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कभी रईसों की शाही सवारी हुआ करता था तांगा, आज अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से जूझ रहा! - ETV Bharat Rajasthan news

धार्मिक नगरी अजमेर में आने वाले श्रद्धालुओं को आज भी तांगे की सवारी का आनंद मिल रहा है, लेकिन इन्हें भी कुछ क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया है. इस जद्दोजहद के बीच कैसे अपने अस्तित्व को जीवंत रख रहे हैं अजमेर के यह तांगे वाले, पढ़िए ये स्पेशल रिपोर्ट...

Tanga Puller struggling to save Existence in Ajmer
Tanga Puller struggling to save Existence in Ajmer
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Published : Apr 30, 2023, 10:20 AM IST

Updated : Apr 30, 2023, 2:12 PM IST

कभी रईसों की शाही सवारी हुआ करता था तांगा

अजमेर. कभी शाही सवारी के रूप में पहचाना जाने वाला तांगा, आज शायद ही सड़कों पर दिखता है. पहले तांगा शान-ओ-शौकत की सवारी थी. राजा महाराजाओं और रईसों के पास ही तांगे हुआ करते थे. वक्त बदला और यह तांगे आम आदमी तक भी पहुंचे. कई वर्षों तक तांगा परिवहन का साधन बना रहा. अजमेर में 30 वर्ष पहले तक 1400 से ज्यादा तांगे शहर की सड़कों पर दौड़ा करते थे. तब शहर में प्रदूषण का स्तर न के बराबर था. तीन दशक बाद से ही फर्राटेदार डीजल-पेट्रोल की गाड़ियों ने सड़कों पर जगह बना ली है. इसका कारण है समय की बचत.

आबादी बढ़ने के साथ ही गाड़ियों की संख्या भी बढ़ रही हैं. अजमेर की सड़कें वही हैं, बस बदला है तो वहां दौड़ने वाले वाहन. हर सड़कों पर दिखने वाले तांगे अब केवल एक ही क्षेत्र तक सिमट कर रह गए हैं. अब बमुश्किल 40 तांगे बचे हैं, जो भी सुभाष उद्यान से देहली गेट तक ही चल रहे हैं. अजमेर तांगा एसोसिएशन के पदाधिकारी रामस्वरूप लोहार बताते हैं कि हमारा रोजगार दरगाह आने वाले जायरीन की वजह से चल रहा है. स्थानीय लोग तांगों में नहीं बैठते हैं. तांगों को मुख्य सड़कों पर चलाने में भी काफी परेशानी आती है. तांगों से जाम का बहाना बनाकर उन्हें एक ही क्षेत्र में सीमित कर दिया है.

पढ़ें. Special : राजे-रजवाड़ों की शान थी साइकिल, 150 साल पहले आई थी जयपुर

स्थानीय लोगों के चलते नहीं मिल रहा रोजगार : उन्होंने बताया कि प्रदूषण दुनिया में सबसे बड़ा मुद्दा है. प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से ही इलेक्ट्रिक वाहन बाजार में आए हैं, जबकि वर्षों से तांगे इको फ्रेंडली रहे हैं. तांगों के अन्य सड़कों पर जाने कि कोई मनाही नहीं है. उनका आरोप है कि स्थानीय लोगों से हमें बिल्कुल भी सहयोग नहीं मिलता है. टेंपो, सिटी बस में सफर करने वाले स्थानीय लोग तांगों में नहीं बैठते हैं. इस कारण रोजगार नहीं मिल पाता है. शासन और प्रशासन भी अब तांगों को बढ़ावा देने की बजाए मुंह फेर लेते हैं.

Story of Tanga
तांगे पर बैठकर फोटो खिंचवाते लोग

रामस्वरूप लोहार बताते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी कई परिवार तांगे से ही अपना गुजारा करते आए हैं. ऐसे में शासन और प्रशासन को पर्यावरण की दृष्टि से तांगा चालकों को बढ़ावा देना चाहिए. उन्हें अन्य सड़कों पर चलने की स्वीकृति मिलनी चाहिए. साथ ही तांगा चालकों के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाएं भी प्रशासन को देनी चाहिए. मसलन तांगों को खड़ा करने और पानी की भी व्यवस्था करनी चाहिए. वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि तांगों के स्टैंड से हमें भगा दिया जाता है. कहा जाता है कि हम ट्राफिक जाम करते हैं.

