बांसवाड़ा. जिले के डूंगरपुर मार्ग स्थित जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर तलवाड़ा कस्बा है. जहां पर कभी मूर्ति मार्केट नाम से प्रसिद्ध बाजार मशीनों की सरसराहट और छेनी-हथौड़े की आवाज से गूंजती रहती थी. वहीं जब से कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ है यहां खामोशी छाई हुई है.
हालांकि अनलॉक का दौर शुरू होने के साथ ही मूर्तिकार अपनी दुकानों पर लौट आए हैं लेकिन महीनों बाद भी मार्केट कोरोना के प्रकोप से उबर नहीं पाया है. साथ ही कोरोना की वजह से धार्मिक स्थल पूरी तरह से रंगत में नहीं आ पाए हैं और दूसरी ओर धार्मिक कार्यक्रम एक प्रकार से बंद ही हैं. जबकि मूर्तियों का यह कारोबार इसी पर निर्भर है.
ऑर्डर के अनुसार, मूर्तिकारों ने मूर्तियां बना ली हैं लेकिन इसको लेने के लिए कोई ग्राहक नहीं है. साथ ही इस कोरोना काल में नए ऑर्डर भी नहीं आ रहे हैं. मजदूर रखने की बात तो दूर मूर्तिकारों के सामने अपने परिवार का पेट पालना भी मुश्किल हो गया है. ऐसे में सरकार लोगों की मदद के लिए योजनाएं लाने का लाख दावा करे लेकिन न तो यहां के मूर्तिकारों और न ही कारीगरों तक इनका लाभ पहुंच पा रहा है.
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लगातार छह महीने से आर्थिक मंदी से जूझ रहे ये लोग अब अन्य कारोबार की ओर उन्मुख होने को मजबूर हैं. बता दें कि तलवाड़ा कस्बे को सोमपुरा समाज के लोगों ने पत्थर की मूर्तियों के निर्माण से नई पहचान दी है. इस समाज के कई पीढ़ियों की ओर से ग्रेनाइट से मूर्तियों का निर्माण किया जा रहा है. जिसकी बदौलत आज इस कस्बे का प्रदेश ही नहीं प्रदेश के बाहर भी खूब नाम चमक रहा है.
वहीं मध्य प्रदेश, गुजरात महाराष्ट्र और कर्नाटक तक यहां की मूर्तियों की मांग है. वहीं मार्च के तीसरे सप्ताह में कोरोना के चलते लॉकडाउन लगने के साथ ही इनके कारोबार को ऐसा ग्रहण लगा कि 6 महीने बाद भी यह लोग इससे उबर नहीं पा रहे हैं.
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मूर्तिकारों से बातचीत में सामने आया है कि फरवरी-मार्च में छोटी से लेकर बड़ी मूर्तियां के आर्डर आए थे. ऑर्डर के अनुसार मूर्तियों का निर्माण कर लिया गया लेकिन लॉकडाउन और उसके बाद धार्मिक कार्यक्रमों पर पाबंदी के कारण कोई भी मूर्तियां लेने नहीं पहुंचा. स्थिति अब यह है कि पुराने माल से ही दुकानें भरी पड़ी हैं.
साथ ही पत्थर का पैसा और मजदूरी का भुगतान उनके माथे पड़ रहा है. कोरोना की वजह से अब मूर्तिकारों को उनके परिवार का पेट पालना भी मुश्किल हो गया है. मूर्तिकारों के अनुसार कोरोना से पहले जो मार्केट था वह अब 20 फीसदी भी नहीं रहा. वहीं नए आर्डर भी नहीं मिल रहे हैं. इस कारण जहां 4 से 5 कारीगर और मजदूर रखे जा रहे थे वहीं अब एक दो को ही बुलाया जा रहा है.
खुद दुकानदार भी मूर्ति गढ़ाई का काम करने को मजबूर हैं. कोरोना संक्रमण जिस गति से फैल रहा है उस गति से लगता है कि दिसंबर तक भी कारोबार के गति पकड़ने की संभावना कम है. क्योंकि यह पूरा कारोबार धार्मिक कार्यक्रमों और रीति-रिवाजों पर निर्भर है. मूर्तिकारों को इस बात का मलाल है कि सरकार की ओर से किसानों और मजदूरों के लिए कई प्रकार की योजनाएं लाई गईं हैं, लेकिन उन तक एक भी योजना का लाभ नहीं पहुंच पाया है. जबकि वह कोरोना से सबसे ज्यादा नुकसान में आए हैं.