जयपुर. राजस्थान में एक बार फिर से दलित उत्पीड़न की आवाज ने मुखर होकर देश के सामने चिंता जाहिर करने की कई वजह छोड़ दी है. इसके पीछे की प्रमुख वजह लगातार बढ़ते अपराधों से ज्यादा इन अपराधों पर अंकुश के लिए तैयार किए गए तंत्र की नाकामी और लचर रवैये का है. जाहिर है कि नागौर का वाकया अब सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो के साथ जगजाहिर हो चुका है. पीड़ित पक्ष को चोरी का आरोपी बनाकर पुलिस मुकदमा दर्ज कर लेती है, लेकिन अमानवीय प्रताड़ना के शिकार शख्स की फरियाद को अनदेखा कर दिया जाता है.
लगातार बढ़ रहे दलितों उत्पीड़न के मामले....
दलित के साथ अगर ये हो रहा है, तो फिर चिंता बढ़ना लाजमी है. लोकतंत्र की आखिरी सीढ़ी पर बैठे दलित वर्ग को शीर्ष पर ले जाने के राजनीतिक वादे और दावे चुनावों में भले ही वोट बैंक की कसौटी पर परखे जाते रहे हैं, लेकिन वास्तविकता नागौर जैसी घटनाओं के रूप में मूर्त रूप में दिखाई पड़ती हैं. इस घटनाओं से कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं. जयपुर जिले के आंकड़े बताते हैं कि SC-ST सेल में साल 2018 में जहां 174 मामले सामने आये थे, वहीं 2019 में इन मामलों में भारी इजाफा देखा गया और ये आंकड़ा 312 तक पहुंच गया.
पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान....
खैर मसला नागौर के पीड़ित परिवार का है, जो अब भी डरा सहमा हुआ है, उसके चारों तरफ उन दबंगों का जमावड़ा है, जिनसे इन पीड़ितों को रोजाना किसी ना किसी रास्ते पर मिलना होगा. ऐसे में सरकारों की जिम्मेदारी है कि ऐसे लोगों के लिए निर्भय माहौल तैयार किया जाए. परंतु धरातल पर ऐसा बिलकुल भी होता दिखाई नहीं देता. भले ही घटना में लिप्त 7 आरोपियों की गिरफ्तारी हो चुकी है, पर क्या तत्काल उस पुलिस महकमे पर कार्यवाही नहीं होनी चाहिए, जिसने समय पर पीड़ित की फरियाद नहीं सुनी. बहरहाल इस मामले ने अशोक गहलोत सरकार को आईना जरूर दिखा दिया है. ये सोचने का विषय है कि आखिर पुलिस की भूमिका क्या है? जिनकी नाक के तले उनके मातहत कमजोर पक्ष को दबाने के काम में जुटे हुए हैं.
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अभी तक नहीं भरे डांगावास के जख्म....
इस मामले को सियासत से परे रखकर देखना चाहिए. वरना भूत और वर्तमान मिलकर परत दर परत सारी हकीकत का फसाना बयां करते हैं. वैसे ये कोई पहला मामला नहीं है, इससे पहले भी प्रदेश में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं. इसी नागौर के मेड़ता कस्बे से सटे डांगावास में करीब 6 साल पहले दलित परिवार को उसी के खेत में दबंगों द्वारा ट्रैक्टर से कुचल कर मार दिया गया था. तब प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी और सिसायत के आरोप लगाने वाले पक्ष में कांग्रेस थी. आप ये सुनकर हैरान होंगे कि इस मामले में सभी आरोपियों को गिरफ्तार करने में CBI जैसी एजेन्सी भी नाकामयाब रही है.
राजनीतिक लाभ लेने की होड़....
राजस्थान के ही बाड़मेर के एक हॉस्टल में दलित डेल्टा मेघवाल नाम की लड़की के साथ हुए घटनाक्रम ने राहुल गांधी को इतना झकझोर दिया था कि वह बाड़मेर जाकर परिजनों से मिले थे. तब वे जयपुर में राजभवन आकर पैदल मार्च के जरिये CBI जांच की मांग को लेकर तत्कालीन सरकार को घेरते हुए दिखाई दिए थे. अब राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, तो राहुल गांधी दिल्ली में बैठकर ट्वीट कर रहे हैं. बड़ा सवाल ये है कि क्या पूर्ववर्ती या वर्तमान सरकार की ये जिम्मेदारी नहीं बनती है कि पीड़ितों को त्वरित न्याय मिले. ये दो मामले तो बानगी भर है. हर अत्याचार का वीडियो नहीं बनता, हर मामला सुर्खियां हासिल नहीं करता. जाहिर है ऐसे में कैसे सुशासन की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है.
कौन खड़ा है पीड़ितों के साथ....
सरकारों का आना-जाना, दलगत राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है. बड़ा सवाल तो यही है कि उत्पीड़न झेल चुके पीड़ितों के साथ कौन खड़ा है? क्या वक्त के साथ करनूं के पीड़ितों को भी तारीखों का हिस्सा मान लिया जाएगा? नागौर के ताजा मामले के बाद राजस्थान में कानून व्यवस्था और सबकी फरियाद सुनने वाले वाकये की हकीकत सबके सामने है. बीते दिनों उद्योग मंत्री परसादी लाल मीणा भी जयपुर के ब्रह्मपुरी थाना अधिकारी के खिलाफ फरियाद लेकर शांति धारीवाल की जनसुनवाई में पहुंचते हैं, मतलब सुनवाई का ये आलम है कि एक मंत्री खुद पीड़ित को लेकर कांग्रेस के दूसरे मंत्री से मिलने पार्टी के प्रदेश मुख्यालय पर आता है. क्या सही सुशासन का दावा है?
दलित उत्पीड़न के आरोपों में घिरी राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार पार्टी आलाकमान से लेकर स्थानीय संगठन के मुखिया तक के निशाने पर भी है. जिस वक्त अशोक गहलोत बजट भाषण पढ़ रहे थे, उसी वक्त पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी उनको ट्ववीटर पर संकेत देकर करनूं कांड के पीड़ितों को जल्द इंसाफ दिलाने के निर्देश जारी कर रहे थे. इसके बाद पीसीसी चीफ सचिन पायलट भी वाकये पर जो ट्ववीट करते हैं, वो जाहिर करता है कि सत्ता के रुख से संगठन कुछ खास प्रभावित नहीं है. मतलब साफ है एक द्वंद्व अंदर की रस्साकशी पर भी है. ऐसे में पार्टी के प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे का ट्वीट इस मामले में स्थानीय सरकार को तत्कालीन राहत भले ही देता है.
ट्वीटर का ये तिलिस्म आने वाले वक्त में बदलती फिजाओं का इशारा भी करता है. सत्ता और सियासत की दोनों तस्वीरों में 'ऑल इज वेल' कहीं भी दिखाई नहीं देता है. चेहरे बदले हैं, पर हकीकत नहीं. ऐसे में आखिर कब तक दलित सियासत पर रोटियां सेंकी जाएंगी और कब तक वक्त के साथ जख्मों को भरने की जगह भुलाया जाना सिखाया जाएगा? ये सवाल ऐसे हैं कि इनका जवाब मिले ना मिले, पर लोकतांत्रिक देश में मजबूत स्तंभ के रूप में ईटीवी भारत अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए हर बार, हर सरकार का सच्चाई से सरोकार कराने के लिये सक्रिय भूमिका निभाता रहेगा.