जैसलमेर. राजस्थान का जैसलमेर बेहद खूबसूरत किले और हवेलियों का शहर है. मीलों फैले रेगिस्तान में ऊंट की सवारी करते हुए रेत के टीलों के पीछे ढलते सूरज को देखने का अहसास कुछ अलग ही होता है. सरहदी जिला जैसलमेर भारत-पाक सीमा पर बसा है. अपने रेतीले धोरों के चलते दुनियाभर के सैलानियों के लिए भी यह आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है. दूर से देखने में ये रेत का दरिया जितना खूबसूरत दिखाई देता है. वास्तव में उसकी हकीकत संघर्षों की लम्बी कहानी को बयां करती है, जो रूह को कंपा देने वाली है. किस तरह यहां के लोगों ने अभावों को अपने जीवन का हिस्सा बनाया और अकाल सहित कई प्राकृतिक आपदाओं को झेलकर इस वीरान रेगिस्तान में जीवन की उम्मीद के फूल खिलाए हैं.
हम रेगिस्तानी इलाके जैसलमेर की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि आज विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस है. इस मौके पर अगर जैसलमेर की चर्चा नहीं की जाए तो इस दिन की सार्थकता पूरी नहीं हो सकती है. इस मौके पर अब हम आपको लेकर चलते हैं जैसलमेर के उस कालखण्ड में जब यहां के लोगों ने प्रकृति से संघर्ष करना आरम्भ किया था और कैसे उन विपरीत परिस्थतियों में अपने जीवन को जीया था.
'घोड़ा कीजे काठ का पिण्ड कीजे पाषाण, बख्तर कीजे लौह का तब देखो जैसाण'
ये कहावत पुराने जमाने में जैसलमेर के परिपेक्ष्य में कही जाती थी. जिसका अर्थ है कि जिसके पास घोड़ा लकड़ी का हो, जो पानी नहीं पीता हो और शरीर पत्थर का हो, जो यहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से लड़ सके और उस शरीर पर बख्तर यानि कपड़े लोहे के बने हो, वहीं जैसलमेर में जिंदा रह सकता है.
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देश के सबसे बड़े भूभाग में बसा जैसलमेर केन्द्र और राज्य की राजधानियों से लम्बी दूरी पर स्थित है. सरहद किनारे होने के चलते विकास के लिहाज से भी यह जिला हासिए पर ही था. ऐसे में यहां न तो सड़कों का जाल था और न ही यहां आने के लिए परिवहन के उपयुक्त साधन. उस जमाने में ऊंट और घोड़ों के जरिए यहां के लोग एक जगह से दूसरी जगहों पर जाते थे.
रेगिस्तान का अकाल से पुराना रिश्ता...
अथाह रेगिस्तान होने के चलते अकाल का यहां से पुराना नाता रहा है. बरसों बरस यहां पर बारिश नहीं होती थी. जिससे पशुपालन और खेती पर निर्भर यहां के लोगों के लिए जीविका चलाना भी मुश्किल हो गया था. साथ ही पीने के पानी के लिए लोग दर-दर भटकते थे, लेकिन कई बार तो पानी की एक बूंद मिल पाना भी मुश्किल हो जाता था.
पानी के लिए हमेशा से ही लोगों ने किया संघर्ष...
पीने का पानी यहां की सबसे प्रमुख समस्या रही है. जिसके चलते यहां के लोगों ने रेगिस्तान का सीना चीर कर अपना और अपने पशुओं का गला तर किया है. पीने योग्य पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए बेरियां खोदी गईं. जिसमें बारिश के दौरान भूगर्भ में सिंचित जल रिस-रिस कर आता था. बेरियों और कुओं की खुदाई के लिए आज आधुनिक संसाधन मौजूद हैं. जो कुछ ही घण्टों में लम्बी गहराई तक खुदाई कर सकते हैं. लेकिन उस जमाने के लोगों ने अपने पशुओं और बाजुओं के दम पर गहरी बेरियां खोदी और पीने के पानी का प्रबंध किया.
'घी सस्ता और पानी मंहगा'
पानी के उपयोग को लेकर भी यहां एक कहावत है 'घी सस्ता और पानी मंहगा' ऐसे में यहां के लोग पानी का बहुउपयोग करते थे. नहाने के बाद बचे पानी से कपड़ा धो लिया जाता था और उससे भी बचे पानी से पौधों की सिंचाई कर दी जाती थी, ताकि पानी व्यर्थ नहीं बहे.
