जयपुर. वीरों की गाथाओं और राजे-रजवाड़ों की शान के लिए विश्वभर में अपनी विशेष पहचान रखने वाला राजस्थान 30 मार्च को 72 साल का होने जा रहा है. राजपूत राजाओं से रक्षित इस भूमि को 30 मार्च 1949 को 'राज-स्थान' नाम मिला था, लेकिन राजस्थान की स्थापना में जयपुर की क्या भूमिका है और कैसे इस जिले को देश के सबसे बड़े राज्य की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ. इसे भुलाया नहीं नहीं जा सकता है.
अरावली पर्वतमालाओं से घिरा जयपुर शहर आज अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहरों के साथ-साथ अपनी प्राचीन संस्कृति को लेकर जाना जाता है, लेकिन ये पहचान और पदवी उसे ऐसे ही नहीं मिली है. जोधपुर, उदयपुर और बीकानेर के सामन्त अपने यहां प्रदेश की राजधानी बनाना चाहते थे. ऐसे में जयपुर रियासत के समक्ष वह आधी हैसियत भी नहीं रखते थे और बिना किसी इंफ्रास्ट्रक्चर के अपने शहर में राजधानी बनाने पर जोर दे रहे थे. तब जयपुर के दीवान के लिए निर्णय और उस समय की गई रजामंदी काम आई और जोधपुर, उदयपुर और बीकानेर को को पीछे छोड़ते हुए जयपुर को राजस्थान की राजधानी बन दिया गया.
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समिति बनाकर भेजे गए थे सुझाव
सवाई मानसिंह ने वीटी कृष्णामाचारी से बातचीत के दौरान शर्त रखी कि, उन्हें स्थायी रुप से राजप्रमुख रखा जाएगा और जयपुर राजधानी रहेगी. ऐसे में वीपी मेनन ने रायशुमारी की तो हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा और गोकुल भाई भट्ट सभी ने सवाई मानसिंह को राजप्रमुख और जयपुर को राजधानी बनाने की स्वीकृति दी. तो वही दूसरी ओर सरदार पटेल ने तत्कालीन पेप्सू के मुख्य सचिव बीआर पटेल, आईसीएस लेफ्टिनेंट कर्नल एचसीपुरी और एचपी सिन्हा ने एक समिति बनाकर राजधानी कहां बनाई जाए इसके लिए सुझाव भी भेजे. उस समय सभी शासकों ने यह माना था कि जयपुर बड़ी रियासत है और दिल्ली के करीब है. जिसके बाद वर्ष 1949 में राजस्थान की स्थापना और जोड़-तोड़ कर सबसे बड़ी रियासत के महाराजा सवाई मानसिंह राजप्रमुख हो गए.
आमेर के राजाओं के कार्यों को इतिहास हुआ धूमिल
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित देवर्षि इतिहासकार कलानाथ शास्त्री ने बताया कि इतिहास का एक रंग जिसको भुला दिया गया है, वह जयपुर की महिमा है. हालांकि जयपुर नगर अपने आप में महत्वपूर्ण है लेकिन इससे पहले ये 'आमेर' था. आमेर के राजाओं ने देश में जो इतिहास बनाया उसके कीर्तिमान भी मानो भुला दिए गए हैं. उसका प्रमुख कारण था कि इन राजाओं ने मुगलों का बराबर साथ दिया, जिसकी वजह से उनकी महिमा उतनी नहीं रही जितनी अन्य राज्यों की रही. कहा ये जाता है कि अनेक राज्य बेहद महत्वपूर्ण रहे और सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजस्थान राज्य में जयपुर ही रहा, जिसे राजधानी बना दिया गया. वहीं जयपुर का भी इतिहास बहुत महत्वपूर्ण रहा है, लेकिन फिर भी जयपुर के राजाओं ने जो काम किया उसे काफी हद तक भुला दिया गया है.
कलानाथ शास्त्री के अनुसार आमेर और जयपुर के राजाओं ने प्रत्येक तीर्थ में कुछ ना कुछ अपना काम भी किया. जिसके तहत मंदिर, घाट और नगरों को बसाया. यही नहीं दिल्ली का राष्ट्रपति भवन भी एक समय जयपुर हाउस था, जो कि जयपुर नगर की ही देन है. उसका प्रमाण वहां पर देखा जा सकता है, जहां एक जयपुर कॉलम भी है. इसी प्रकार अनेक कार्य जयपुर में किए गए जिससे इतिहास में नगर की महिमा बढ़ी. इस नगर में सबसे बड़े हिंदी के कवि बिहारी को जयपुर ने सम्मान दिया. यही नहीं, प्रसिद्ध कवि पद्माकर को भी जयपुर ने सिर आंखों पर बिठाया.
अस्तित्व खो रही जयपुर की ढूंढाड़ी बोली
हालांकि वर्तमान समय मे जयपुर की ढूंढाड़ी बोली आज अपना अस्तित्व खोती जा रही है. इसके इतिहास और साहित्य से लेकर जयपुर की बोली तक को भुला दिया गया है. जयपुर का जो मुगलकाल से लेकर आज तक इतिहास है उसे भी हम भूल चुके हैं. इसलिए राजधानी जयपुर की महिमा का भी राजस्थान के स्थापना दिवस के दिन स्मरण करना चाहिए. राजस्थान का कीर्तिमान है, की वो सबसे बड़ा राज्य है. ठीक इसी प्रकार यहां अनेक प्राचीन अवशेष और यहां के किला अपने आप में कीर्तिमान है, किंतु यह भी कीर्तिमान होना चाहिए कि प्रत्येक तीर्थ में जयपुर के राजाओं ने जो अनेक नगरिया और गांव बसाए इन सब को याद करना चाहिए. इसलिए राजस्थान के स्थापना दिवस के अवसर पर जो जयपुर नगर का कीर्तिमान है, जो अवधान है और इसकी जो देन है उसका भी स्मरण जरूरी है.
जिस तरह से राजस्थान प्रदेश की पहचान यहां की लोक संस्कृति, धरोहरों और ऐतिहासिक स्मारकों की वजह से देश-दुनिया में है, ठीक वैसे ही जयपुर का इतिहास राजस्थान की आन-बान और शान है. बस जरूरत है उस कीर्तिमान को राजस्थान दिवस पर स्मरण करने की, ताकि आगे आने वाली पीढ़ी इस गौरवशाली इतिहास और उसकी महिमा को युगों-युगों तक याद रखे.