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स्पेशलः कानून पर भारी पड़ रहे चहेते...समान विचारधारा के शिक्षकों को कुलपति बना रहीं सरकारें

विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन पर उठने वाले विवाद नए नहीं हैं. पहले भी विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन पर सवाल उठते रहे हैं. कुलपतियों के चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सख्त नियम कायदे तय किए हैं, जिसे राजस्थान में भी 2017 में लागू कर दिया गया, लेकिन इसके बावजूद सत्ताधारी पार्टियों की ओर से अपने करीबियों को कुलपति बनाने का रिवाज सा बन गया है. पढ़िए, उच्च शिक्षा पर इसके असर और इसके स्थायी समाधान के रास्ते तलाशती यह खास रिपोर्ट...

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Published : Mar 29, 2021, 7:26 PM IST

राजस्थान विश्वविद्यालय, Rajasthan News
कानून कमजोर, चहेते मजबूत

जयपुर. सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलपति के चयन को लेकर उठने वाले विवाद नए नहीं हैं. पहले भी कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्तियों पर सवाल खड़े होते रहे हैं, लेकिन बीते कुछ साल में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्य की सत्ताधारी पार्टी के करीबियों को ही मौका देने के मामले लगातार सुर्खियां बन रहे हैं. कई बार तो अपने चहेते व्यक्ति को कुलपति बनाने के लिए नियम कायदों को ताक में रखने के गंभीर आरोप भी सरकारों पर लगते हैं और यह कोई नई बात भी नहीं है. कुलपतियों के चयन और नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शी और निर्विवाद हो, इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने कई कड़े नियम कायदे भी तय किए हुए हैं, लेकिन देखने में आता है कि जब बात अपने चहेते को कुलपति पद पर बैठाने की आती है तो सरकार इन नियम कायदों को ताक पर रखने से भी गुरेज नहीं करती है, नतीजा यह होता है कि कुलपति की नियुक्ति से शुरू हुआ विवाद कई बार तो उनके पूरे कार्यकाल तक उनका पीछा नहीं छोड़ता है.

कानून कमजोर, चहेते मजबूत

कुलपति के चयन के नियम कायदों के बारे में राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. जेपी सिंघल का कहना है कि सरकारी विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति के जो नियम हैं, उन पर बहुत विचार किया गया, इसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने काफी लंबे विचार विमर्श के बाद कुलपति के चयन की एक पूरी प्रक्रिया निर्धारित कर सबके सामने प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया. यह प्रक्रिया तय करने के बाद इसे सभी राज्यों के पास भेजा गया. राजस्थान सरकार ने भी इस प्रक्रिया को 2017 में स्वीकार किया और राजस्थान के सभी विश्वविद्यालयों के जो अलग-अलग अधिनियम बने हुए हैं, उन तमाम विश्वविद्यालयों के अधिनियमों में उसे शामिल करते हुए उसे विश्वविद्यालयों के अधिनियमों का हिस्सा बना दिया गया. इस प्रक्रिया को विधानसभा के माध्यम से पारित करवाया गया था, इसलिए अब यह एक तरह से संविधान बन गया है.

यह भी पढ़ेंः Special : फैलता शहर और बढ़ते हादसे, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे अग्निशमन विभाग

इसमें व्यवस्था की गई कि अच्छे क्रेडेंशियल के साथ-साथ विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए कम से कम 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव अनिवार्य किया गया है. उसमें किसी तरह की शिथिलता देने की या छूट देने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जो 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव नहीं रखते हैं, उन्हें विश्वविद्यालय का कुलपति नहीं बनाया जा सकता है. यह प्रावधान साफ तौर पर किया गया है. यह व्यवस्था इसलिए की गई, क्योंकि पूरे देश में कुलपतियों का जो चयन है, कुलपतियों की जो नियुक्ति है, उसकी जो प्रक्रिया है, उसमें समानता लाने का प्रयास किया गया, इसलिए ताकि यह व्यवस्था समान रूप से देश के सभी विश्वविद्यालयों के लिए लागू की जा सके और निश्चित अनुभव, ज्ञान रखने वाले और निर्धारित योग्यता रखने वाले व्यक्ति ही कुलपति बन सके.

