अजमेर. देश और दुनिया में ख्वाजा गरीब नवाज के करोड़ों चाहने वाले हैं. उन सभी की ख्वाहिश रहती है कि वह उर्स के मौके पर अजमेर आकर दरगाह में हाजरी लगाए, लेकिन यहां कहा जाता है कि इरादे रोज बनते हैं और टूट जाते हैं. अजमेर वही आते हैं जिन्हे ख्वाजा बुलाते हैं. ख्वाजा गरीब नवाज का 812वां उर्स के झंडे की रस्म हो चुकी है. आशिकाने गरीब नवाज का अजमेर आने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है.
बता दें कि देश में एकमात्र ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह ही है जहां 6 दिन उर्स मनाया जाता है. खादिम सैयद फकर काजमी ने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज 36 वर्ष की आयु में अजमेर आए थे यहां वह पहले औलिया मस्जिद में ठहरे. इसके बाद वह आनासागर के समीप एक पहाड़ी पर गुफा में रहने लगे यहां रहकर उन्होंने 40 दिन इबादत की. यहां से ख्वाजा गरीब नवाज के चाहने वाले उन्हें लेकर यहां ले आए. इसके बाद यहीं पर रहकर ख्वाजा गरीब नवाज इबादत करते और लोगों से मिलते जुलते और उनकी दुख तकलीफों को दूर करते. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज रजब का चांद देख कर यहां अपने हुजरे में चले गए. उन्होंने जाने से पहले अपने शिष्यों को कहा था वह याद ए इलाही के लिए इबादत में बैठने जा रहे हैं इसलिए कोई भी आने की कोशिश नहीं करें.
रजब के चांद से छठी तक होता है उर्स : काजमी बताते हैं कि रजब की चांद की तारीख से 5 तारीख तक ख्वाजा गरीब नवाज अपने हुजरे से बाहर नही आए. छठे दिन जब हुजरे से कोई आवाज नही आई तब उनके मुरीदों ( शिष्यों ) में चिंता हुई. सबने मिलकर आपस में चर्चा की और निर्णय लिया कि हुजरे को खोला जाए. जब हुजरा खोला गया तब ख्वाजा गरीब नवाज का विसाल ( निधन ) हो चुका था. उनका चेहरा चमक रहा था और उनकी पेशानी पर लिखा था कि अल्लाह का दोस्त अल्लाह की मोहब्बत में अल्लाह से जा मिला. हुजरे में ख्वाजा गरीब नवाज ने दुनिया से कब परदा किया यह किसी को पता नहीं. यही वजह है कि ख्वाजा गरीब नवाज का उर्स 6 दिन मनाया जाता है.
संत इब्राहिम कंदोजी से मिलने के बाद बदल गया जीवन : काजमी बताते हैं कि ख्वाजा गरीब नवाज ने 80 से 82 साल का एक लंबा वक्त अजमेर में बिताया था. अपने पूरे जीवन में ख्वाजा गरीब नवाज में इंसानियत और मोहब्बत का का संदेश लोगों को दिया. उन्होंने बताया कि ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का जन्म इराक के संदल शहर में हुआ था. उनके माता-पिता इस दुनिया से तब रुखसत हुए जब वह 14 वर्ष की आयु के थे. अपने गुजारे के लिए वह बागवानी किया करते थे. इस दौरान ही उन्हें एक संत इब्राहिम कंदोजी मिले. इसके बाद ही उनका मन अध्यात्म की ओर बढ़ने लगा. उन्होंने अपनी पवन चक्की और बाग बेच दिया और उससे जो पैसे मिले उनमें से कुछ गरीब और यतीमों में बांट दिए. बाकी बच पैसे लेकर वो हज के लिए निकल गए. वहां उन्होंने मक्का के बाद मदीना में हाजरी दी. इस दौरान उन्हें उस्मानी हारुनी नाम के पीर मिले. ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती और उनके फुफेरे भाई फखरुद्दीन गुर्देजी को हिंदुस्तान जाने के लिए कहा. साथ ही एक-दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ने के लिए भी उन्हें कहा. खादिम फकर काजमी बताते है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती और उनके फुफेरे भाई उस्मानी हारूनी दोनों हिंदुस्तान के लिए रवाना हुए. बगदाद से ईरान और इराक होते हुए समरकंद, बुखारा के रास्ते काबुल और कंधार तक पहुंच गए. यहां से वह ताशकंद पहुंचे. यहां पहुंचने के बाद उन्हें पता चला कि हिंदुस्तान इस ओर नहीं है. ताशकंद से वापस वह काबुल लौट आए और यहां से लाहौर होते हुए दिल्ली पहुंचे फिर दिल्ली से अजमेर आए थे.
सादगी से बिताया जीवन : काजमी बताते है कि ख्वाजा गरीब नवाज ने अपना पूरा जीवन सादगी से गुजारा. अपने पीर से मिले लिबास को ही उन्होंने ताउम्र पहना साथ ही जौ का दलिया ही उन्होंने खाया. दरगाह में सदियों हर दिन जौ का दलिया बनाता आया है. उन्होंने बताया कि सूफी संत मजहब से ऊपर उठ जाते हैं उनका मजहब केवल इंसानियत रह जाता है. ख्वाजा गरीब नवाज यहीं पर झोपड़ी में रहते थे जहां उनकी मजार है. यहीं पर लोग उनसे मिलने आया करते थे. लोगों की दुख तकलीफ को दूर करने के साथ ही ख्वाजा गरीब नवाज ने उसे दौर में व्याप्त रूढ़िवादी परंपराओं से भी लोगों को बाहर निकाला. यही वजह है कि ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में हर धर्म, जाति के लोग हाजरी लगाने के लिए आते है.