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मिट्टी को मनचाहा आकार देने वाले पोकरण के कुंभकारों पर आर्थिक संकट की मार, अब सरकार से मदद की दरकार - पाश्चात्य संस्कृति

भारतीय संस्कृति में कला का अधिक महत्व है. पर अफसोस कि आज उचित सहायता और पर्याप्त संसाधनों के अभाव में मिट्टी की कला लगभग विलुप्त होने के कगार पर आ पहुंची है. यही वजह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला को जीवित रखने का सपना देखने वाले कई कुंभकार आज दो वक्त की रोटी के मोहताज हो गए हैं.

जैसलमेर, potters facing financial cricis
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Published : Nov 24, 2019, 7:16 PM IST

जैसलमेर. पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में भारतीय कला और सनातन परंपराए लगभग विलुप्त होती नजर आ रही हैं. जिसका जीता जागता उदारहण है पोकरण की माटी कला. सरकारी मदद के अभाव में यह कला शायद अपनी अंतिम सांसें गिन रही है. यही वजह है कि अब इस कला को पहचान दिलाने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले कलाकारों का भी अब इससे मोह भंग होता नजर आ रहा है.

पोकरण की माटी कोटी कला और इससे जुड़े कलाकारों को सरकारी मदद की दरकार

परमाणु नगरी और शक्ति स्थल के नाम से विख्यात पोकरण के कुंभकारों को देशी और विदेशी लोगों की तारीफ तो खूब मिल रही है. लेकिन, जिस उद्देश्य की कल्पना इन लोगों ने की थी, वो पूरी होती नजर नहीं आती है. इन कलाकारों ने इस कला को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने का बीड़ा उठाया था. पर अफसोस की आज सरकारी सहायता के अभाव में इनका पारंपरिक व्यवसाय से मोह भंग होने लगा है.

गौरतलब है कि सरकारी सहायता और उचित संसाधनों के अभाव में ये कला लगभग विलुप्त होती नजर आ रही है. यहां के कुंभकारों ने इस कला को पहचान दिलाने में तो कामयाबी हासिल की, लेकिन इसके बदले में उन्हें तारीफ के दो शब्दों के अलावा और किसी तरह की कोई सुविधाएं या मदद नहीं मिली. ऊपर से बढ़ते हुए ग्लोबलाइजेशन ने इनकी आजीविका को प्रभावित करते हुए उनके खाने और रहने का सहारा भी छीन लिया. इस कला से पोकरण के करीब 100 से 110 परिवार जुड़े हुए हैं.

यह परिवार करीब 200 सालों से मिट्टी को मनचाहा आकार देने की कला से जुड़े हुए हैं. समय के साथ सब परिवर्तन होता गया. अब आलम ये है कि वर्तमान में आर्थिक युग के चलते यह कलाकार जितनी मेहनत करते हैं, उसकी तुलना में उन्हें उतना मेहनताना नहीं मिल पा रहा है. जिससे उनका व उनके परिवार का भरण-पोषण हो पाना भी मुश्किल हो गया है. बाजारों में लगातार वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही है. लेकिन मिट्टी से बने इन खिलौनों की कीमत आज भी जस की तस है. जिससे इन परिवारों को अब अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता सताने लगी है. कुंभकारों का कहना है कि आज के युग में उनको आर्थिक संबल नहीं मिल पा रहा है. जिससे यह अब आने वाली पीढ़ी को यह विरासत में नहीं सौंपना चाहते हैं.

पढ़े : महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को लेकर वेब सीरीज में दिखाए गए आपत्तिजनक दृश्य के विरोध में उतरी करणी सेना, दी बड़ी चेतावनी

कुंभकारों की मांग है कि इस कला को जीवित रखने के लिए सरकार इस कारोबार को बढ़ाने और उनके आजीविका स्तर को बढ़ाने में मदद करे. अगर सरकार ने सही समय पर इस कला को जीवित रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया तो यह कला विलुप्त हो सकती है. कुंभकार की चाक उसकी रोजी-रोटी है, जिसके घूमने पर ही उसके सपने पलते और बढ़ते हैं. लेकिन, चिंता इस बात की है कि इस चाक की रफ्तार अब धीमी होती जा रही है. अगर सरकार ने जल्द से जल्द इस पर कोई निर्णय नहीं लिया तो वो दिन दूर नहीं जब मिट्टी के बरतन और खिलौने हमारे लिए महज एक सपना बनकर रह जाएंगे.