यूजीसी की ओर से तय किए गए सभी मानक क्या राजस्थान में विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति में अपनाए जा रहे हैं? या इनमें शिथिलता दी जा रही है. इस सवाल के जवाब में पूर्व कुलपति डॉ. जेपी सिंघल कहते हैं कि यह बिल्कुल सही है कि राज्य सरकार अपने चहेतों को या अपनी विचारधारा से संबंध रखने वालों को कुलपति बनाने के लिए यूजीसी की ओर से तय नियमों में कहीं न कहीं शिथिलता दे देती है. वह कहते हैं कि इसका परिणाम बहुत भयानक होता है. उच्च शिक्षा में काम करने वाले जितने भी उच्च शिक्षण संस्थान हैं, उनके अगर शीर्ष अधिकारी को उसकी योग्यताओं को ध्यान में रखने के बजाए केवल अपनी विचारधारा या नजदीकी या अपनी मित्रता या अपनेपन के आधार पर अगर किसी को नियुक्ति दी जाती है तो यह शिक्षा का सबसे बड़ा नुकसान करने वाला कदम कहा जा सकता है.

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उनका कहना है कि अगर हम राजस्थान का उदाहरण लें, तो प्रदेश के करीब 27 विश्वविद्यालयों में चार-पांच विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जिनके कुलपति जो न्यूनतम योग्यता है, उसे पूरा नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें सरकार ने कुलपति बनाया है. यह निश्चित तौर पर न तो नियमों के अनुकूल है और न ही किसी भी तरीके से किसी प्रक्रिया के अनुकूल कहा जा सकता है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि राज्य सरकार कुलपतियों की नियुक्ति करने में नियमों की जानबूझकर अनदेखी करती रही है, जो कि शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत अशोभनीय काम है. यह बहुत दुख का विषय है, क्योंकि शिक्षा के मंदिर को इन तमाम बातों से अलग रखा जाना चाहिए, जो नहीं किया जा रहा है.

विश्वविद्यालय में हर विचारधारा के विद्यार्थी, शिक्षक और कर्मचारी होते हैं. ऐसे में किसी खास विचारधारा के व्यक्ति के कुलपति बनने पर उनके हक किस तरह से प्रभावित होते हैं? इस सवाल पर पूर्व कुलपति डॉ. जेपी यादव कहते हैं कि यह बिल्कुल ठीक है कि विचारधारा के आधार पर कई बार कुलपतियों पर आरोप लगे हैं, लेकिन उनका मानना है कि विचारधारा तो हर व्यक्ति की होती है. बिना विचारधारा या बिना मान्यताओं के कोई व्यक्ति नहीं होता है. यह मानव स्वभाव की सामान्य प्रवृत्ति है कि हर व्यक्ति की कोई न कोई सोच होती है. उसकी अपनी कोई दृष्टि होती है, यह होना स्वाभाविक भी है, लेकिन कुलपति जैसे अहम पद पर पहुंचने के बाद उसके काम करने का जो तरीका है, वो विचारधारा नहीं होनी चाहिए, किसी भी कुलपति के लिए संस्था पहले होनी चाहिए, सर्वोच्च स्थान उसे संस्था को देना चाहिए. संस्था या विश्वविद्यालय के हित को पहली प्राथमिकता रखकर काम करना चाहिए, इस लिए वह यह मानकर चलते हैं कि विचारधारा कोई भी हो, लेकिन हर कुलपति को अपनी विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि संस्था के हित को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए. फैसले लेने चाहिए और अपनी नीतियों का निर्धारण करना चाहिए, ताकी विश्वविद्यालय या संस्था का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित किया जा सके.

यह भी पढ़ेंः Special : पार्षदों की संख्या बढ़ाने को लेकर बवाल, निकायों में दखलअंदाजी के आरोप पर कांग्रेस का पलटवार

उनका यह भी कहना है कि दुख इस बात का है कि कई कुलपति संस्था के बजाए विचारधारा को प्राथमिकता पर रखते हैं. बहुत से विश्वविद्यालयों के कुलपति ऐसे रहे हैं और वर्तमान में भी हैं, जो संस्था या विश्वविद्यालयों को प्राथमिकता पर रखते हैं, लेकिन जो कमजोर कुलपति होते हैं, वो केवल इसी आधार पर कुलपति बने हैं कि वह किसी से नजदीकी रखते हैं. किसी विचारधारा का पोषण करने वाले हैं तो निश्चित तौर से वह एक विचारधारा को ही पल्लवित और पोषित करने का काम करते हैं और दूसरी विचारधारा को पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं. ऐसे छात्र या ऐसे शिक्षक जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते हैं, उनकी प्रगति को भी किसी न किसी रूप में बाधित करने का काम ऐसे कुलपतियों की ओर से किया जाता रहा है, जो विचारधारा को पहले और संस्था को बाद में रखते हैं. यह बहुत निंदनीय है और शिक्षण संस्थाओं के लिए यह रवैया किसी भी तरीके से उपयुक्त नहीं ठहराया जा सकता है.

