जयपुर. कवि और कला आलोचक डॉ. राजेश व्यास ने हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी भाषा और कला को जोड़ते हुए कहा कि कलाओं को व्यक्त करने की अगर कोई भाषा है तो वो हिंदी भाषा है क्योंकि हिंदी एक सशक्त भाषा है. हमको इस बात पर शक नहीं होना चाहिए कि भारतीय मूल कलाएं जो है वो अन्य देशों में भी प्रचलित है. मूल भारतीय कलाओं में शास्त्रीय और लोक दोनो ही कला शामिल है.
डॉ. व्यास ने बताया कि अंग्रेजो का भारत में कलाओं से जुड़े शिक्षण संस्थानों को स्थापित किए जाने के पीछे भी कहीं ना कहीं ये भावना थी की लोगों को भारतीय कला के बारे में न बताते हुए यूरोपीय कला के बारे में बताया जाए. इसमें वे कई हद तक सफल भी हुए. क्योंकि उन्होंने लोगों को यूरोपीय कला का इतिहास तो समझाया. लेकिन इससे एक बड़ा नुकसान ये हुआ की मूल भारतीय कलाएं जो थीं, उनको ये मान लिया गया कि ये मुगल और राजपूतिय कलाएं हैं.
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उन्होंने भारतीय और यूरोपीय कला में अंतर बताते हुए कहा कि यूरोपीय में कला को उत्पादन के रूप में देखा गया है. लेकिन भारतीय कला में ऐसा नहीं है, जीवन की जो समग्रता है वो भारतीय कला में है. व्यास के मुताबित भारतीय कला आलोचना भी बड़ी सम्रद्ध रही है. भारतीय कलाओं में कई लेखकों ने लिखा है लेकिन यहां पर भी कला को उत्पादन के रूप में प्रचारित कर दिया है, तो कहीं ना कहीं भारतीय कला जगत भी भ्रम का शिकार रहा है.
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साथ ही डॉ व्यास ने बताया कि भारतीय कलाओं को हिंदी में लिखा जाता है तो उस कला का जो सच है वो लोगों के सामने आता है. साथ ही कलाकृति के पीछे जो भावना रहती है वो सामने आती है. कलाकृति का सत्य भी वहीं जो भाषा के जरिये व्यापक लोगों तक पहुंच सकता है.