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अकाल को जैसलमेर का पर्याय ही कहा जाता है. यहां कई सालों तक पानी नहीं बरसता था. जैसलमेर ने उस जमाने में कई विपरीत परिस्थितयों को देखा है. भीषण अकाल आज भी यहां के बुजुर्गों की स्मृति में है. बुजर्ग बताते हैं कि उस जमाने में भूखमरी की समस्या आ गई थी. जिसके बाद ग्रामीणों ने गांव से पलायन तक कर दिया था और पानी की उपलब्धता वाले इलाके में कूच किया था. जानकारों के अनुसार इस कालखण्ड में कई लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर चले गए थे और कई लोग तो जैसलमेर छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में जाकर रोजगार करने लगे.
रियासतकाल में बनवाई गई थी कई बावड़ियां...
हालांकि रियासतकाल में जैसलमेर के तत्कालीन महाराजाओं ने अकाल के लड़ने के लिए लोगों को रोजगार भी दिलाया था. साथ ही कई भवनों का निर्माण करवाया, ताकि स्थानीय लोग और मजदूर पलायन ना करें. उस जमाने में बनवाई गई इमारतें आज भी जिले में मौजूद है. जो इस बात की जींवत गवाह भी है कि किस तरह से यहां के लोगों ने अकाल के दौरान अपना जीवन यापन किया था. रियासत काल में यहां के राजाओं ने इलाके की पानी वाली जगहों पर कई कुएं, बावड़ियां और तालाब खुदवाए थे. जिनमें एक बार बारिश का पानी एकत्र हो, तो कई महीनों तक लोगों की प्यास बुझ सकती थी. लेकिन फिर भी कई दफा लोग पानी के लिए तरसते रहे.
इंदिरा गांधी परियोजना से मिली नई उम्मीद...
आजादी के 80 दशक के बाद जैसलमेर जिले ने विकास की रफ्तार पकड़ी. जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जैसलमेर का दौरा किया और यहां की विषम परिस्थितियों से रूबरू हुईं. इसके बाद यहां पर सड़कों का जाल भी बिछा और पीने के पानी के लिए इंदिरा गांधी नहर परियोजना भी पहुंची.
समय के बढ़ते पहिए के साथ इस धोरों की धरा को पर्यटन स्थल के रूप में पहचाना जाने लगा. जैसलमेर ने पर्यटन विकास के इन पंखों के सहारे ऐसी उड़ान भरी कि आज जैसलमेर दुनियाभर में अपनी अलग पहचान बना चुका है. दुनिया के हर कोने में बैठा व्यक्ति यहां आना चाहता है, लेकिन पानी की स्थिति पहली भी वहीं भयावह थी जो आज भी बरकरार है.
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पर्यटन नगरी के रूप में विख्यात जैसलमेर में अब पर्यटन व्यवसाय अपने चरम पर है. साथ ही यहां के पीले पत्थर की मांग दुनियाभर में है. जिसके कारण इसे स्वर्णनगरी कहा जाता है. साथ ही पवन और सौर उर्जा के हब के रूप में भी जैसलमेर देशभर में बिजली सप्लाई कर रहा है. कई नामी गिरामी कंपनियां अब जैसलमेर की और लगातार बढ़ रही हैं, लेकिन जिले का गिरता भूजल संकट का विषय है.
भूजल स्तर में लगातार आ रही गिरावट...
जैसलमेर भूजल विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक नारायण इंणखिया की मानें तो जैसलमेर जिले में बारिश कम होने के चलते यहां का औसत भूजल स्तर वर्ष पहले 25 से 30 मीटर था. वहीं अब यह बढ़कर कई स्थानों पर 50 मीटर के करीब पहुंच गया है.
उन्होंने बताया कि अब जैसलमेर में इंदिरा गांधी नहर का पानी पहुंच रहा है. जिससे नहरी इलाकों में हरियाली बढ़ी है. लेकिन आज भी जिले का बड़ा भूभाग पानी के लिए संघर्ष कर रहा है. अत्याधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों की उपलब्धता के कारण अब यहां पर बड़ी संख्या में बोरवेल भी खुद गए हैं, जिससे भूजल का दोगुनी गति में दोहन हो रहा है. साथ ही वर्षा के जल का पारंपरिक तरीकों से संवर्धन बंद हो चुका है.
यहां अब परंपरागत जल स्त्रोतों में कमी आ गई है. इतना ही नहीं, वनों की कटाई के कारण पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ रहा है, जो जिले के भविष्य के लिए किसी बड़े खतरे से कम नहीं है.
स्थानीय निवासी विजय बल्लाणी ने बताते हैं कि जैसलमेर में पहले ऊंट परिवहन का मुख्य साधन होते थे, लेकिन अब जैसलमेर ही नहीं पूरे राजस्थान में ऊंटों की संख्या भी काफी कम हो चुकी है. ऊंटों का उपयोग अब पर्यटकों के लिए केवल केमल सवारी तक ही सीमित रह गया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है.