पढ़ें. राजस्थान के मौजूदा स्वरूप में जोधपुर की रही महती भूमिका, सरदार पटेल की चलती तो बदल जाता नक्शा

चुनाव के प्रचार-प्रसार के लिए आता था काम : तांगा चालक जहांगीर बताते हैं कि उनके पिता-दादा भी तांगा चलाया करते थे. वह भी तांगा चला रहे हैं. उन्होंने बताया कि 40 साल पहले तक शहर की सड़कों पर तांगे ही तांगे दिखा करते थे. शहर में होने वाले चुनाव या नगर निगम की ओर से कोई आम सूचना लोगों तक पहुंचाने या प्रचार-प्रसार के लिए तांगों का उपयोग किया जाता था. तांगों पर लाउडस्पीकर रख प्रत्येक तांगे वाले को अलग-अलग क्षेत्र में भेजा जाता था. इससे भी तांगे वालों को आय हुआ करती थी

उन्होंने कहा कि अब रोजगार के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है. रोजगार केवल यहां आने वाले जायरीन पर ही टिका रहता है. कभी-कभी तो गंज में ही तांगों को रोक दिया जाता है. इस कारण तांगे वालों को नुकसान उठाना पड़ता है. उन्होंने बताया कि रोज के हजार-5 सौ रुपए मिल जाते हैं. इसमें 350-450 रुपए घोड़े के हरा-चारा और दाने में भी लगता है. 400-500 रुपए घर ले जाते हैं.

Tanga in Ajmer
अजमेर की सड़कों पर तांगे

पढ़ें. Rajasthan Integration Day: इस तरह राजपूताना बना आज का राजस्थान, उद्घाटन के 7 वर्ष बाद पूर्ण हुई थी पटकथा

श्रद्धालुओं के कारण होता है आय : अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह है. ब्रह्मा की नगरी पुष्कर हिंदुओं का बड़ा तीर्थ स्थल है. यही वजह है कि हजारों लोग अजमेर इन दोनों बड़े धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए आते हैं. इसके अलावा आने वाले श्रद्धालु यहां के पर्यटन स्थलों पर भी घूमने जाते हैं. आनासागर से सटी बारादरी श्रद्धालुओं के लिए पसंदीदा जगह है. सबसे ज्यादा श्रद्धालु यहीं पर घूमने आते हैं. यहीं से तांगे दरगाह क्षेत्र के लिए चलते हैं. यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए तांगे की सवारी आने आप में एक नया अनुभव है.

उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से आई फरहीन जहां बताती हैं कि आज से पहले यदा कदा कभी तांगा देखा होगा, लेकिन तांगे में पहली बार बैठने का मौका अजमेर में मिला है. माता-पिता के जमाने में तांगे रहे होंगे, लेकिन अब तांगे कहा दिखते हैं. तांगे की सवारी कर बहुत अच्छा लगा. जैसलमेर से पहली बार अजमेर दरगाह में जियारत के लिए आए फतेहगढ़ तहसील क्षेत्र के रावड़ी चक गांव के निवासी अल्ला रखा बताते हैं कि सुनते थे कि पुराने जमाने में रईस लोग तांगे में बैठा करते थे, यह शाही सवारी थी. तांगों से प्रदूषण बिल्कुल नहीं होता. यह आराम दायक सवारी है. पहली बार तांगे में बैठने का आनंद लिया है. नई पीढ़ी के लिए तांगा एक आकर्षण है. वहीं, तेज रफ्तार के युग में तांगों के अस्तित्व को जीवंत रखने की मशक्कत हर दिन जारी है.

कभी रईसों की शाही सवारी हुआ करता था तांगा

अजमेर. कभी शाही सवारी के रूप में पहचाना जाने वाला तांगा, आज शायद ही सड़कों पर दिखता है. पहले तांगा शान-ओ-शौकत की सवारी थी. राजा महाराजाओं और रईसों के पास ही तांगे हुआ करते थे. वक्त बदला और यह तांगे आम आदमी तक भी पहुंचे. कई वर्षों तक तांगा परिवहन का साधन बना रहा. अजमेर में 30 वर्ष पहले तक 1400 से ज्यादा तांगे शहर की सड़कों पर दौड़ा करते थे. तब शहर में प्रदूषण का स्तर न के बराबर था. तीन दशक बाद से ही फर्राटेदार डीजल-पेट्रोल की गाड़ियों ने सड़कों पर जगह बना ली है. इसका कारण है समय की बचत.

आबादी बढ़ने के साथ ही गाड़ियों की संख्या भी बढ़ रही हैं. अजमेर की सड़कें वही हैं, बस बदला है तो वहां दौड़ने वाले वाहन. हर सड़कों पर दिखने वाले तांगे अब केवल एक ही क्षेत्र तक सिमट कर रह गए हैं. अब बमुश्किल 40 तांगे बचे हैं, जो भी सुभाष उद्यान से देहली गेट तक ही चल रहे हैं. अजमेर तांगा एसोसिएशन के पदाधिकारी रामस्वरूप लोहार बताते हैं कि हमारा रोजगार दरगाह आने वाले जायरीन की वजह से चल रहा है. स्थानीय लोग तांगों में नहीं बैठते हैं. तांगों को मुख्य सड़कों पर चलाने में भी काफी परेशानी आती है. तांगों से जाम का बहाना बनाकर उन्हें एक ही क्षेत्र में सीमित कर दिया है.