जैसलमेर. पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में भारतीय कला और सनातन परंपराए लगभग विलुप्त होती नजर आ रही हैं. जिसका जीता जागता उदारहण है पोकरण की माटी कला. सरकारी मदद के अभाव में यह कला शायद अपनी अंतिम सांसें गिन रही है. यही वजह है कि अब इस कला को पहचान दिलाने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले कलाकारों का भी अब इससे मोह भंग होता नजर आ रहा है.

पोकरण की माटी कोटी कला और इससे जुड़े कलाकारों को सरकारी मदद की दरकार

परमाणु नगरी और शक्ति स्थल के नाम से विख्यात पोकरण के कुंभकारों को देशी और विदेशी लोगों की तारीफ तो खूब मिल रही है. लेकिन, जिस उद्देश्य की कल्पना इन लोगों ने की थी, वो पूरी होती नजर नहीं आती है. इन कलाकारों ने इस कला को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने का बीड़ा उठाया था. पर अफसोस की आज सरकारी सहायता के अभाव में इनका पारंपरिक व्यवसाय से मोह भंग होने लगा है.

गौरतलब है कि सरकारी सहायता और उचित संसाधनों के अभाव में ये कला लगभग विलुप्त होती नजर आ रही है. यहां के कुंभकारों ने इस कला को पहचान दिलाने में तो कामयाबी हासिल की, लेकिन इसके बदले में उन्हें तारीफ के दो शब्दों के अलावा और किसी तरह की कोई सुविधाएं या मदद नहीं मिली. ऊपर से बढ़ते हुए ग्लोबलाइजेशन ने इनकी आजीविका को प्रभावित करते हुए उनके खाने और रहने का सहारा भी छीन लिया. इस कला से पोकरण के करीब 100 से 110 परिवार जुड़े हुए हैं.

यह परिवार करीब 200 सालों से मिट्टी को मनचाहा आकार देने की कला से जुड़े हुए हैं. समय के साथ सब परिवर्तन होता गया. अब आलम ये है कि वर्तमान में आर्थिक युग के चलते यह कलाकार जितनी मेहनत करते हैं, उसकी तुलना में उन्हें उतना मेहनताना नहीं मिल पा रहा है. जिससे उनका व उनके परिवार का भरण-पोषण हो पाना भी मुश्किल हो गया है. बाजारों में लगातार वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही है. लेकिन मिट्टी से बने इन खिलौनों की कीमत आज भी जस की तस है. जिससे इन परिवारों को अब अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए चिंता सताने लगी है. कुंभकारों का कहना है कि आज के युग में उनको आर्थिक संबल नहीं मिल पा रहा है. जिससे यह अब आने वाली पीढ़ी को यह विरासत में नहीं सौंपना चाहते हैं.

पढ़े : महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को लेकर वेब सीरीज में दिखाए गए आपत्तिजनक दृश्य के विरोध में उतरी करणी सेना, दी बड़ी चेतावनी

कुंभकारों की मांग है कि इस कला को जीवित रखने के लिए सरकार इस कारोबार को बढ़ाने और उनके आजीविका स्तर को बढ़ाने में मदद करे. अगर सरकार ने सही समय पर इस कला को जीवित रखने के लिए कोई कदम नहीं उठाया तो यह कला विलुप्त हो सकती है. कुंभकार की चाक उसकी रोजी-रोटी है, जिसके घूमने पर ही उसके सपने पलते और बढ़ते हैं. लेकिन, चिंता इस बात की है कि इस चाक की रफ्तार अब धीमी होती जा रही है. अगर सरकार ने जल्द से जल्द इस पर कोई निर्णय नहीं लिया तो वो दिन दूर नहीं जब मिट्टी के बरतन और खिलौने हमारे लिए महज एक सपना बनकर रह जाएंगे.