जयपुर. सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलपति के चयन को लेकर उठने वाले विवाद नए नहीं हैं. पहले भी कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्तियों पर सवाल खड़े होते रहे हैं, लेकिन बीते कुछ साल में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्य की सत्ताधारी पार्टी के करीबियों को ही मौका देने के मामले लगातार सुर्खियां बन रहे हैं. कई बार तो अपने चहेते व्यक्ति को कुलपति बनाने के लिए नियम कायदों को ताक में रखने के गंभीर आरोप भी सरकारों पर लगते हैं और यह कोई नई बात भी नहीं है. कुलपतियों के चयन और नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शी और निर्विवाद हो, इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने कई कड़े नियम कायदे भी तय किए हुए हैं, लेकिन देखने में आता है कि जब बात अपने चहेते को कुलपति पद पर बैठाने की आती है तो सरकार इन नियम कायदों को ताक पर रखने से भी गुरेज नहीं करती है, नतीजा यह होता है कि कुलपति की नियुक्ति से शुरू हुआ विवाद कई बार तो उनके पूरे कार्यकाल तक उनका पीछा नहीं छोड़ता है.

कानून कमजोर, चहेते मजबूत

कुलपति के चयन के नियम कायदों के बारे में राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. जेपी सिंघल का कहना है कि सरकारी विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति के जो नियम हैं, उन पर बहुत विचार किया गया, इसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने काफी लंबे विचार विमर्श के बाद कुलपति के चयन की एक पूरी प्रक्रिया निर्धारित कर सबके सामने प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया. यह प्रक्रिया तय करने के बाद इसे सभी राज्यों के पास भेजा गया. राजस्थान सरकार ने भी इस प्रक्रिया को 2017 में स्वीकार किया और राजस्थान के सभी विश्वविद्यालयों के जो अलग-अलग अधिनियम बने हुए हैं, उन तमाम विश्वविद्यालयों के अधिनियमों में उसे शामिल करते हुए उसे विश्वविद्यालयों के अधिनियमों का हिस्सा बना दिया गया. इस प्रक्रिया को विधानसभा के माध्यम से पारित करवाया गया था, इसलिए अब यह एक तरह से संविधान बन गया है.

यह भी पढ़ेंः Special : फैलता शहर और बढ़ते हादसे, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे अग्निशमन विभाग

इसमें व्यवस्था की गई कि अच्छे क्रेडेंशियल के साथ-साथ विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए कम से कम 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव अनिवार्य किया गया है. उसमें किसी तरह की शिथिलता देने की या छूट देने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जो 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव नहीं रखते हैं, उन्हें विश्वविद्यालय का कुलपति नहीं बनाया जा सकता है. यह प्रावधान साफ तौर पर किया गया है. यह व्यवस्था इसलिए की गई, क्योंकि पूरे देश में कुलपतियों का जो चयन है, कुलपतियों की जो नियुक्ति है, उसकी जो प्रक्रिया है, उसमें समानता लाने का प्रयास किया गया, इसलिए ताकि यह व्यवस्था समान रूप से देश के सभी विश्वविद्यालयों के लिए लागू की जा सके और निश्चित अनुभव, ज्ञान रखने वाले और निर्धारित योग्यता रखने वाले व्यक्ति ही कुलपति बन सके.

