उदयपुर. मेवाड़ की प्रमुख लोक संस्कृति में गवरी नृत्य का प्रमुख (Gawri Dance program in udaipur) स्थान है. खरीफ की नई फसल आने के साथ उदयपुर संभाग में इसकी धूम देखते ही बनती है. हालांकि यह नृत्य पूरी तरह से आदिवासी संस्कृति पर आधारित है और आदिवासी लोगों की ओर से ही इसकी प्रस्तुति दी जाती है. इस आयोजन को देखने के लिए गांव से लेकर शहर तक के लोग शामिल होते हैं.
इस अद्भुत नृत्य (Gawri Folk Dance) में किले की लड़ाई, हटिया, बंजारा और मीणा के बीच किले की लड़ाई आदि प्रमुख प्रसंग होते हैं जिनकी जीवंत प्रस्तुति समाज के हर वर्ग को अपनी और आकर्षित करती है. उदयपुर के साथ-साथ चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, राजसमंद और प्रतापगढ़ आदि में बड़े पैमाने पर गवरी नृत्य का आयोजन होता है जिसे स्थानीय भाषा में राई के नाम से भी जाना जाता है.
खरीफ की फसल आने के साथ ही मेवाड़ में इन दिनों गवरी नृत्य की धूम है. आम से लेकर खास लोगों के साथ ही सोशल मीडिया पर भी इस नृत्य को इस सीजन में खूब पसंद किया जा रहा है. आदिवासी अंचल में इन दिनों मनोरंजन के लिए गवरी नृत्य को आकर्षण का प्रमुख केंद्र माना जा रहा है.
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क्या है गवरी और उसका महत्व
शिव पार्वती की आराधना के रूप में गवरी नृत्य किया जाता है. मेवाड़ की संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला यह भील समाज का धर्मिक लोकनृत्य रक्षाबंधन के दूसरे दिन से ही प्रारंभ हो जाता है. क्षेत्र के प्रमुख आदिवासी नृत्य को देखने के लिये बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं. मेवाड़ में इन दिनों आदिवासी समाज के प्रमुख लोकनृत्य गवरी की खासी धूम देखी जा रही है. गवरी लोकनृत्य के तहत गवरी कलाकार 40 दिनों तक बिना नहाए और नंगे पैर रहकर इस परम्परा को सहेजने में जुटे हैं. कलाकरों की ओर से गवरी नृत्य के दौरान हटिया, शंकरिया, वरजु कांजरी, बंजारा मीणा, खेतुडी सहीत कई मनोरंजक कथानक प्रस्तुत किये जाते हैं.
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गंवरी में सभी 150 कलाकार पुरुष
यह प्रसिद्व लोक नाट्य और नृत्य है, जो भील जाति के लोगों की ओर से 40 दिनों तक किया जाता है. माता गोरज्या और शिव की अराधना के रूप में इसका आयोजन किया जाता है. गवरी में अधिकतम 150 कलाकार पुरुष होते हैं, जिनमें कई महिलाओं का किरदार निभाते हैं. कलाकारों की ओर से हिंदी, अंग्रेजी, मारवाड़ी और मेवाड़ी भाषा को कुछ इस अंदाज से बयां कर रहे हैं कि सभी का मन मोह ले रहे हैं. कलाकारों की ओर से देवी अंबा, हटिया दाणा, चोर-सिपाही और काना-गुर्जरी समेत एक दर्जन प्रसंगों पर कलाकारों की ओर से प्रस्तुति दी जाती है.
इन नियमों की करना ही होती है पालना...