Intro:पोकरण
क्या विलुप्त हो जाएगी पोकरण की माटी कोटि कला
110 परिवारों पर हो रहा रोजगार का संकट
सरकारी सहायता के अभाव में कुंभकार परेशान
माटी कोटि कला से मोह हो रहा भंग
भविष्य के बारे में चिंतित किसानBody:पाश्चात्य रहन-सहन की अंधी दौड मे कलाएं व परंपराए लगभग विलुप्त होती नजर आ रही है, जिसका जीता जागता उदारहण पोकरण की माटी कला है। सरकारी सहायता के अभाव मे यह माटी कला अंतिम सांसे गिन रही है, वहीं कलाकारों का भी अब इस कला से मोह भंग हो रहा है।परमाणु नगरी व शक्ति स्थल के नाम से विख्यात पोकरण के कुंभकारों को देशी व विदेशी लागो की तारीफ तो खूब मिल रही है, लेकिन जिस उद्वेश्य की कल्पना इन लोगों ने की थी वो पूरी होती नजर नहीं आती है। इन कलाकारो ने इस कला को एक पीढी से दूसरी पीढी तक लेकर जाने का बीडा उठाया था, लेकिन आज सरकारी सहायता के अभाव में इनका पारंपरीक व्यवसाय से मोह भंग होने लगा है।

गौरतलब है कि सरकारी सहायता व उचित संसाधनो के अभाव में ये कला लगभग विलुप्त होती नजर आ रही है। यहां के कुंभकारों ने अपनी पहचान बनाने मे कामयाबी तो हासिल की, लेकिन पहचान व तारीफ के दो शब्दो के अलावा इन्हें ना साधन मिले और ना ही किसी तरह की सुविधाएं। ऊपर से बढ़ते हुए ग्लोबलाइजेशन ने इनके खाने और रहने का सहारा भी इन लोगों से छीन लिया।इस कला से पोकरण के करीब 100 से 110 परिवार जुड़े हुए है । यह परिवार करीब 200 सालों से माटी कोटि कला से जुड़े हुए है । समय के साथ सब परिवर्तन होता गया । व वर्तमान में आर्थिक युग के चलते यह कलाकार जितनी मेहनत करते है उनको इस मेहनत का उतना मेहनताना नही मिल पा रहा है । जिससे उनका भरण पोषण भी हो पाना मुश्किल से हो गया है । बाजारों में लगातार बढ़ रही वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है । लेकिन माटी से बने इन खिलौनों की कीमत वैसी की वैसी ही है । जिससे यह परिवार अपने भविष्य के बारे में चिंतित नजर आ रहे है ।कुंभकारों का कहना है कि आज के युग मे उनको आर्थिक संबल नही मिल पा रहा है । जिससे यह अपनी आने वाली पीढ़ी को इस कला से दूर रखना चाहते है । हमने हमारे समय मुश्किलों से पास कर लिया है । लेकिन भावी पीढ़ी को हम अच्छी शिक्षा दिलवाकर आगे बढ़ना चाहते है । इस कला में हम अपना भरण पोषण भी अच्छी तरह से नही कर पाते है । तो भविष्य में हमारी पीढ़ी कैसे कर सकेगी । हमे उनके भविष्य की चिंता सता रही है । सरकार से हमारी यह मांग है कि इस कला को जीवित रखने के लिए अच्छा पैकेज दे । जिससे हम कला को जीवित रख सके । यदि सरकार ने सही समय पर इस कला को जीवित रखने के लिए कोई कदम नही उठाया तो यह माटी कोटि कला विलुप्त हो जाएगी ।

Conclusion:आर्थिक युग मे अच्छा मेहनताना नही मिलने से कुंभकार परेशान है । साथ ही भविष्य के बारे में चिंतित भी नजर आ रहे है ।
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