बीकानेर. गणगौर का पर्व बीकानेर में बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया गया. इस दौरान लगातार 16 दिन तक महिलाएं गणगौर पूजा में व्यस्त रहीं. 16वें दिन पानी पिलाने की रस्म के साथ गणगौर की परम्परा अनुसार विदाई की गई. बीकानेर में मंगलवार को भादाणी समाज की गणगौर को वापिस चौतीना कुआं से पानी पिलाकर दौड़ते हुए लोग भादाणी प्रोल तक लेकर गए. दौड़ कर ले जाने की प्रथा(Unique way of Gangaur Procession) बेहद आकर्षक है और कौतुहल का विषय भी. ये परम्परा है जिसे सदियों से कायम रखा गया है.
इतिहास रोमांचित करता है: भादाणी समाज के बुजुर्ग पूनमचंद बताते हैं कि रियासत काल के समय राजा और दीवान कर्मचन्द बछावत के बीच कोई मतभेद हो गया था. ये मतभेद गणगौर पूजा तक पहुंच गया. दीवान करमचंद बछावत ने अपने गणगौर भादाणी समाज के बुजुर्ग भादोजी को दिए. तब राजा ने एक शर्त रखी. वो ये कि अगर गणगौर परकोटे के भीतर भादाणी समाज के लोग लेकर पहुंच गए तो वो सदा के लिए उनकी रहेगी नहीं तो उसे राजपरिवार को लौटाना होगा. समाज ने चैलेंज को accept किया.
चुनौती को पूरा करने की जिद्द: कहते हैं इसी शर्त को पूरा करते हुए भादो जी गणगौर को दौड़ते हुए निकल (Gangaur Procession In Bikaner) पड़े. इस दौरान उनके साथ आए तीन लोगों की सैनिकों से हुई झगड़े में गर्दन कट गई फिर भी वो कटी गर्दन संग गणगौर को बचाते रहे. अंतत गणगौर भादाणी समाज के पास ही रही. अपने पूर्वजों को सम्मान स्वरूप बीकानेर में वो गौरवशाली इतिहास दोहराया जाता है और भादाणी समाज गणगौर लेकर दौड़त पड़ता है.
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जूनागढ़ से निकलती शाही गणगौर के बाद शुरू होती दौड़: बताया जाता है कि दरअसल बीकानेर रियासत के तत्कालीन राजा के पास उस वक्त दो गणगौर थी. जिसमें से एक राजा ने अपने पास रखी और दूसरी दीवान करमचंद बछावत को दी थी. कहते हैं राजा को करमचंद वाली गणगौर की सजावट भा गई और इसके बाद ही मामले ने नया रंग लिया. आज की बात करें तो हर साल भादाणी समाज की गणगौर के वक्त ही राज परिवार की गणगौर शाही सवारी भी निकलती है उसी वक्त भादाणी समाज के लोग चौतीना कुआं से गणगौर को दौड़ाते हुए वापस परकोटे के अंदर लेकर जाते हैं.
नहीं हो पाता दोनों गणगौर का मिलन: इन दोनों गणगौर का मिलन आज तक कभी नहीं हुआ है. शताब्दियों से चली आ रही इस परंपरा का निर्वहन बकायदगी से हो रहा है. अब भी जब शाही गणगौर जूनागढ़ के किले से बाहर निकलती है उस वक्त भादाणी समाज के लोग दौड़कर गणगौर को ले जाते हैं लेकिन उसका मुंह जूनागढ़ की तरफ ही रखते हैं. ऐसे में भादाणी समाज की जो गणगौर है वह राजपरिवार की गणगौर को देख पाती है लेकिन इनका मिलना नहीं हो पता.
रेल फाटक को करना पड़ता है पार: जिस वक्त यह परंपरा शुरू हुई थी उस वक्त रेल फाटक नहीं था. अब बीकानेर में कोटगेट पर परकोटे से पहले एक रेल फाटक आता है. आज भी जब गणगौर ले समाज के लोग दौड़कर रवाना होते हैं और रेलवे फाटक बंद होता है तब भी वो रुकते नहीं हैं. इतना ही नहीं ट्रेन के ऊपर से गणगौर दूसरे साइड में खड़े लोगों को उछाल कर पकड़ाते हैं. है तो ये खतरनाक, इस टाइमिंग को अकसर नजरअंदाज किया जाता है ऐसा वाकया एक दो बार ही हुआ है.