जयपुर. हमारे देश में अक्सर महापुरुषों के संघर्ष के बारे में यह कहा जाता है कि वे बचपन में स्कूल जाने के लिए नदी को तैरकर पार करते थे. कई किलोमीटर पैदल चलते थे. यह उस दौर का संघर्ष था जब हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था. तब देश में विकास नहीं हुआ था, तब ना तो बिजली की व्यवस्था थी और ना ही शिक्षा का स्वराज था. लेकिन आज देश अंग्रेजों का गुलाम नहीं है. आजादी को 70 साल से अधिक बीत चुके हैं. लेकिन आज भी हमारे देश में ऐसे गांव और कस्बे हैं, जहां छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के लिए पहाड़ों का सफर करके कई किलोमीटर पैदल चलते हैं. और अपनी जान जोखिम में डालकर किसी तरह से पढ़ाई पूरी करते हैं.
आपने कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि राज्य की राजधानी जयपुर में कोई ऐसी जगह भी हो सकती है जहां स्कूल जाने के लिए बच्चे पहाड़ों की चट्टानों को पार करते हैं. जयपुर से महज 15 किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसा गांव जहां के बच्चे शिक्षा के लिए 5 किलोमीटर पैदल चलकर पहाड़ी पार करके स्कूल जाते हैं.
राजधानी जयपुर के आमेर में शीश्यावास गांव के बच्चे शिक्षा के लिए 5 किलोमीटर दूर पहाड़ियां पार करके स्कूल जाते हैं. खूंखार राहें भी नन्हे कदमों को नहीं रोक पा रही है. शिक्षा से वंचित ना रह जाए इसी डर से खतरों का सामना करते हुए नाहरगढ़ के घने जंगलों को पार करते हुए बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए आमेर पहुंचते हैं. प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए यह नन्हे कदम 5 किलोमीटर के खौफनाक सफर को तय करते हुए घने जंगलों और पहाड़ों को पार करके डरे सहमे पढ़ने जाते हैं. गांव की बच्चियां भी शिक्षा के लिए इन मुसीबतों का सामना करते हुए स्कूल जाने को मजबूर है. स्कूल जाने के लिए बच्चे सुबह 2 घंटे पहले ही घरों से निकलते हैं ताकि समय पर स्कूल पहुंच सकें.
ऊंची ऊंची पहाड़ियों पर पगडंडी का रास्ता जहां पर जंगली जानवरों और जहरीले जानवरों का भी खतरा है. उस रास्ते से रोजाना सफर तय करते हैं. दो पहाड़ियां चढ़ने के बाद आधे रास्ते में कुछ समय के लिए आराम करते हैं, ताकि आगे का सफर शुरू कर सकें. बच्चे पहाड़ी की चोटी पर बने एक प्राचीन दरवाजे में बैठकर 10 मिनट आराम करने के बाद आगे का सफर तय करते हैं. बच्चों का आधा समय तो आने जाने में ही खराब हो जाता है. इन पहाड़ी रास्तों को पार करने में बच्चे बुरी तरह से थक जाते हैं. इसके बाद पढ़ने की भी हालत नहीं रहती.
राजधानी से महज 15 किलोमीटर दूर बसा शिश्यावास गांव में आज 21वीं सदी में भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. इस गांव में आने जाने के लिए भी किसी तरह के साधनों की व्यवस्था नहीं है. गांव के महिला-पुरुष भी पैदल चलकर जंगलों के रास्तों से मजदूरी करने के लिए दूरदराज शहरी क्षेत्रों में जाते हैं.
इस गांव के बच्चे 5 किलोमीटर का खौफनाक सफर तय करके आमेर के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने जाते हैं. नाहरगढ़ अभ्यारण के घने जंगलों की पगडंडियों पर चलते हुए शिक्षा प्राप्त करने के लिए नौनिहाल 5 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं. इन जंगलों में खूंखार जंगली जानवर, पैंथर, जरख, जंगली कुत्ते, सेही और जहरीले सांपों का विचरण रहता है. जंगल में जानवरों के खतरों के बीच से इन बच्चों का आना बहादुरी की मिसाल कायम करता है. बच्चों के स्कूल जाने से लेकर घर पहुंचने के बाद परिजनों को राहत की सांस मिलती है. जंगल में जानवरों की दहाड़ की आवाज सुनकर बच्चे डर के साए में रोजाना सफर तय करते हैं.
बच्चे शिक्षा से वंचित नहीं रह जाए इसी डर से उच्च शिक्षा के लिए शिश्यावास के ग्रामीण अपने बच्चों को दूरदराज जंगल के रास्तों से स्कूल भेज रहे हैं. जहां कभी कोई हादसा भी हो जाए तो दूर-दूर तक आवाजें सुनने वाला कोई नहीं है. ऐसी चुनौतीपूर्ण राहों का सामना करते हुए बच्चे शिक्षा का सफर तय कर रहे हैं. इन रास्तों पर आने जाने के लिए वन विभाग की ओर से मनाही है. फिर भी शिक्षा के खातिर चुनौती का सामना करते हुए ग्रामीण अपने बच्चों को विद्यालय भेजने को मजबूर है. जंगल में खूंखार वन्यजीवों को देखकर बच्चे डर जाते हैं. और कई बार तो जंगली जानवर रास्ते में मिल जाते हैं तो बच्चे वापस घर लौट जाते हैं. बच्चों को इन रास्तों का सफ़र तय करने में 2 घंटे का समय लगता है. बच्चे सुबह 2 घंटे पहले घर से निकलते हैं.
सरकारें बच्चों की शिक्षा को लेकर हमेशा बड़े बड़े दावे करती हैं. लेकिन इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि इस गांव के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए 5 किलोमीटर दूर पहाड़ी चढ़कर जाना पड़ता है. राजधानी जयपुर जहां सरकारी बसती है उससे महज 15 किलोमीटर दूरी पर शिक्षा के यह हालात देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारे शिक्षा को लेकर कितनी संवेदनशील हैं.