अजमेर. कहते हैं जो कुछ भी संसार में घटित होता है, वो ईश्वर की मर्जी से होता है. जिस काम में ईश्वर की इच्छा नहीं होती वो काम कभी पूर्ण ही नहीं हो सकता. अजमेर के निकट सोमलपुर गांव की पहाड़ी पर 1500 वर्षों से भी अधिक पुराना शिवालय है. इस शिवालय को शंभूनाथ के नाम से जाना जाता है. पहाड़ी, हरियाली और विहंगम प्राकृतिक सुदरता के बीच भगवान शंभूनाथ यहां स्वंय अपनी इच्छा से विराजे हैं. हालांकि, इस मंदिर का लिखित इतिहास नहीं मिलता है, बावजूद इसको लेकर हजारों वर्षों से दंतकथाएं प्रचलित हैं.
दूरगम पहाड़ी पर विराजमान हैं बाबा शंभूनाथ - सोमलपुर की खटोला पहाड़ी के शीर्ष पर शंभूनाथ का धुना है, जहां पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं है. वहीं, पहाड़ी के बीच में शिवलिंग के रूप में शंभूनाथ विराजमान है. बताया जाता है कि भगवान शंभूनाथ का शिवलिंग यहां पंद्रह सौ वर्ष पहले स्थापित किया गया था. पहाड़ी के बीच से शंभूनाथ के मंदिर तक जाने का दुर्गम रास्ता है. पहाड़, झरने और पक्षियों का कलरव यहां आने वालों को मोहित करता है.
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पहाड़ी के शीर्ष पर है मुख्य धुना - हालांकि, इस पवित्र और अति प्राचीन शिवालय के बारे में ज्यादातर लोगों को पता नहीं है, लेकिन यह तय है कि जो लोग पहली बार इस मंदिर में आते हैं, वो दोबारा आने की मंशा जरूर रखते हैं. मंदिर के समीप ही एक धुना है, जो कई वर्षों से प्रज्ज्वलित है. मंदिर आने वाले श्रद्धालु धुनें के भी दर्शन करते हैं. बताया जाता है कि शंभूनाथ का मुख्य धुना पहाड़ी के शीर्ष पर है, जहां पहुंच पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. मंदिर तक पहुंचने में ही लोगों की सांस फूलने लगती है, लेकिन यहां के प्राकृतिक नजारे, झरने का जल और शुद्ध हवा कुछ ही देर में श्रद्धालुओं को तरोताजा कर देती है.
श्रद्धालु राजेंद्र शर्मा बताते हैं कि शहर के निकट होने के बावजूद भी वो मंदिर में पहले कभी नहीं आ पाए थे. यह महादेव की ही कृपा है कि इस उम्र में उन्हें प्रभु ने बुलाया. शर्मा बताते हैं कि लोग महादेव के दर्शन करने के लिए और प्रकृति का अनुपम नजारा देखने के लिए केदारनाथ, अमरनाथ, सोमनाथ आदि बड़े धार्मिक स्थलों पर जाते हैं, लेकिन लोगों को अजमेर में शंभूनाथ के दर्शन के साथ-साथ प्रकृति को महसूस करने का अनुभव भी जरूर लेना चाहिए.
प्रचलित हैं कई दंतकथाएं - मंदिर के पुजारी विजय सिंह बताते हैं कि गांव दौराई में गुर्जर समाज में बगड़ावत गोत्र के 30 से ज्यादा भाई रहते थे. वह सभी इस शिवलिंग को नाग पहाड़ी से लेकर आए थे. वह शिवलिंग को दौराई गांव में स्थापित कर मंदिर बनाना चाहते थे, लेकिन मार्ग में सोमलपुर के पास शिवलिंग ने शंभूनाथ का रूप धारण कर लिया. ऐसे में उन्होंने शिवलिंग को दौराई गांव में स्थापित नहीं करने को कहा. इसके बाद भी बगड़ावत भाई नहीं माने. उन्होंने शिवलिंग ले जाने की काफी कोशिश की, मगर वो विफल रहे. उसके बाद शंभूनाथ के कहने पर इस स्थान पर ही बगड़ावत भाइयों ने मिलकर शिवलिंग की स्थापना की थी. इसके बाद शंभूनाथ किसी को भी दोबारा नजर नहीं आए.
