भीलवाड़ा. पेड़ काटने को लेकर हुए विवाद और होली के दिन लगी आग ने पर्यावरण संरक्षण की एक ऐसी परंपरा को जन्म दे दिया जो सालों से अब तक चली आ रही है. पूरे देश में होलिका दहन के दिन कंडे और लकड़ी की होली जलाई जाती है, तो वहीं भीलवाड़ा जिले के बड़ी हरनी गांव में होलिका दहन नहीं कर सोने और चांदी की होलिका की पूजा की जाती है.
गांव के ही रहने वाले प्रहलाद राय तेली का कहना है कि भीलवाड़ा शहर के 3 किलोमीटर दूरी पर स्थित हरनी गांव में एक विवाद हो गया था, जिसके कारण आग लग गई थी. करीब 70 वर्ष पूर्व गांव के बुजुर्गों ने मिलकर एक निर्णय लिया, जिसमें पूरे गांव से चंदा जमा कर सोने और चांदी की होलिका बनाई गई. इसमें सोने का प्रह्लाद होता है और चांदी की लकड़ियां होती है.
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इसके बाद होलिका दहन के दिन गांव के ही चारभुजा नाथ मंदिर से ठाठ-बाट और गाजे-बाजे के साथ होलिका दहन स्थल पर ले जाया जाता है. इसके बाद वहां पूजा कर वापस मंदिर में लाकर रख दिया जाता है और मंदिर में ही भजन कीर्तन किए जाते हैं. उन्होंने कहा कि हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी होली की पूजा करेंगे और इस बार कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि पूरे देश को इस कोरोना जैसी बीमारी से राहत प्रदान करें.
पूर्व पार्षद शिव लाल जाट ने कहा कि यहां भी उत्साह, उमंग और श्रद्धापूर्वक होली पर्व मनाया जाता है. अंतर बस इतना है कि पेड़ बचाने के लिए होली पर लकड़ियां नहीं जलाकर पर्यावरण संरक्षण के लिए चांदी से निर्मित होलिका की पूजा की जाती है. इससे आग लगने और आपसी झगड़ों की संभावना भी कम होती है. शिव लाल जाट का कहना है कि हम आज तक इसे परंपरा के रूप में निभाते हुए आ रहे हैं.
पर्यावरण संरक्षण परंपरा की कहानी
भीलवाड़ा के बड़ी हरनी गांव में वर्षों पहले एक बार होली के लिए किसी के खेत से लकड़ी ले आई, इसके बाद लकड़ी को लेकर ग्रामीणों के बीच विवाद हो गया. विवाद इतना बड़ा हो गया कि गांव में आग लग गई. इसके बाद गांव के बुजुर्गों ने चामुंडा माता मंदिर में एक पंचायत रखी, जिसमें निर्णय हुआ कि गांव के प्रत्येक घर से चंदा एकत्रित कर प्रतीक के रूप में सोना-चांदी की होलिका बनाई जाए.
बुजुर्गों के इस निर्णय से सभी ग्रामीण राजी हो गए और प्रत्येक घर से चंदा एकत्रित कर सोने और चांदी की होलिका बनवाई. इसमें सोने का प्रह्लाद होता है और चांदी की लकड़ियां होती है. सोना और चांदी की होलिका बनवाकर उसे चारभुजा नाथ मंदिर में रखवा दी गई. इसके बाद संकल्प लिया गया कि आज के बाद से इस गांव में कभी भी पेड़ नहीं काटे जाएंगे और ना ही होलिका दहन किया जाएगा.
होलिका दहन के दिन प्रत्येक वर्ष इस गांव में उसकी पूजा की जाती है. इस दिन लोग चारभुजा मंदिर पर एकत्रित होते हैं और सभी ढ़ोल के साथ ठाट-बाट से सोने-चांदी की होलिका को लेकर होलिका दहन के स्थान पर जाते हैं और पूजा करते हैं. इसके बाद फिर से इसे मंदिर में ले जाकर स्थापित कर देते हैं. इस दौरान गांव के सभी लोग एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं.