जयपुर. हिरण्यकश्यप को मिले वरदान के चलते स्वयं विष्णु भगवान ने उसके संहार के लिए नृसिंह अवतार धारण किया था. हिरण्यकश्यप का वध तो हो गया, लेकिन नारायण का क्रोध इतना प्रचंड था कि उनके क्रोध से समस्त जगत भयभीत हो गया. सभी देवी- देवता तक कांपने लगे थे. तब समस्त देवगण शिव की शरण में पहुंचे और नृसिंह भगवान को शांत करने का आग्रह किया. तब नृसिंह भगवान का गुस्सा शांत करने के लिए शिव ने शरभ अवतार धारण किया.
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भगवान शंकर का छठा अवतार है शरभावतार. लिंगपुराण में भी शिव के शरभ अवतार का वर्णन है. शरभ अवतार के बारे में मान्यता है कि यह एक ऐसा प्राणी था जो सिंह से भी बलशाली था व जिसके आठ पैर होते थे. शिव इस अवतार में गरूड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण करके प्रकट हुए और शरभ कहलाए.
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शिव भगवान शरभ रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनसे आग्रह किया, लेकिन नृसिंह भगवान की क्रोध शांत नहीं हुआ. यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर उड़ गए. शरभ नृसिंह भगवान पर चोंच से वार करने लगा. तब उनके वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया. तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई थी.
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नृसिंह भगवान ने शिव के अवतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की. उन्होंने शिव से निवेदन किया कि इनके चर्म को शिव अपने आसन के रूप में स्वीकार करें. इसके बाद नृसिंह भगवान विष्णु के तेज में मिल गए और शिव ने इनके चर्म को अपना आसन बना लिया. इसलिए ही शिव अपने शरीर पर इसी खाल को धारण किए हुए हैं. इस प्रकार भगवान शिव ने शरभ अवतार धारण कर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि से सृष्टि की रक्षा की थी.