बांसवाड़ा. आम तौर पर स्कूलों में सुबह की घंटी बजने के साथ ही बच्चों का शोरगुल सुनाई देने लगता है. लेकिन लॉकडाउन के चलते सभी शिक्षण संस्थानों को सरकार द्वारा बंद करने के निर्देश दिए गए. हालांकि ये सब करना जरूरी था, क्योंकि कोरोना संक्रमण जिस गति के साथ फैल रहा है, उस पर लगाम लगाने के लिए कठोर निर्णय लेने भी लेने जरूरी थे. लेकिन जैसा कि कहते हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी प्रकार लॉकडाउन के कुछ फायदे हुए तो कुछ नुकसान भी झेलने पड़ रहे हैं.
लॉकडाउन का ऐसा ही एक विपरित असर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों पर भी पड़ा है. बीते कुछ माह से स्कूलों में सन्नाटा पसरा हुआ है. इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चों निर्धन परिवारों से आते हैं. अब समस्या ये जो बच्चे सुबह के खाने के लिए स्कूलों में मिलने वाले पोषाहार पर ही निर्भर थे, उनके लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई है. साधारण शब्दों में कहें तो वास्तविक जरूरतमंद बच्चों के लिए अब पेट भरना भी मुश्किल हो गया है.
स्कूलों में चल रही पोषाहार योजना न केवल बच्चों बल्कि उनके अभिभावकों को भी अपने नन्हे-मुन्नों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया करती थी. लेकिन इस महामारी ने इन योजनाओं के तहत चल रहे पोषाहार कार्यक्रमों पर ब्रेक लगा दिया है. कक्षा 1 से लेकर 8वीं तक तमाम बच्चे मिड डे मील से दूर हो गए हैं. ये कहानी प्रदेश के लगभग हर सरकारी स्कूल की है. एक ऐसी ही स्कूल का जायजा लेने पहुंची ईटीवी भारत की टीम.
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शहर के निकट जयपुर बाईपास स्थित माकोद गांव की सीनियर सेकेंडरी स्कूल के हालात वैसे ही हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है. ज्यादातर बच्चे पोषाहार से लाभान्वित होने के लिए ही स्कूल पहुंचते हैं. स्कूल भवन काफी बड़ा है, लेकिन सभी कक्षों में ताले लटके नजर आए. आमतौर पर जहां बच्चों का शोरगुल सुनाई दिया करता है, वहां सन्नाटा पसरा हुआ था. इस बारे में जब ग्रामीणों से बात की गई तो उनका कहना था कि जान है तो जहान है, जिंदा रहे तो आगे पढ़ाई कर लेंगे. लेकिन इसका सबसे बुरा असर पोषाहार से लाभान्वित होने वाले बच्चों पर पड़ रहा है.
400 बच्चे होते थे पोषाहार से लाभान्वित
बता दें कि इस स्कूल से पोषाहर से लगभग 400 बच्चे लाभान्वित हो रहे थे, इनमें 60 से अधिक तो ऐसे बच्चे थे, जिनके सुबह में पेट की आग इसी ही बुझती थी, लेकिन इस लॉकडाउन ने उन बच्चों की भूख के सामने भी एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया. क्योंकि, इन बच्चों के घर की हालत बहुत दयनीय है. अब उनके पास कोई चारा भी नहीं है कि वो कहीं से कुछ कमाकर ला सके.
ऐसे में अब ये बच्चे घर के कामकाज करने के अलावा खेती-बाड़ी और पशुपालन में हाथ आजमाते दिखे. जब ईटीवी भारत की टीम इन बच्चों से बात करने की कोशिश की तो इन बच्चों का कहना था कि घर पर खाने के लिए कुछ नहीं है. पहले स्कूल में पोषाहार मिलता था तो भूख मिट जाती थी, लेकिन तो उसका भी आसरा नहीं रहा. अब तो जैसे तैसे करके लोग परिवार का पेट पाल रहे हैं.
बच्चों को स्कूलों से जोड़ना अब टेढ़ी खीर
वहीं, ग्रामीणों ने बताया कि लॉकडाउन लगने से स्कूल बंद होने के साथ ही पोषाहार की सुविधा भी बंद हो चुकी है, जिसका नतीजा यह निकला कि बहुत से बच्चे अब शायद ही स्कूल का रुख कर पाएं, अब इन बच्चों को स्कूलों से जोड़ना टेढ़ी खीर बन गया है. उनका कहना था कि लॉकडाउन के चलते पहले ही काम-धंधा बंद हो चुका है, अब बच्चों का पेट कैसे भरें. आखिर ऐसा कब तक चलेगा.
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इस विषय में जब स्कूल के शिक्षकों से बातचीत की गई तो उन्होंने भी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि अब बड़ी संख्या में बच्चे घर का काम करने लग गए है. ऐसे में उन्हें फिर से स्कूल आना मुश्किल होगा. लेकिन सरकार इसे लेकर कोई पोस्ट लर्निंग भी ला रही है, जिससे उम्मीद है कि कई बच्चे फिर से स्कूल आ पाएंगे.
वहीं, सीनियर सेकेंडरी स्कूल की प्रिंसिपल शीतल पांडेय का कहना था कि यह सही है कि पोषाहार बंद होने से बड़ी संख्या में बच्चों के स्कूल से दूर होने की आशंका थी. लेकिन अब मार्च से लेकर जून महीने तक का पोषाहार बच्चों के घर तक पहुंचाने की प्लानिंग सरकार कर चुकी है. योजना के अंतर्गत 30 जून तक करीब 93 दिन के पोषाहार के बदले गेहूं और चावल बच्चों के अभिभावकों को स्कूल में दिए जाएंगे. इससे निश्चित ही जरूरतमंद परिवार के बच्चे फिर से स्कूल आने को प्रेरित होंगे.