पढ़ें. Special : राजे-रजवाड़ों की शान थी साइकिल, 150 साल पहले आई थी जयपुर

स्थानीय लोगों के चलते नहीं मिल रहा रोजगार : उन्होंने बताया कि प्रदूषण दुनिया में सबसे बड़ा मुद्दा है. प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से ही इलेक्ट्रिक वाहन बाजार में आए हैं, जबकि वर्षों से तांगे इको फ्रेंडली रहे हैं. तांगों के अन्य सड़कों पर जाने कि कोई मनाही नहीं है. उनका आरोप है कि स्थानीय लोगों से हमें बिल्कुल भी सहयोग नहीं मिलता है. टेंपो, सिटी बस में सफर करने वाले स्थानीय लोग तांगों में नहीं बैठते हैं. इस कारण रोजगार नहीं मिल पाता है. शासन और प्रशासन भी अब तांगों को बढ़ावा देने की बजाए मुंह फेर लेते हैं.

Story of Tanga
तांगे पर बैठकर फोटो खिंचवाते लोग

रामस्वरूप लोहार बताते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी कई परिवार तांगे से ही अपना गुजारा करते आए हैं. ऐसे में शासन और प्रशासन को पर्यावरण की दृष्टि से तांगा चालकों को बढ़ावा देना चाहिए. उन्हें अन्य सड़कों पर चलने की स्वीकृति मिलनी चाहिए. साथ ही तांगा चालकों के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाएं भी प्रशासन को देनी चाहिए. मसलन तांगों को खड़ा करने और पानी की भी व्यवस्था करनी चाहिए. वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि तांगों के स्टैंड से हमें भगा दिया जाता है. कहा जाता है कि हम ट्राफिक जाम करते हैं.

पढ़ें. राजस्थान के मौजूदा स्वरूप में जोधपुर की रही महती भूमिका, सरदार पटेल की चलती तो बदल जाता नक्शा

चुनाव के प्रचार-प्रसार के लिए आता था काम : तांगा चालक जहांगीर बताते हैं कि उनके पिता-दादा भी तांगा चलाया करते थे. वह भी तांगा चला रहे हैं. उन्होंने बताया कि 40 साल पहले तक शहर की सड़कों पर तांगे ही तांगे दिखा करते थे. शहर में होने वाले चुनाव या नगर निगम की ओर से कोई आम सूचना लोगों तक पहुंचाने या प्रचार-प्रसार के लिए तांगों का उपयोग किया जाता था. तांगों पर लाउडस्पीकर रख प्रत्येक तांगे वाले को अलग-अलग क्षेत्र में भेजा जाता था. इससे भी तांगे वालों को आय हुआ करती थी

उन्होंने कहा कि अब रोजगार के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है. रोजगार केवल यहां आने वाले जायरीन पर ही टिका रहता है. कभी-कभी तो गंज में ही तांगों को रोक दिया जाता है. इस कारण तांगे वालों को नुकसान उठाना पड़ता है. उन्होंने बताया कि रोज के हजार-5 सौ रुपए मिल जाते हैं. इसमें 350-450 रुपए घोड़े के हरा-चारा और दाने में भी लगता है. 400-500 रुपए घर ले जाते हैं.

Tanga in Ajmer
अजमेर की सड़कों पर तांगे

पढ़ें. Rajasthan Integration Day: इस तरह राजपूताना बना आज का राजस्थान, उद्घाटन के 7 वर्ष बाद पूर्ण हुई थी पटकथा

श्रद्धालुओं के कारण होता है आय : अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह है. ब्रह्मा की नगरी पुष्कर हिंदुओं का बड़ा तीर्थ स्थल है. यही वजह है कि हजारों लोग अजमेर इन दोनों बड़े धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए आते हैं. इसके अलावा आने वाले श्रद्धालु यहां के पर्यटन स्थलों पर भी घूमने जाते हैं. आनासागर से सटी बारादरी श्रद्धालुओं के लिए पसंदीदा जगह है. सबसे ज्यादा श्रद्धालु यहीं पर घूमने आते हैं. यहीं से तांगे दरगाह क्षेत्र के लिए चलते हैं. यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए तांगे की सवारी आने आप में एक नया अनुभव है.

उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से आई फरहीन जहां बताती हैं कि आज से पहले यदा कदा कभी तांगा देखा होगा, लेकिन तांगे में पहली बार बैठने का मौका अजमेर में मिला है. माता-पिता के जमाने में तांगे रहे होंगे, लेकिन अब तांगे कहा दिखते हैं. तांगे की सवारी कर बहुत अच्छा लगा. जैसलमेर से पहली बार अजमेर दरगाह में जियारत के लिए आए फतेहगढ़ तहसील क्षेत्र के रावड़ी चक गांव के निवासी अल्ला रखा बताते हैं कि सुनते थे कि पुराने जमाने में रईस लोग तांगे में बैठा करते थे, यह शाही सवारी थी. तांगों से प्रदूषण बिल्कुल नहीं होता. यह आराम दायक सवारी है. पहली बार तांगे में बैठने का आनंद लिया है. नई पीढ़ी के लिए तांगा एक आकर्षण है. वहीं, तेज रफ्तार के युग में तांगों के अस्तित्व को जीवंत रखने की मशक्कत हर दिन जारी है.

Last Updated : Apr 30, 2023, 2:12 PM IST
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