाणी , इतिहास के जानकार
बाईट-3- नंदकिशोर शर्मा , इतिहासकार
बाईट-4- विजय बल्लाणी , इतिहास के जानकार Conclusion:
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