जैसलमेर. अपनी आन-बान-शान और गौरवशाली इतिहास के लिये एक विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान प्रतीक है, यहां के राजाओं की शान और शूरवीरता का. राजस्थान में किलों का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है चाहे वह चित्तौड़गढ़ का किला हो, या फिर उदयपुर या बीकानेर का किला. प्रदेश की विभिन्न रियासतों में बने यह किले गवाह हैं गुजरे जमाने के, कि यहां कभी सभ्यता, संस्कृति और वैभवपन अपने चरम पर था. आज भी अगर किलों की बात होती है तो राजस्थान का नाम विशेष रूप से लिया जाता है.
देश ही नहीं बल्की सात समन्दर पार से सैलानी इन किलों की एक झलक पाने के लिये यहां आते हैं. इन किलों की श्रृखला में बात करें तो जैसलमेर जिले की गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहा सोनार किला आज अपनी स्वर्णिम आभा से पर्यटकों की पहली पसंद बना हुआ है. जैसलमेर के सोनार किले के साथ ही एक ऐसा किला भी है जो भारत पाक सीमा पर डटा हुआ आज भी सीमा का प्रहरी बना हुआ है.
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हम बात कर रहे हैं जैसलमेर की पाकिस्तान से लगती सीमा पर बने किशनगढ़ के गौरवशाली किले की जो अपनी सार संभाल के अभाव में जर्जर सा होता जा रहा है. मुगल और सिंध शैली का नायाब नमूना यह किला जैसलमेर जिला मुख्यालय से पकिस्तान सीमा की तरफ 145 किलोमीटर दूर स्थित है. सीमा पर बने होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से इस किले पर पर्यटकों के आने की पाबंदी लगी हुई है और यही वजह है कि देखरेख के अभाव में यह किला दम तोड़ता नजर आ रहा है. इतिहास की अगर बात करें तो जैसलमेर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर और भायलपुर पाकिस्तान की सीमा के नजदीक जैसलमेर के प्राचीन किशनगढ़ परगने का मार्ग देरावल और मुल्तान की ओर से जाता था. बंटवारे से पहले और रियासत काल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिये इसी रास्ते से होकर जाना पड़ता था. ऐसे में सीमा पर बना यह किला ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था.
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इस किले का निर्माण दावद खां उर्फ दीनू खां ने करवाया था. जिसके वजह से इसका प्रारम्भिक नाम दीनगढ़ था. इतिहासकार बताते हैं कि दावद खां के पौत्रों से हुई संधि के बाद महारावल मूलराजसिंह के समय इसका नाम बदल कर कृष्णगढ़ रखा गया था. जिसे आज किशनगढ़ के नाम से जाना जाता है. अठारवीं शताब्दी का यह किला वास्तुशिल्प संरचना का अद्भुद नमूना है. इस किले का निर्माण पक्की इंटों से करवाया गया है और इसमें दो मंजिलें बनी हुई है. किले में मस्जिद, महल और पानी का कुआ भी बना हुआ है. मुगल और सिंध शैली के मिश्रण से बना यह किला अपनी निर्माण तकनीक में बेजोड़ है. यही कारण है कि आज भी उपेक्षा का दंश झेलने के बावजूद यह डटा खड़ा है.
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जानकारों की माने तो इस किले के निर्माण के समय इसमें बने खुफिया दरवाजे इसकी विशेषता रहे है. ताकि युद्ध के समय दुश्मनों को चकमा दिया जा सके. साल 1965 और 71 के युद्धों में जब पाक सेना भारतीय सीमा में प्रवेश कर कर काफी आगे आ गई थी, तब इस किले में घुसे सैनिकों (मुजाहिद) यहीं पर भ्रमित हो कर रह गये थे और आगे नहीं बढ पाये थे. सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी यह किला आज उपेक्षा का दंश झेलता जर्जर होने को विवश है.
सीमा सुरक्षा बल ने किशनगढ़ के पास सैन्य चौकी का निर्माण किया है जहां पर सैकड़ों सैनिक रहते हैं. यह किला दिन-ब-दिन अपना स्वरूप खोता जा रहा है. आगामी दिनों में अगर इस किले की ओर गंभीरता पूर्वक नजर नहीं डाली गई तो जमींदोज होता यह किला इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा. कागजों की अगर बात करें तो जैसलमेर के इस सरहदी किले किशनगढ़ को संरक्षित स्मारक बनाया गया है. लेकिन जगह-जगह से ढही इसकी दीवारें, अपनी जगह छोड़ती ईंटे, उपेक्षा का दंश झेलती इसकी बुर्जियां, कक्ष और प्राचीर को देखने से यह कहीं भी नहीं लगता है कि इस किले का किसी भी रूप में संरक्षण हो रहा है. बदहाली का यह सूरते हाल देख कर अपने आप ही स्पष्ट हो रहा है कि लंबे समय से इस किले की सुध नहीं ली गई है. ऐसे में बदहाली का दंश झेल रहा यह किला किसी भी समय ढह जायेगा.
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गौरतलब है कि कला साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभा की ओर से जैसलमेर के आस पास बने घोटारू, गणेशिया के साथ साथ किशनगढ़ किले को भी संरक्षित स्मारक घोषित करने के लिये इसका निरीक्षण कर इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिये एक दल भी आया था. इसमें पुरातत्व अधीक्षक सहित जैसलमेर संग्रहालय अध्यक्ष भी शामिल थे. इस निरीक्षण दल की तरफ से बनाई गई रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने अधिसूचना जारी कर सरकार से आपत्तियां मांगी गई थी. आपत्तियां नहीं मिलने की स्थिति में कला, साहित्य, संस्कृति और पुरातत्व विभाग ने राजस्थान स्मारक पुरावशेष स्थान और प्राचीन वस्तु अधिनियम 1961 के तहत राज्य सरकार की ओर से घोटारू, गणेशिया और किशनगढ़ किले को संरक्षित स्मारक घोषित करने की घोषणा 22 नवम्बर 2011 में जारी कर दी गई थी. संरक्षित स्मारक घोषित होने के बाद यहां के लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब इस किले के दिन बदलने वाले हैं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सरकारी उपेक्षा के चलते संरक्षित स्मारक होने के बाद भी इस किले की किस्मत संवर नहीं पाई है. यह गढ़ अपनी बदहाली पर आज भी आसूं बहा रहा है.