बूंदी. जिले के बरूंधन कस्बे में राजा महाराजाओं के जमाने से चले आ रहे करीब 800 साल से भी पुराने हाड़ा वंश के दड़े महोत्सव में ग्रामीणों का सैलाब उमड़ पड़ा. हर साल मकर संक्रांति के पर्व पर आयोजित होने वाले जोर आजमाइश के साथ सामाजिक सौहार्द के प्रतीक इस अद्भुत खेल में ऊंच-नीच, जात-पात, गरीब, अमीर और छोटे बड़े का भेदभाव ना मानते हुए आसपास के एक दर्जन से भी ज्यादा गांव के विभिन्न समाज के लोगों ने उत्साह से भाग लिया.
खेल को लेकर हाड़ा वंश से चले आ रहे परंपरागत तरीके से कस्बे में एकमात्र हाड़ा परिवार के श्याम सिंह ने सवेरे खेल से पूर्वी सूरा प्रेमी खिलाड़ियों में उत्साह बढ़ाने के लिए गाजे बाजे के साथ सुरा पान करवाया. उसके बाद राजपूत मोहल्ले से दड़े को मुख्य बाजार स्थित लक्ष्मीनाथ के मंदिर के सामने खेल स्थान पर लाया गया. यहां पर हाड़ा परिवार ने दड़ा की विधिवत पूजा अर्चना करके खेल की शुरुआत की.
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इस दौरान युवाओं ने बड़े उत्साह और उमंग के साथ खेल खेला. युवाओं के उत्साह को देखकर बुजुर्ग भी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए नजर आए. खेल के दौरान धक्का-मुक्की और खींचतान चलती रही. कई लोगों की पगड़िया उछल गई तो कई नीचे गिर गए. कुछ युवकों को तो नीचे गिरने से हल्की चोटें भी लगी. फिर भी करीब 3 घंटे तक चले इस खेल महोत्सव में ग्रामीणों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया. खेल के दौरान महिलाएं और युवतियां भी रंग बिरंगे परिधानों में सज धज कर छतों पर खेल का आनंद लेती हुई पुष्प वर्षा से खेलने वालों पर उत्साह बढ़ाती हुई नजर आई.
आपको बता दें कि बरुन्धन दड़े महोत्सव का पुराना इतिहास रहा है. बुजुर्गों के अनुसार करीब सवंत 1252 के आस पास गांव की बसावट हुई थी. गांव के करीब 60 परिवार हाड़ा जाति के रहा करते थे. उनकी ओर से जोर आजमाइश के लिए इस खेल की नींव रखी गई थी. जिसके लिए टाट से सूत रस्सी की मदद से गेंद की तरह 45 से 50 किलो वजनी दड़ा तैयार किया गया था. जिसको मुख्य बाजार स्थल पर चुनौती बना कर रखा जाता था. खेल में दो दल होते थे. जिसमें एक तरफ हाड़ा पंच हुआ करता था. वहीं, दूसरे दल में गांव और आस पास के लोग शामिल हुआ करते थे. इस खेल की यही शर्त हुआ करती थी जो दल दड़े को अपनी तरफ लेकर जाएगा. उसी की विजय मानी जाती थी.
दड़ा महोत्सव में ढोल की थाप पर जमकर खिलाड़ी गर्मजोशी से इस खेल को खेलते हैं. दड़ा महोत्सव में खेल के दौरान ढोल पर लगने वाली थाप खिलाड़ियों में जोश भर देती है. जिसके चलते खेल में रावों की भी अहम भूमिका होती है. यहां के लोगों ने बताया कि खेल शुरू होने से पूर्व ढोल की थाप पर हाड़ा परिवार के खिलाड़ियों को जोश दिलाया जाता है. बीच-बीच में जीत के लिए उत्साह वर्धन भी करते हैं.
इस दौरान उन्होंने कहा कि आज पूरे देश में मकर संक्रांति का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन, बूंदी के बंरुधन गांव में आज भी पारंपरिक बरूंधन दड़े महोत्सव को खेला जाता है और यहां के लोग पौराणिक परंपरा को आज भी जिंदा रखे हुए हैं. उन्होंने बताया कि यहां पर सभी धर्म के लोग दड़ा खेलते हैं. किसी प्रकार की चोट लग जाने के बावजूद भी या घायल हो जाने के बावजूद भी कोई विवाद नहीं होता और दड़ा खेलने के बाद सब शांति पूर्वक इस गांव में रहते हैं. और खुशी से रहते हैं.
तस्वीरों में आप देख सकते हैं यह भीड़ किसी हिंशा के लिए नहीं है. किसी प्रदर्शन के लिए नहीं है. यहां पर जद्दोजहद चल रही है. तो इस दड़े को खेलने की जो इस दड़े को अपनी तरफ लेकर जाएगा वह जीत जाएगा. तो उसी की होड़ इस गांव के दो दलों में लगी रहती है और युवा जमकर दड़े को अपनी-अपनी तरफ करने के लिए जमकर खींचतान करते हैं.
कोई युवा जमीन पर गिर जाता है तो कोई अपने कपड़े को इस भीड़ भाड़ में फड़वा लेता है और जो इस दड़े को अपने पाले में ले जाता है वह उत्साह वर्धन नारों के साथ मूछों पर ताव लगाता है और सबको अपनी मूंछों पर ताव लगाने के बाद जीत का उत्साह मनाता है.
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बूंदी शहर से 15 किलोमीटर दूर है. बंरुधन गांव में प्राचीन समय से मकर सक्रांति के अवसर पर खुला चैलेंज होता है कि दड़े खेलकर कौन विजय हासिल करता है. इस चैलेंज के लिए दोनों गांव के लोग एक दूसरे पर दड़े खेलने के लिए मजबूर हो जाते हैं और यह दड़ा सुबह से लेकर शाम तक चलता है. लोग इस प्रतियोगिता में गर्मजोशी से भाग लेते हैं और दड़ा खेलकर एक दूसरे को हराने की कोशिश करते हैं.