यूजीसी की ओर से तय किए गए सभी मानक क्या राजस्थान में विश्वविद्यालयों के कुलपति की नियुक्ति में अपनाए जा रहे हैं? या इनमें शिथिलता दी जा रही है. इस सवाल के जवाब में पूर्व कुलपति डॉ. जेपी सिंघल कहते हैं कि यह बिल्कुल सही है कि राज्य सरकार अपने चहेतों को या अपनी विचारधारा से संबंध रखने वालों को कुलपति बनाने के लिए यूजीसी की ओर से तय नियमों में कहीं न कहीं शिथिलता दे देती है. वह कहते हैं कि इसका परिणाम बहुत भयानक होता है. उच्च शिक्षा में काम करने वाले जितने भी उच्च शिक्षण संस्थान हैं, उनके अगर शीर्ष अधिकारी को उसकी योग्यताओं को ध्यान में रखने के बजाए केवल अपनी विचारधारा या नजदीकी या अपनी मित्रता या अपनेपन के आधार पर अगर किसी को नियुक्ति दी जाती है तो यह शिक्षा का सबसे बड़ा नुकसान करने वाला कदम कहा जा सकता है.

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उनका कहना है कि अगर हम राजस्थान का उदाहरण लें, तो प्रदेश के करीब 27 विश्वविद्यालयों में चार-पांच विश्वविद्यालय ऐसे हैं, जिनके कुलपति जो न्यूनतम योग्यता है, उसे पूरा नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें सरकार ने कुलपति बनाया है. यह निश्चित तौर पर न तो नियमों के अनुकूल है और न ही किसी भी तरीके से किसी प्रक्रिया के अनुकूल कहा जा सकता है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि राज्य सरकार कुलपतियों की नियुक्ति करने में नियमों की जानबूझकर अनदेखी करती रही है, जो कि शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत अशोभनीय काम है. यह बहुत दुख का विषय है, क्योंकि शिक्षा के मंदिर को इन तमाम बातों से अलग रखा जाना चाहिए, जो नहीं किया जा रहा है.

विश्वविद्यालय में हर विचारधारा के विद्यार्थी, शिक्षक और कर्मचारी होते हैं. ऐसे में किसी खास विचारधारा के व्यक्ति के कुलपति बनने पर उनके हक किस तरह से प्रभावित होते हैं? इस सवाल पर पूर्व कुलपति डॉ. जेपी यादव कहते हैं कि यह बिल्कुल ठीक है कि विचारधारा के आधार पर कई बार कुलपतियों पर आरोप लगे हैं, लेकिन उनका मानना है कि विचारधारा तो हर व्यक्ति की होती है. बिना विचारधारा या बिना मान्यताओं के कोई व्यक्ति नहीं होता है. यह मानव स्वभाव की सामान्य प्रवृत्ति है कि हर व्यक्ति की कोई न कोई सोच होती है. उसकी अपनी कोई दृष्टि होती है, यह होना स्वाभाविक भी है, लेकिन कुलपति जैसे अहम पद पर पहुंचने के बाद उसके काम करने का जो तरीका है, वो विचारधारा नहीं होनी चाहिए, किसी भी कुलपति के लिए संस्था पहले होनी चाहिए, सर्वोच्च स्थान उसे संस्था को देना चाहिए. संस्था या विश्वविद्यालय के हित को पहली प्राथमिकता रखकर काम करना चाहिए, इस लिए वह यह मानकर चलते हैं कि विचारधारा कोई भी हो, लेकिन हर कुलपति को अपनी विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि संस्था के हित को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए. फैसले लेने चाहिए और अपनी नीतियों का निर्धारण करना चाहिए, ताकी विश्वविद्यालय या संस्था का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित किया जा सके.

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उनका यह भी कहना है कि दुख इस बात का है कि कई कुलपति संस्था के बजाए विचारधारा को प्राथमिकता पर रखते हैं. बहुत से विश्वविद्यालयों के कुलपति ऐसे रहे हैं और वर्तमान में भी हैं, जो संस्था या विश्वविद्यालयों को प्राथमिकता पर रखते हैं, लेकिन जो कमजोर कुलपति होते हैं, वो केवल इसी आधार पर कुलपति बने हैं कि वह किसी से नजदीकी रखते हैं. किसी विचारधारा का पोषण करने वाले हैं तो निश्चित तौर से वह एक विचारधारा को ही पल्लवित और पोषित करने का काम करते हैं और दूसरी विचारधारा को पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं. ऐसे छात्र या ऐसे शिक्षक जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते हैं, उनकी प्रगति को भी किसी न किसी रूप में बाधित करने का काम ऐसे कुलपतियों की ओर से किया जाता रहा है, जो विचारधारा को पहले और संस्था को बाद में रखते हैं. यह बहुत निंदनीय है और शिक्षण संस्थाओं के लिए यह रवैया किसी भी तरीके से उपयुक्त नहीं ठहराया जा सकता है.

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