उदयपुर ग्रामीण विधायक फूल सिंह मीणा ने बताया कि गवरी में हिस्सा लेने वाले कलाकारों के लिए बहुत कड़े नियम होते हैं. जो गवरी करते हैं वे 40 दिन तक नहीं नहाते हैं. हरी सब्जियां और मांस, मदिरा का त्याग कर दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खाते हैं. नंगे पांव रहने के साथ ही सवा महीने तक अपने घर न जाकर मंदिर में रहते हैं. जमीन पर सोते हैं इसमें दो दर्जन से ज्यादा बाल कलाकार भी होते हैं. मानव जाति में भील सबसे पुरानी जाति है. गवरी आदिकाल से चली आ रही लोक परंपरा है. यह नृत्य शिव-पार्वती को केन्द्र में रखकर की जाती है. बताया जाता है कि जिस गांव में यह व्रत लिया जाता है, वहां के हर आदिवासी घर से एक व्यक्ति यह व्रत करता है. इससे पूरा गांव इस परंपरा से जुड़ जाता है.
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बंजारा बने कलाकर सोहन लाल ने बताया कि गवरी में सभी कलाकार पुरुष होते हैं और वे ही महिलाओं के किरदार भी निभाते हैं. भील जनजाति के एक धार्मिक गवरी दल में सिर्फ भील पुरुष ही भाग लेते हैं. स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुष ही करते हैं.
गवरी से दुख, दर्द और बीमारी दूर...
भील समाज के लोगों का कहना है कि क्षेत्र में दुख, दर्द और बीमारी न फैले इसी मंशा के साथ हम भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती का अभिनय कर लोगों को नशा मुक्ति का संदेश देते हैं. 40 दिन के बाद गोरजा माता की शाही सवारी के साथ ही पूजन सामग्री व प्रसाद आदि को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है. समाज की मान्यता है कि गवरी के आयोजन करने से गोरजा माता लड़ाई-झगड़े और दुखों से छुटकारा दिलाती हैं.
उदयपुर में एक साथ 14 गवरी का मंचन...
आदिवासी अंचल के बीच बसे उदयपुर में आयोजित इस लोकनाट्य और नृत्य में 14 गवरी की टीमों के कलाकारों ने कला का प्रदर्शन करते हुए नाटक का मंचन किया. 1800 से ज्यादा कलाकारों ने सुबह से शाम तक दर्जन भर नाटकों का मंचन कर लोगों का मनोरंजन किया. गवरी को देखने के लिए हजारों लोग पहुंचे. उदयपुर ग्रामीण विधायक फूलसिंह मीणा ने भी कार्यक्रम में हिस्सा लिया. इससे पहले भी मीणा 11 गवरी टीमों के कलाकारों का एक साथ आयोजन करवा चुके हैं.
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यहां मां पार्वती को पुत्री और शिव को जंवाई मानते हैं...
इतिहासकार चंद्रशेखर शर्मा ने बताया कि गवरी शब्द गौरी से अपभ्रंश हुआ है. गौरी का अर्थ पार्वती है, जिसे आदिवासी समाज गोरच्या देवी के नाम से पूजते हैं. साथ ही यह इसे अपनी बेटी मानते है और शिव को अपना प्रमुख आदिदेव के साथ जंवाई भी मानते हैं. गवरी को एक अन्य नाम राई से भी जाना जाता है. राई से मंडल बनाना और मंडल से राई होना ही इस लोकनाट्य और लोकनृत्य का मूल संदेश है जो हमारी सृष्टि की रचना से जुड़ा हुआ है. गांव की बेटियों की जहां शादी होती उसी गांव में गवरी खेली जाती है. यह बेटी बचाओ का संदेश देने वाला अति प्राचीन लोकनाट्य है.
पौधे लगाने की परंपरा
गवरी समाप्ति पर उस गांव में एक पौधा लगाने की परंपरा भी इसकी विशेषता है जो प्रकृति प्रेम अथवा पर्यावरण से जुड़ाव का बोध कराती है. इस तरह हम देखते हैं कि कम पढ़े-लिखे लोगों में भी मानवीय परम्परा इस प्रथा के माध्यम से चली आ रही है. इस नृत्य का मूल कथानक पौराणिक शिव, पार्वती और भस्मासुर की कहानी से जुड़ा है, लेकिन हास परिहास को लेकर इसमें कई समसामयिक घटनाओं का नाट्य अथवा गायन होता है. यह दृश्य, श्रव्य और नृत्य इन तीनों विधाओं का मिलाजुला लोकोत्सव है.