जयपुर. ए छोटू ओ छोटू...आखिर ये छोटू कौन है. जिसे इस तरह पुकारा जा रहा है. ओह तो ये छोटू वो है, जो अपने पेट की आग बुझाने के लिए आज रेस्टोरेंट, ढाबा और चाय की थड़ी पर काम करते दिख जाता है.
ये छोटू वो है, जिसके कंधों पर कम उम्र में ही जिम्मेदारियों का भार आ जाता हैं. ये छोटू वो है, जो दूसरे बच्चों की तरह स्कूल में बाल दिवस नहीं, बल्कि दो वक्त की रोटी के लिए अपने नाम को भी भूल जाता है. इनका नाम जो भी हो जहां ये काम कर रहा होता है, वहां इसे छोटू कह कर ही पुकारा जाता है.
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आज देशभर के स्कूलों में बाल दिवस के कार्यक्रम हुए. कहीं पर ढोल तो कहीं नगाड़ों से चाचा नेहरू को याद किया गया. लेकिन किसी को इन बच्चों की याद नहीं आई. जो पेट के लिए बाल दिवस भी नहीं मना पाते. हां, आज के दिन कार्यक्रमों के मंच से बाल श्रम खत्म करने, आखिरी बच्चे तक शिक्षा पहुंचने जैसे कई दावे किए जाते हैं. लेकिन इन दावों की हकीकत बयां करता है ये नाम, छोटू.
हम किसी गांव या कस्बे की बात नहीं कर रहे राजधानी में ही इन छोटू को देखा जा सकता है. जो किसी के लिए चाय तो किसी के लिए खाना सर्व कर रहे होते हैं. लेकिन जिम्मेदार इन छोटू को पूरी तरह बिसराए हुए हैं. इनके लिए योजना जरूर आती है, लेकिन वो सिर्फ कागजों तक सिमट कर रह जाती हैं. और इनके बंट में आता है सिर्फ एक नाम, छोटू.
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चाचा नेहरू के नाम से जाने जाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों को देश के भविष्य की तरह देखते थे. लेकिन देश का भविष्य तो तब संवरेगा जब किसी भी रेस्टोरेंट, ढाबा, दुकान या चाय की थड़ी पर ये छोटू नजर नहीं आएगा. ये छोटू मिले तो सिर्फ किसी विद्यालय में जहां उसे अपना और देश का नाम रोशन करने का पूरा मौका मिले.