जयपुर. आखर वेबिनार में साहित्यकार सरोज देवल ने लोकगीत के इतिहास पर बात करते हुए कहा कि, लोकगीत का प्रचलन वैदिक काल से पूर्व का है. उदाहरण के लिए मनुष्य का जब जन्म होता है रुदान उसका संगीत है. उसी प्रकार भाषा नहीं आई थी उससे पहले से गीत है, जो गीत लोक में प्रचलित हैं. वहीं ऋग्वेद में औपचारिक रूप से प्रार्दभाव होते हैं वे अपना विशिष्ट ग्रहण कर लेता है. लोकगीतों में अनुभवों का निचोड़ है वह पहलू अभी तक अछूता है. लोकगीत का प्रचार-प्रसार मात्र आनंद तक ही सीमित न रहकर हर पहलू से प्रभावित भी हैं और उन्हें प्रभावित करते हैं.
उन्होंने आगे बताया कि, राजस्थान का आम जनजीवन और लोकगीत आपस में एक दूसरे के पर्याय हैं. रेगिस्तान में लंबी यात्रा पर निकले लोकगीतों के सारे सफर आराम से तय कर लेते हैं. जड़स से पानी निकालते समय बैलों के पैर रिद्म से चलते और थमते हैं. परिश्रम को सरस से लोकगीत ही बनाते थे. हमारे लोकगीत संस्कार की तरह जन्म से लेकर मृत्यु तक हमसे जुड़े रहे हैं. यहां तक बच्चों को पालने में झूला-झूलाने के लिए भी गीत बने हैं. वहीं विवाह संस्कार में लोकगीतों के माध्यम से मनोवैज्ञानिक बातें भी समझाती हैं. यही वजह है कि लोकगीत रिश्तों को भी सहजते हैं.
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सरोज देवल बीठू ने विविध उदाहरण देते हुए बताया कि, किस प्रकार लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कारों के वाहक रहे हैं. घर में बड़े बुजुर्गों, रिश्तेदारों से बच्चे भी सीखते हैं. कार्यक्रम के दौरान सरोज देवी ने "चिठुडी- मीठुड़ी री गोरी गाय, नवल बना ए डोरडा नी छुटे और म्हारी आंगणे पीपल रि बेल" जैसे गीतों का गायन भी किया. इससे पूर्व आखर सीरीज में प्रतिष्ठित राजस्थानी साहित्यकार डॉ आईदान सिंह भाटी, डॉ अरविंद सिंह आशिया, रामस्वरूप किसान, अंबिकादत्त, कमला कमलेश और भंवर सिंह डामोर सहित अन्य साहित्यकारों के साथ चर्चा की गई.