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ग्वाले को शंभूनाथ ने दिए दर्शन - पुजारी विजय सिंह बताते हैं कि दौराई गांव का एक ग्वाला भोजा गुर्जर को शंभूनाथ के दर्शन हुए थे. भोजा गुर्जर पहाड़ी पर पशु चराने के लिए जाया करता था. रोज उसके साथ एक गाय भी जंगल में आया करती थी. ऐसे में भोजा उसे भी चराता था और उसका ध्यान रखता था. शाम को गाय चरने के बाद गायब हो जाती थी. गाय को रोज चराने वाले भोजा ने सोचा कि क्यों ना गाय का शाम को पीछा किया जाए और इसके मालिक से मेहनताना लिया जाए. उस दिन शाम को उसने गाय का पीछा किया. गाय एक पहाड़ में स्थित एक गुफा में घुस गई. इस दौरान गाय की पूछ पकड़कर भोजा भी गुफा में घुस गया. गुफा के भीतर भोजा गुर्जर को भगवान शंभूनाथ के दर्शन हुए, लेकिन वह समझ नहीं पाया कि वह साक्षात शिव शंभू हैं.
भोजा ने महात्मा के रूप में दिख रहे शंभूनाथ से गाय चराने का मेहनताना मांगा. ऐसे में शंभूनाथ ने उससे कहा कि यहां देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है, तब एक मुट्ठी ज्वार उन्होंने भोजा को दिया. सीधा साधा भोजा वह ज्वार लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा. इस बीच रास्ते में उसने उस ज्वार को एक पेड़ के नीचे डाल दिया, लेकिन कुछ ज्वार भोजा के कपड़ों से चिपके रह गए. रात को जब भोजा अपने घर पहुंचा तो परिजनों की आंख उसे देखकर फटी की फटी रह गई. भोजा के कपड़े पर लगे ज्वार महंगे रत्नों और स्वर्ण की तरह चमक रहे थे.
परिजनों ने जब उससे पूछा तब भोजा ने उन्हें पूरा वाकया सुनाया. तब भोजा गुर्जर और उसके परिजनों को पहली बार अहसास हुआ कि शंभूनाथ के पवित्र स्थान पर कोई और नहीं स्वयं महादेव हैं. भोजा ने उस वक्त से ही शंभूनाथ का चेला बनने का संकल्प लिया और वो शंभूनाथ के शिवलिंग की सेवा करने लगा. बताया जाता है कि भोजा गुर्जर को शंभूनाथ से 12 वर्ष की माया और 12 वर्ष की काया प्राप्त हुई थी. भोजा के बाद भी कई संतों ने यहां रहकर शंभूनाथ के शिवलिंग की सेवा की.
पुजारी विजय सिंह बताते हैं कि वर्षों से यहां धुना प्रचलित है. यानी कोई न कोई व्यक्ति यहां हर दिन जरूर रहा है. उन्होंने बताया कि यह पूरा वन क्षेत्र है. यहां तेंदुआ, सियार आदि जानवर विचरण करते हैं. शिवालय तक बहुत कम ही लोग पहुंच पाते हैं. सावन के महीने में कुछ श्रद्धालु भी यहां भगवान के दर्शन के लिए आते हैं.
मुस्लिम फौजी ने सालों तक यहां रहकर की थी सेवा - मंदिर में सेवा का काम करते श्रवण सिंह बताते हैं कि 1986 से पहले यहां पर अलीबाबा रहा करते थे. वह शंभूनाथ की सेवा किया करते थे. उन्होंने ही धुनें को प्रज्ज्वलित रखा. उन्होंने बताया कि मंदिर से आगे पहाड़ी पर ही अलीबाबा की मजार है. अलीबाबा मुस्लिम समुदाय में मेहरात जाति के थे. मूलतः अलीबाबा ब्यावर के नजदीक बायला गांव के रहने वाले थे.
वह जवानी में जोधपुर फौज में थे, जहां एक अफसर से अनबन होने के बाद वह फौज की नौकरी छोड़कर यहां चले आए थे और यही हमेशा के लिए रह गए. मंदिर और उसके आसपास का निर्माण अलीबाबा ने ही करवाया था. मंदिर आने वाले श्रद्धालु शंभूनाथ के शिवालय के दर्शन के बाद धुनी के दर्शन कर अलीबाबा की मजार पर मत्था टेकते हैं.